आध्यात्मिक जीवन के पाँच पक्ष

December 1977

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आध्यात्मिक जीवन के पाँच पक्ष हैं- (1) धर्म (2) क्रिया (3) भाव (4) ज्ञान (5) योग। इन्हें विकास पक्ष की क्रमिक भूमिका कह सकते हैं।

धर्म वह पक्ष है- जो व्यवहार के सम्बन्ध में दिशा धारण की अन्तः क्षेत्र में प्रतिष्ठापना करता है। क्या करना है, क्या नहीं, इसका एक आदर्शवादी पक्ष भी है। स्वार्थ और कुसंस्कारों से पशुवत् स्वेच्छाचार बरतने की भी एक लहर ज्वार की तरह मन में उठती रहती है। उसे शान्त, समाहित और सन्तुलित करने के लिए अन्तःकरण का देवपक्ष काम करता है। समाज में मानवी मर्यादाएँ और परम्पराएँ भी मौजूद हैं। इस भीतरी और बाहरी उत्कृष्टता की जो छाप मान्यता के रूप में मन स्वीकार करता है उसे व्यक्तिगत धर्म कह सकते हैं। यों सामाजिक और दार्शनिक धर्म की व्याख्या, विवेचना तो शास्त्रों और प्रवचनों द्वारा अवगत होती ही रहती है।

(2) आध्यात्मिक जीवन का दूसरा पक्ष है- क्रिया मान्यताएँ जब प्रबल, परिपक्व और स्वभाव व्यवहार का अंग बन जाती है तो उनकी प्रेरणा से तद्नुरूप आचरण होने लगता है। कई बार तो मान्यताएँ कल्पना मात्र रहती हैं और उनका प्रयोग चर्चा प्रसंग तक सीमित रहता है, पर जब वे गहन अन्तराल को स्पर्श करती हैं, तो शरीर को उसी दिशा में चलने के लिए विवश करती हैं। दुष्ट कर्म, पूर्व संचित पूर्वाग्रहों और अभ्यासों से होते हैं। पर धर्माचरण के लिए आदर्शवादी नैतिक मानवी गरिमा की अनुभूति से ही प्रेरणा मिलती है। धर्म मान्यताओं को धर्माचरण का रूप मिलने लगे तो समझना चाहिए आत्मिक प्रगति की दूसरी कक्षा में पहुँचने की स्थिति बन गई।

(3) तीसरी कक्षा है- भाव भाव का तात्पर्य है रस। सदुद्देश्यों में रस आये, प्रीति बढ़े और विश्वास सुदृढ़ हो तो उस भाव समन्वय को ‘श्रद्धा’ कहते हैं। यों श्रद्धा दुष्ट, दुर्भावों और दुष्कर्मों में भी हो सकती है। असुरों की मनोभूमि इसी स्तर की होती है, पर जहाँ आत्मिक प्रगति का प्रश्न है वहाँ श्रेष्ठता के प्रति भाव भरी प्रीति को ही ‘श्रद्धा’ कहा जाएगा। इसी को शास्त्रकारों ने भाव कहा है। स्वभाव तो अभ्यास गतिविधियों से भी बन सकता है, पर भाव के लिए गहरी सुसंस्कारिता चाहिए। भगवान भाव के भूखे हैं। ‘भावो हि विद्यते देव’ जैसे तथ्यों से स्पष्ट है कि श्रद्धा की ज्योति से ही आत्म क्षेत्र की निर्जीव निस्तब्धता जागृति और गति रूप में प्रकट परिलक्षित होती है। मन्त्र सिद्धि से लेकर देव अनुग्रह तक का उत्पादक यही भाव संस्थान है। आन्तरिक आनन्द का सन्तोष से लेकर उपासना की सुखद प्रतिक्रिया का सृजन इस तीसरी भाव भूमिका में ही होता है।

(4) चौथा पक्ष है- ज्ञान ज्ञान से तात्पर्य है- आत्मज्ञान शिक्षा स्वाध्याय या प्रवचन परामर्श या अनुभव मनन से मिलने वाली जानकारी से आत्मज्ञान भिन्न है। उसमें अपने स्तर, स्वरूप, उद्देश्य और कर्तव्य की उच्चस्तरीय अनुभूति होती है और यह सघन विश्वास बन कर जीव चेतना का अंग बन जाती है। यह आन्तरिक काया-कल्प है। साधारणतया मनुष्य शरीर अध्याय में ही नख-शिख् पर्यन्त डूबा रहता है और इन्द्रिय लिप्सा, सम्पत्ति लालसा और बड़प्पन की अहमन्यता जैसे भौतिक उत्साह ही उस पर छाये रहते हैं। इन्हीं की पूर्ति में जीवन गुजरता है। आत्मज्ञान होने पर स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन होता है तब व्यक्ति अपने को सत्-चित आनन्द में अनुभव करता है। इन्हीं आत्म ज्ञानियों को तत्त्वदर्शी या ऋषि कहते हैं। भले ही वे रहन-सहन की कोई भी पद्धति अपनाये रहें।

(5) अन्तिम प्रगति स्थल है- योग योग का तात्पर्य है- मिलन-घुलन विलय, विसर्जन, समर्पण। नाले का नदी में, ईंधन का अग्नि में, नमक का पानी में विसर्जन होता है तो उनका द्वैत मिलकर अद्वैत बन जाता है। योगाभ्यास के कर्मकाण्ड तो अनेकों हैं और वे योग की अन्तः स्थिति उत्पन्न करने के लिए सुविधा भी उत्पन्न करते हैं। भ्रमवश लोग योगाभ्यास के कर्मकाण्डों को ही योग कहने लगते हैं और उनमें निरत लोग योगी कहे जाने लगते हैं। वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। ‘योग’ अन्तःकरण की वह स्थिति है जिसमें जीव ‘स्व’ की पृथकता को समाप्त करके ईश्वरीय चेतना की लहर किरण बन कर सोचता और काम करता है। यह नर-नारायण की समन्वित स्थिति है। वेदान्त में तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् की जिस मान्यता की सम्वेदना बना लेने का निर्देश है वस्तुतः वह ‘योग’ का लक्ष्य है। योगी को अवतार या परमात्मा कहा जा सकता है क्योंकि उनकी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति प्रायः ईश्वर तुल्य ही होती है।


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