कर्म-शून्य संवेदना निरर्थक है (kahani)

December 1977

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रूस के उक्रेन प्रान्त के प्रीलुका गाँव में एक तंनेबर का घर। पिता स्वयं ताँबे के बर्तनों को बनाने का काम करते थे। अतः इच्छा थी कि पुत्र बड़ा होकर औद्योगिक रसायनविद् बने। साधन तो अधिक थे नहीं।

तभी घर की कन्या बीमार पड़ी। डिप्थीरिया ने उसे अपनी चपेट में ले लिया। मृत्यु का ग्रास बनी बहिन को देखकर भाई का अन्तःकरण पीड़ा से सिहर उठा। कल तक दोनों साथ खेलते, खाते, विनोद करते थे, आज वही बीन रोग के क्रोध का शिकार बन गई है। उसने विचार किया-पता नहीं कितनी बहिनें और कितने भाई इन्हीं रोगों के प्रबल थपेड़ों से असमय ही इस दुनिया से चले जाते हैं। परिजन असहाय देखते रहते हैं।

युवक के पुरुषार्थ को जैसे कोई चिनगारी छू गई। उसने संकल्प किया- मैं अपनी शक्ति भर लोगों को रोग के इस भयानक चंगुल से मुक्त करने-कराने का प्रयास करूँगा। औद्योगिक व्यवस्था में तकनीकी कार्य-कौशल से बहुत धन मिल सकता है। पर वह धन मुझे नहीं चाहिए। मैं तो मानवीय पीड़ा के विरुद्ध संघर्ष में ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति झोंकूँ, इसी में सार्थकता है।’

डस संकल्पवान युवक का नाम था सैलमेन अब्राह्म वाक्समैन। 22 वर्ष की आयु में 1910 में वे संयुक्त राज्य अमरीका में जा बसे। अपनी प्रखर बुद्धि के कारण उन्हें रुटजर्स विश्वविद्यालय, न्यू बुन्सविक, न्यू जरसी में छात्रवृत्ति सहित प्रवेश मिल गया। फिर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त कर प्राध्यापक बने।

उन्होंने अपना सारा जीवन रोगों के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। सूक्ष्मजीवियों तथा रोगाणुओं का विस्तृत अध्ययन किया। इन्हीं प्रोफेसर वाक्समैन ने स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज की। जो मिला प्राप्त धनराशि एवं स्ट्रेप्टोमाइसिन की सम्पूर्ण रॉयल्टी उन्होंने रुटजर्स विश्व-विद्यालय के नाम कर दी, जिससे इंस्टीट्यूट आफ माइक्रोवायलाजी” का निर्माण हुआ। स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज के लिए सम्पूर्ण मानव जाति प्रो वाक्समैन की ऋणी है।

संवेदन सच्ची, गहरी और व्यापक हो तो निश्चय ही वह कर्म और पुरुषार्थ में प्रतिफलित होती है। कर्म-शून्य सम्वेदना निरर्थक है।


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