युग की समस्याएँ और उनका समाधान

December 1977

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इन दिनों हम अर्थ सभ्यता के युग में रह रहे हैं। बौद्धिक रुझान उसी की देन है। विज्ञान का अभ्युदय अर्थ तन्त्र द्वारा ही नियोजित होता है। शिक्षा से लेकर शासन तक, साहित्य से लेकर कला तक, धर्म से लेकर अध्यात्म तक के छोटे-बड़े महत्वपूर्ण, महत्त्वहीन अगणित प्रयोजन अर्थ तन्त्र के संकेतों पर गतिशील रहते हैं। ऐसी दशा में बेचारा मानव क्या करे ? क्या सोचे ? किस आधार पर आदर्शों का अवलम्बन लिए हुए कमर सीधी करके खड़ा रह सके, यह एक जटिल प्रश्न है। जो ढर्रा चल रहा है उसे ही चलने दिया जाय तो मनुष्य क्षीण होते-होते नैतिक मृत्यु के समीप जा पहुँचेगा और वह स्वयं पशुवत् आचरण करेगा अथवा भय और प्रलोभन के दबाव से समर्थ लोगों द्वारा कहीं भी घसीट लिया जाएगा । यह स्थिति बहुत ही दयनीय होगी जब मनुष्य का आत्म-वर्चस्व मर जाएगा और सुविधा ही उसका सर्वस्व बन जायगी।

संसार के हर क्षेत्र में गति आई है और तेजी बढ़ी है। तथाकथित ‘प्रगति’ में भी इस तीव्रता को गगन-चुम्बी बनाने की दिशा में बहुत कुछ सोचा और बहुत कुछ किया जा रहा है। इस तीव्रगामिता में पतन और विनाश भी शामिल है। नीरसता और कुरूपता बढ़ रही है। सरसता पाने के लिए लोग छविग्रहों, नग्नता के उपक्रमों, मद्य तलाश में दौड़ते हैं। होटल जितना लेते हैं उसका शतांश भी दे नहीं पाते। ऐसी दशा में पाने के लिए गया हुआ निरीह ‘मनुष्य’ जेब कटाते हुए-तिरस्कृत हुए-हारे जुआरी की तरह वापिस लौटता है। इस असहाय प्राणी के पास सजधज, ऐंठ-अकड़ के लिए तो कुछ होता भी है, पर भीतर से इतना खोखलापन रहता है कि चारित्रिक दृढ़ता की अपेक्षा नहीं ही की जा सकती । हवा के झोंके के साथ उड़ने वाले तिनके की तरह वह कहीं भी, किसी भी दिशा में उड़ता या उड़ाया हुआ देखा जा सकता है। यह मनुष्य के मरण का चित्रण है भले ही उसमें काया को जीवित समझा जाता रहे।

मनुष्य महान है। यह विश्व, भगवान की कृति ही माना जाएगा, किन्तु स्पष्ट है कि धरती पर जो कुछ भी सुखद सुन्दर है उसे बनाने में मनुष्य का असीम श्रम लगा है। मनुष्य की सृजन शक्ति घटेगी या मिटेगी तो यह दुनिया भी उठेगी नहीं, गिरेगी। मनुष्य टूटेगा-हारेगा तो समूची सभ्यता ही हार जायगी। मनुष्य मरेगा उसकी आत्मा गलेगी तो फिर यह जो कुछ भी बचा रहेगा उसे श्मशान की तरह जलता और दुर्गन्ध फैलता हुआ-डरा-बना ही पाया जाएगा । स्वर्ग की गरिमा बहुत है पर नरक की विभीषिका का आतंक भी कम कहाँ है ? यदि हम वर्तमान को समझ सके और भविष्य का अनुमान लगा सके तो एक ही तथ्य सामने रह जाएगा कि किसी भी कीमत पर मनुष्य को-उसके वर्चस्व को-मरण से बचाने और जीवित रखने का प्रयत्न किया जाय।

समय की सबसे बड़ी आवश्यकता मनुष्य को मनुष्य-सच्चा मनुष्य बनाने के लिए प्रबल प्रयत्न करने की है। मनुष्य के मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, कलात्मक, आध्यात्मिक, भावनात्मक, दार्शनिक एवं क्रियात्मक आदि सभी पक्ष ऐसे हैं जिन्हें स्वस्थ और शालीन रखे जाने की आवश्यकता है। बौद्धिक और आर्थिक प्रगति के लिए कुछ भी किया जाय-नैतिक स्थिरता एवं प्रौढ़ता पर कम नहीं अधिक ही ध्यान दिया जाय। इसके लिए सोचते रहने से काम नहीं चलेगा। जिस प्रकार कृषि, उद्योग, बिजली, शिक्षा, सुरक्षा आदि के भौतिक प्रयत्न किये जाते हैं उनसे हलके नहीं भारी प्रयत्न ही नैतिक परिपक्वता के लिए आवश्यक होंगे ।

शरीर की सुरक्षा और दृढ़ता उसके अन्तराल में सन्निहित एक विशेष शक्ति पर निर्भर है जो यन्त्रों से तो नहीं परखी जाती, पर होती जीवन प्राण स्तर की है। इसे अनुकूलन, एडेप्टेशन कहते हैं। कभी-कभी इसे जीवनी शक्ति भी कहा जाता है। यह पर्याप्त मात्रा में हो तो शरीर में स्फूर्ति, मन में उमंग, बुद्धि में सन्तुलन, भावनाओं में उदार संवेदन का बाहुल्य दृष्टिगोचर होगा। साहस, आशा, उत्साह इसी जीवनी शक्ति के परिणाम प्रस्तुत करते हैं। यह एडेप्टेशन जब गहराई में जाकर आत्मबल बन जाता है- जिसका अर्थ होता है चारित्रिक दृढ़ता, उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श क्रिया-कलाप प्रकारान्तर से इसी को महानता कहते हैं।

जिस प्रकार शरीर की दृढ़ता आहार पर और मन की साहसिकता, शिक्षा पर निर्भर है उसी प्रकार व्यक्तित्व की गरिमा प्रतिभा, पद या वैभव पर नहीं, व्यक्ति की आन्तरिक महानता पर निर्भर है और यह उदात्त दृष्टिकोण पर-आदर्शवादी निष्ठाओं पर निर्भर है। यही है वह तत्व जो मनुष्य को महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य बनाता है। इसकी कमी पड़ने से ही क्षुद्रता बनी रहती है और पिछड़ापन बढ़ता जाता है, भले ही छुट-पुट भौतिक सफलताएँ किसी प्रकार हाथ लग जावे।

जीवन सत्ता में अनेकों तत्व जुड़े हुए हैं, उनमें से जिनका उपयोग होता है वे उभरते और बलिष्ठ होते चले जाते हैं। जिनकी उपेक्षा रहती है जो काम में नहीं आते, वे घटते और लुप्त होते चले जाते हैं। मानवी अन्तराल में काम करने वाली उत्कृष्टता जिसे शरीर क्षेत्र की एडेप्टेशन शक्ति के समतुल्य माना जा सकता है, यदि घटेगी तो विकृतियाँ भीतर से उभरेंगी और बाहर से आक्रमण करेगी। सर्वविदित है कि जब शरीर की जीवनी-शक्ति घट जाती है तो हाथ-पैरों की सक्रियता, पेट की पाचन शक्ति, मस्तिष्क की तीक्ष्णता और रक्त की रोग निरोधक क्षमता में भारी कमी आ जाती है। वाह्य उपचारों से उसकी आँशिक-यत्किञ्चित् पूर्ति ही हो पाती है। जिसका रोग-निरोधक तत्व घट जाय तो बहुमूल्य उपचार करने पर भी मामूली से घाव भरने में नहीं आते। संकल्प-शक्ति के अभाव में दैनिक जीवन के छोटे-छोटे काम तक अधूरे पड़े रहते हैं। छोटे-छोटे प्रलोभनों का आकर्षण चरित्र को गिरा देता है- छोटे-छोटे अवरोध सन्तुलन डगमगा देते हैं और भयभीत व्यक्ति कुछ भी अकरणीय करने पर उतारू हो जाता है। इस विषम परिस्थिति की छाया जीवन के जिस क्षेत्र में जितनी मात्रा में दृष्टिगोचर होती है उसमें उसी काम रूप की समस्याएँ उपजती हैं। उनकी जटिलता उसी अनुपात से अधिक होती है और वे सुलझने में उतना ही अधिक समय लगाती हैं। साधारण बुद्धि इन उलझनों को खण्ड-खण्ड करके देखती है और उनके पृथक-पृथक उपचार सोचती हैं, जब कि समस्त समस्याओं के मूल में एक ही तथ्य काम करता है- मानवी गरिमा के प्रति आस्था का अभाव। इसी को ईमान कहते हैं। नास्तिकता मर्ज के मरीज हैं। नास्तिकता ईश्वर की अस्वीकृति को नहीं आत्मा का प्रसंग है। आस्था रहित व्यक्ति के पग-पग पर पतित होने की आशंका बनी रहेगी। इसके विपरीत जिसके अन्तःकरण में श्रेष्ठता के प्रति श्रद्धा की सघनता है उसे निरन्तर प्रतिकूलताओं के बीच रहते हुए पतित आचरण करने की स्थिति न आने पावेगी। वह आत्मबल के सहारे बाहरी सभी दबावों को हँसते-हँसाते सहन करते हुए समय काट लेगा। ज्वार-भाटे चलते रहते और मध्य सागर में जहाज अपना लंगर डाले शान्तिपूर्वक खड़े रहते हैं। आस्थावान् व्यक्तित्व किन्हीं भी परिस्थितियों में विचलित नहीं होते । उनकी यह उत्कृष्टतावादी दृढ़ता-महानता-न केवल उन्हें ही श्रेय प्रदान करती है, वरन् अपने प्रभाव क्षेत्र को-सामयिक वातावरण को भी समुन्नत बनाने में सहायता करती है।

साधन तो उपकरण हैं- मूल सत्ता तो साधक की है। साधक यदि अनाड़ी या उद्धत हो तो उपयोगी साधन भी विनाश का कारण बनेंगे । सुई और माचिस जैसे छोटे उपयोगी साधन तक दुरुपयोग किये जाने पर मरण संकट खड़ा कर सकते हैं। प्रयोक्ता चेतना होती है और प्रयुक्त की जाने वाली वस्तुएँ जड़। पदार्थ का महत्व कितना ही क्यों न हो-उसमें गुण कैसे ही क्यों न हों प्रयोक्ता का पिछड़ापन उपलब्ध साधनों से मात्र विपत्ति ही उपार्जित करेगा। इसके विपरीत सुसंस्कृत व्यक्ति स्वल्प साधनों से भी सुखी रह सकता है और उनका सदुपयोग करके साधन सम्पन्न लोगों से भी बढ़ी-चढ़ी सफलताएँ प्राप्त कर सकता है। हम साधन वृद्धि में जोरों से लगे हैं, पर यह भूल गये हैं कि जिसके द्वारा इन साधनों का उपयोग होना है उनके स्तर में अभिवृद्धि हो रही है या नहीं। इस दिशा में बरती जाने वाली वर्तमान उपेक्षा यदि भविष्य में भी ऐसी ही बनी रही तो बढ़ते हुए साधनों से विपत्ति ही बढ़ेगी । तब वह सम्पन्नता-दरिद्रता से भी अधिक महँगी पड़ेगी । विज्ञान, बुद्धि और अर्थ साधनों द्वारा सुविधा संवर्द्धन के लिए किये जाने वाले प्रयासों की प्रशंसा ही की जो सकती है, पर ध्यान रखने योग्य बात एक ही है कि यदि व्यक्तित्व के स्तर की प्रगति को महत्व न दिया गया तो परिणाम सुखद न होगा। तालाब में पानी बढ़ता है तो तैरने वाले कमल पुष्पों का डंठल भी ऊँचा उठता है। पानी बढ़े डंठल न उठा तो तैरने वाले शोभायमान कमल पुष्पों के डूब कर नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा । साधन बढ़ना सराहनीय हैं, पर उपभोक्ता का स्तर भी बढ़ना चाहिए। रोगी के लिए पौष्टिक आहार भी कहाँ हितकर सिद्ध होता है ?

मनुष्य, समाज का एक अंग है। यह तथ्य है और यह भी सत्य है कि समाज के हित में जीवनयापन करने के लिए व्यक्ति को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इसलिए नागरिक शास्त्र, समाज शास्त्र के सिद्धान्तों को समझना समझाया जाना आवश्यक है। संघबद्धता, सामूहिकता और संगठनों पर जोर दिया जाता है और समाज हित में काम करने के लिए कानूनी बन्धनों में जकड़ा जाता है। अधिनायकवाद में व्यक्ति के मौलिक अधिकार अपंग कर दिये जाते हैं और उसे यांत्रिक स्तर पर समाज व्यवस्था का अनुसरण करने के लिए बाधित किया जाता है। इस प्रयास के औचित्य-अनौचित्य की चर्चा इन पंक्तियों में नहीं हो रही है। यहाँ तो इतना ही कहा जा रहा है कि यदि आन्तरिक महानता न बढ़ सकी-आत्मा की दृष्टि से यदि मनुष्य आस्थावान न हो सका तो उसके यांत्रिक सहयोग का मूल्य पशु श्रम जितना ही रह जाएगा। उतने भर से आदर्शवादी परम्पराओं के लिए भाव भरी उमंगों की पूर्ति न हो सकेगी।

सामाजिकता का दूसरा नाम है- सभ्यता सभ्यता का अपना मूल्य और महत्व है। किन्तु उसका प्राण तो संस्कृति है। संस्कृति का अर्थ है- आदर्शवादी आस्था-उदात्त चिन्तन दृष्टि। संस्कृति को प्राण और सभ्यता को काया कह सकते हैं। उत्कृष्ट आस्थाएँ मनुष्यता का प्राण है और सद्व्यवहार का लोकाचार उसका कलेवर। कलेवर कितना ही सुसज्जित क्यों न हो यदि उसके भीतर निवास करने वाली चेतन सत्ता निष्प्राण है तो फिर उस सुसज्जा से कितना प्रयोजन पूरा हो सकेगा। जीवन स्तर 'लिविंग स्टेंडर्ड' बढ़े इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, पर यदि जीवन को दिशा देने वाला आस्था परक स्तर गया-गुजरा ही बना रहा तो मात्र जीवनयापन की सुविधायें बढ़ जाने से क्या काम चलेगा ? असली प्रगति तो आस्था क्षेत्र में उत्कृष्टता के समावेश का अनुपात देखकर ही आँकी जानी चाहिए। जब तक व्यक्तित्वों का अन्तराल ऊँचा न उठेगा तब तक यांत्रिक सामूहिकता कुछ विशेष उपयोगी सिद्ध न होगी। मधुमक्खियों में सामाजिकता और सामूहिकता देखने ही योग्य है। इतने पर भी उसका कोई महत्व नहीं। क्योंकि वे प्राणी व्यक्तित्व की दृष्टि से समुन्नत नहीं हैं, मात्र उनका शरीर ही यात्रा की सामूहिकता के नियम पालन करती है। मनुष्यों को भी नागरिक नियमों के पालन का अभ्यस्त बनाया जाता है जैसा कि सभ्यताभिमानी पाश्चात्य देशों में प्रचलन भी है। इसका विरोध कौन करेगा ? बात उस कमी को पूरा करने की है जिसके कारण शिक्षित और सम्पन्न व्यक्ति भी मानवी गरिमा का आनन्द लेने और देने में असमर्थ ही बना रहता है।

आज की परिस्थितियाँ कबाड़ी बाज़ार जैसी हो गई है, उसमें उपयोगी, अनुपयोगी के ढेर लग गये हैं। हमें औचित्य का चुनाव, वरण और संग्रह करना होगा। सौंदर्य अभीष्ट है विलासिता नहीं। विज्ञान अभीष्ट है जड़ता की अभ्यर्थना नहीं, तत्त्वज्ञान चाहिए अन्ध-विश्वास नहीं। ढर्रे में भारी परिवर्तन करना होगा। औद्योगिक क्रान्ति से भी अधिक बड़ी एक और क्रान्ति आवश्यक है- जिसे विचार क्रान्ति कह सकते हैं। ऐसी विचार क्रान्ति जिसमें पुरातन की समस्त श्रेष्ठताएँ सुरक्षित रखते हुए विनाशकारी विकृतियों से विमुख होने का प्राणवान साहस काम करता दृष्टिगोचर हो सके। मनुष्य का जीवन-मरण इसी अभिवर्धन परिवर्तन पर अवलम्बित है।


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