अपनों से अपनी बात

December 1977

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बसन्त पर्व भगवती सरस्वती का जन्म दिन है। उनके अवतरण ने निर्मम नर-पशु के वन्य जीवन में संस्कृति का आधार किया। भाव सम्वेदनाएँ उभारी। करुणा, मैत्री मुद्रिता, ममता जैसी सौम्य कोमलताओं का उदय हुआ। संगीत साहित्य कला के रूप में मनः चेतना को और श्रद्धा, निष्ठा, उदारता के रूप में अन्तः चेतना में परिष्कृत होने का अवसर मिला।

जड़ प्रकृति में उनके अवतरण के रस सन्धार कर दिया, वृक्ष पादपों ने नवीन पल्लव धारण किये और मन्द मुसकान के साथ फल-फूलों से लद गये। पवन ने मादक सुगन्ध भर-भर कर सभी दिशाओं में मुक्त हस्त से बिखेरी । पशु-पक्षी कीट-पतंग तक उस वासन्ती उभार उल्लास का अनुभव करके अपने उत्साह का परिचय देने लगे। प्रणय लिए असन्तोष से प्रेरित हर मनुष्य अपने-अपने स्तर के अनुरूप कुछ सोचना, कुछ खोजना और कुछ करता दृष्टिगोचर होता है। ऐसा है यह नव-जीवन का सन्देशवाहक बसन्त पर्व। भगवती सरस्वती का जन्म दिन।

सामान्य जड़ चेतन की तरह ही विशिष्ट आत्माओं में भी उनके अनुरूप दिव्य सन्देशों की एक नई किश्त हर वर्ष उपलब्ध होती है। महानता के उदय और कार्यान्वयन के इतिहास का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि संसार भर में श्रेष्ठता ने सर्वत्र इन्हीं दिनों लम्बी-लम्बी कुलाचें लगाई, छलाँगे भरी और उड़ाने उड़ी हैं। शक्ति जहाँ भी पहुँचती है, वहाँ सक्रियता उत्पन्न करती और प्रगति के द्वार खोलती है। यह बात दूसरी है कि वह निकृष्टता से जुड़कर विनाश के सरंजाम खड़े करे। चाकू

बसन्त पर्व का नव-जीवन सन्देश

क्रीड़ा की अभिलाषा इन्हीं दिनों उग्र होती है और वंश वृद्धि का प्रयोजन पूरा करती है। सरलता की उमंग हर जड़ चेतन को प्रभावित करती है। बसन्त पर्व भगवती सरस्वती के सन्देशवाहक का कर्तृत्व निभाता है और सर्वत्र नव-जीवन का संचार करता है।

बसन्त एक उभार है उत्साह है, नशा है, साहस है और ऐसा कुछ है कि आगे बढ़ने के लिए-ऊँचा उठने के लिए-ड़ड़ड़ड़ दीखता है चेतना को उसी का अनुगमन करना होता है। मनुष्यों में भी यह सहज उभार सर्वत्र संव्याप्त जैसा देखा जा सकता है। वे हर्षोल्लास प्रकट करने के लिए-मोद विनोद के अवसर ढूँढ़ने के लिए कुछ खोजते और कुछ करते दिखाई पड़ते हैं। सामान्य से उन्हें भी सन्तोष नहीं होता। असामान्य के से कलम भी बन सकती है और रक्त पात भी हो सकता है। यह उपयोगकर्ता एवं उपयोग प्रसंग की बात है। शक्ति अपना काम करती है। विद्या, धन, बल, बुद्धि, कला आदि की क्षमताएँ सज्जनों या दुर्जनों के पास पहुँचती है वही स्थिति में दृढ़ता एवं सफलता उत्पन्न करती है। बसन्त पर्व से दुष्टता का कहाँ कितना अभिवर्धन हुआ इसका विवरण तो विदित नहीं है, पर श्रेष्ठता का इतिहास सुनिश्चित है कि बसन्त पर्व की पुण्य बेला में अन्तः-करण हुलसते हैं, उभरते हैं। भाव-तरंगित होकर वे कुछ महत्वपूर्ण संकल्प करते और कदम बढ़ाते हैं। इसमें व्यक्ति का जितना श्रेय है उतना ही नियति व्यवस्था का भी। एक बार वह तकाजा, उपहार, प्रसाद, उत्साह लेकर आते अवश्य है यदि उसको ठुकरा न दिया जाये तो उस दिव्य अनुदान का सत्परिणाम मिलता अवश्य है।

अपने निजी जीवन में दैवी अनुग्रह की किश्तें एक-एक करके बसन्त पर्व पर ही उपलब्ध होती रही है। आम की फसल भी तो वर्ष में एक बार ही मिलती है। वार्षिक अनुदानों का जहाँ भी विधान है वहाँ सर्वत्र ऐसा ही होता है। भगवान उसी पर अनुकम्पा करते हैं तो उसे श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ चलने की प्रेरणा, हिम्मत तथा परिस्थिति प्रदान करते हैं। उनका कार्य इतना ही है और यही समाप्त हो जाता है। परिस्थितियाँ उत्पन्न करना मनुष्य के अपने पुरुषार्थ के ऊपर निर्भर है। ईश्वर अपने हिस्से का काम अर्जुन के घोड़े चलाने जितना ही करता है शेष गाण्डीव चलाने जैसा पुरुषार्थ अर्जुनों के जिम्मे रहता है। वे अपना काम न करें तो फिर दैवी कृपा का लाभ प्राप्त करने से वंचित ही बने रहेंगे। प्रेरणा दैवी-सक्रियता मनुष्य को-इन दोनों के समन्वय से ही महत्वपूर्ण उच्चस्तरीय आध्यात्मिक सफलताएँ मिलती है। इस तथ्य को प्रमाणित करने वाले साक्षियाँ सबसे निकट ढूँढ़नी हों तो परिजन हमारी जीवन पुस्तिका के पृष्ठो के उलट कर जो कुछ कहने लायक बन पड़ा है उसका पर्यवेक्षण कर सकते हैं बसन्त पर्व पर हर वर्ष जो अंतः स्फुरण के रूप में भगवान के सन्देश संकेत प्राप्त होते रहे है उन्हें ‘करिष्ये वचनं तत्र’ की आत्म-समर्पण की मनःस्थिति में किया जाता रहा है। जिस गहन श्रद्धा से संकल्प किए उसी समर्थ सफलता के साथ वे सम्पन्न भी हुए हैं। इस विधि-विधान का -दिव्य अनुदान क्रम का लाभ हमारी ही तरह कोई भी उठा सकता है। यह द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है। यह अवसर हर किसी के लिए समान रूप से उपलब्ध है।

हमारे जीवन-क्रम की कुछ घटनाएँ सर्वविदित है और शेष ऐसी है जिन्हें समय से पूर्व प्रकट करना आवश्यक न समझ कर गोपनीयता के पर्दे में छिपाये रखा गया है। उसमें कोई दुर्बलता, दुरभिसंधि या कुटिलता नहीं है वरन् उतना ही उद्देश्य है कि जिस दिशा में लोक-प्रवाह को बहाना इन दिनों अभीष्ट है उससे भिन्न दिशा में जनमानस का बहाव न बढ़ जाय। साधना और उसकी सिद्धि का विषय ऐसा है जिसे कुछेक अधिकारी व्यक्तियों तक के लिए सुरक्षित रखा जाय तो ठीक है। उसके चमत्कारी सत्परिणामों का लाभ उतने ही छोटे परिकर तक सीमित रहने में ही लोकहित है। अनाधिकारी उसे तुर्त-फुर्त प्राप्त करने और मन चाहे उपयोग के लिए भारी उछल-कूद मचाते हैं। इन अपरिपक्व हाथों में कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु लग जाये तो वे अपना और समग्र का अनर्थ ही करते हैं। गोपनीयता का उच्चस्तरीय प्रयोजन यही है। बाप तिजोरी की चाबी अपने पास रखता है और उसमें क्या है उसकी जानकारी घर के उत्तरदायी लोगों तक ही सीमित रहती है। सबको वह जानकारी मिले तो उस धन को पाने और मनमानी उपयोग करने की खींच-तान आरम्भ हो जायगी। गोपनीयता की शपथ शासकीय मन्त्रिमण्डल में इसी आधार पर दिलाई जाती है। हमने भी उसी प्रकार की शपथ ली है और साधना प्रकरण के कुछ विशिष्ट रहस्यों और प्रसंगों को अधिकारी व्यक्तित्वों तक के लिए सुरक्षित रख कर शेष को सर्वविदित होने दिया है। इस विज्ञात विवरण से भी यह पता चल सकता है कि बसन्त पर्व की विशिष्ट अमृत वर्षा का जल आदि जीवन-कलश में एकत्रित कर लिया जाय तो उससे कितना बड़ा हित साधन हो सकता है।

हमारे व्यक्तिगत जीवन की कुछ प्रमुख और सर्वविदित घटनाएँ इस प्रकार है- (1) 24 वर्ष 24 गायत्री महापुरश्चरणों की कष्ट साध्य तपश्चर्या का श्रीगणेश (2) अखण्ड दीपक की स्थापना (3) अखण्ड-ज्योति पत्रिका का प्रकाशन (4) गायत्री तपोभूमि का शिलान्यास (5) सहस्र कुण्डीय गायत्री यज्ञ से देश भर के अध्यात्म प्रेमियों का एकत्रीकरण (6) गायत्री परिवार की स्थापना (7) वेद शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थों का अनुवाद प्रसारण (8) विचार क्रान्ति अभियान के लिए युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री आन्दोलन (9) अज्ञातवास घटनाएँ (10) शान्ति कुँज की स्थापना (11) युगान्तरीय चेतना के लिए सत्र-शिक्षण योजना का आरम्भ (12) महिला जागृति अभियान (13) ब्रह्म वर्चस् आरण्यक (14) अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का वह प्रयास जिसके आधार पर उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित सम्भावना है। समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले थे, दैवी प्रेरणा और समग्र समर्पण के साथ किये गये पुरुषार्थ का प्रतिफल इतना ही है जो सर्वविदित है। इनमें प्रत्येक क्रिया का शुभारम्भ बसन्त पर्व के दिन की हुआ है दिव्य प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने का यह मुहूर्त जितना उत्तम है उतना हमारी दृष्टि में कदाचित ही कोई हो सकता है। यही कारण है कि हमारा आध्यात्मिक जन्म दिन बसन्त पर्व को ही घोषित किया हुआ है। यों शरीर का जन्म आश्विन मास में हुआ था। महत्व और मूल्य तो आध्यात्मिक जीवन का ही है। शरीर तो कृमि-कीटकों का भी जन्मता-मरता रहता है।

अपना अध्यात्म परिवार ही अखण्ड-ज्योति पत्रिका के सदस्यों के रूप में बिखरा पड़ा है। कुछ समय पूर्व तक हम लोग परस्पर बिखरे हुए एक दूसरे से अपरिचित थे। जिस सूत्र से यह मणिमाला के दाने परस्पर इतनी सघनता पूर्वक गुँथ गये उसे अखण्ड-ज्योति पत्रिका कहा जा सकता है। अखण्ड-ज्योति क्या है? बसन्त पर्व की एक स्फुरणा। प्रकारान्तर से हम लोगों को नितांत दूरवर्ती और अपरिचित होते हुए भी एक-दूसरे के अधिकतम निकट सच्चे शब्दों में सघन आत्मीय बना देने का श्रेय इस स्फुरणा को ही है जो बसन्त पर्व के उपहार स्वरूप उमगी और जिसके बन्धनों में बँध कर हम एक कारवाँ के रूप में किसी महान लक्ष्य की ओर कन्धे से कन्धा मिलाकर चल पड़े। इस प्रकार लोगों की मैत्री आत्मीयता का कारणभूत जन्म दिन बसन्त पर्व ही कहा जा सकता है। भले ही वह प्रत्यक्षतः आरम्भ किसी भी वर्ष- किसी भी महीने या दिन से क्यों न हुआ हो? हम लोगों में से प्रत्येक का यह अधिकार है कि अखण्ड-ज्योति परिवार को जोड़ने वाली कड़ी का जन्म दिन-मैत्री जन्म दिन बसन्त पर्व को मनाएँ । परिवार के सूत्र संचालक से उनका जो परिचय एवं सद्भाव है उसका उद्गम गोमुख भी बसन्त पर्व को ही माने और उस पर्व को भावनापूर्वक मनाये । पिछले 40 वर्ष से होता ही ऐसा रहा है। अखण्ड-ज्योति के प्रकाशन से लेकर अब तक जो भी अपने निकट संपर्क में आये हैं उन्होंने इस मिशन के पीछे दैवी अनुदान का रहस्य झाँकता देखा है। इस झाँकी उन्होंने बसन्त मुसकराता देखा है। फलतः बसन्त पंचमी को किसी न किसी रूप में परिजनों में अपना श्रद्धा केन्द्र माना है और उसे व्यक्तिगत एवं सामूहिक आयोजनों के रूप में किसी न किसी रूप में मनाया है। जैसे-जैसे परिवार का गठन सुदृढ़ होता गया और उसकी हलचलों में तेजी आती गई वैसे-वैसे बसन्त पर्व का महत्व अधिक समझा जाने लगा है और उसके आयोजन समारोह भी प्रायः हर जगह अधिक उत्साह समारोह और धूमधाम के साथ मनाये जाने लगे हैं। अब युग-निर्माण अभियान जन्म दिवसोत्सव के रूप में उसे सर्वत्र मनाया जाता है।

इस बार भी सर्वत्र बसन्त पर्व अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों द्वारा मनाया जाएगा । पुनर्गठन आह्वान से परिजनों की विचार-निष्ठा प्रत्यक्ष सक्रियता के रूप में उभरी है और सर्वत्र जागरूकता के, क्रियाशीलता के, उत्साह के, अधिकाधिक तत्परता के समाचार आ रहे हैं। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य पूरा करने के लिए चल रही ज्ञान-ग्रह की लपटें अधिक ऊँची उठी हैं। विचार-क्रान्ति अभियान की जली मशाल का प्रकाश अधिक तीव्र हुआ है। उसके आलोक ने अपना दायरा बहुत बड़े क्षेत्र तक विस्तृत कर लिया है। टोलियों का गठन एक प्रकार से वरदान सिद्ध हुआ है। उससे जन-जागृति का उद्देश्य असाधारण रूप से पूरा हुआ है संगठन का नया रूप निखरा है। जन्म दिवसोत्सव हर सदस्य का मनाया जाता रहे यह एक उपयोगी परम्परा बनने जा रही है। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा की चार सूत्री आत्मोत्कर्ष साधना में प्रायः सभी परिजन संकल्पपूर्वक निरत हो गये हैं। मात्रा में न्यूनाधिकता भले ही रही हो, पर वे संकल्प और निष्ठा के साथ अपनाया सर्वत्र गया है। झोला पुस्तकालय में नया उत्साह आया है और जहाँ भी शाखा संगठन जीवित है वहाँ चल पुस्तकालय आरम्भ हो गये या होने जा रहे हैं। इस प्रयोजन के लिए प्रायः सभी समर्थ शाखाओं ने एक एक स्थायी कार्यकर्ता की नियुक्ति कर ली है और क्रियाकलाप इस तरह चलाया है जिससे भविष्य में कभी भी शिथिलता आने की आशंका न रहे। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण-नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की- लक्ष्य पूरा करने के लिए जिस भावना और कर्मनिष्ठा की आवश्यकता है वह अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों में इन दिनों पहले की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक दृष्टिगोचर हो रही है। इस बार देश भर में आश्विन नवरात्र आयोजन सर्वत्र सामूहिक रूप से मनाये गये हैं। यह पहला प्रयोग है। लगता है भविष्य में नवरात्र आयोजन और गायत्री अनुष्ठान पर्यायवाचक बन जायेंगे। प्रातःकाल सामूहिक जप, ध्यान-साधना, रात्रि का गायत्री साहित्य के कथा प्रवचन-अन्तिम दिन गायत्री यज्ञ और अन्त में विसर्जन जुलूस का कार्यक्रम पूरे उत्साह के साथ सम्पन्न हुए हैं। इतने कम खर्च में इतने प्रभावोत्पादक आयोजन हो सकने का यह पहला अनुभव है। चैत्र की नवरात्र और भी अधिक उत्साह में मनाये जाने की सम्भावना है। इन उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर यह अनुमान लगाने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं है कि बसन्त पर्व भी अखण्ड-ज्योति परिजनों द्वारा पहले की अपेक्षा अधिक उत्साहपूर्वक मनाया जाएगा । मिशन के प्रति निष्ठावानों की सघन श्रद्धा उसके जन्म दिन पर उभरेगी ही। वे उसके प्रकटीकरण के लिए कुछ किये बिना चैन से रह भी न सकेंगे। उभरता हुआ उत्साह उनसे कुछ कराये बिना रह ही नहीं सकेगा।

हर वर्ष बसन्त पर्व के अवसर पर प्रातः सामूहिक जप, हवन, रात्रि को प्रवचन, दीपदान का सामान्य आयोजन हर जगह छोटे-बड़े रूप में होता रहा है। वह प्रतीक पूजा उचित भी है और आवश्यक भी। सबसे बड़ी बात यह है कि बसंती उमंगें हम सब के अन्तः करण में उमगे और जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रेरणा देने वाले ऐसे संकल्प लें, ऐसा व्रत धारण करें, ऐसे कदम उठाये जिसे आत्म-कल्याण और लोग-मंगल के दोनों उद्देश्य पूरे होने की सम्भावना बढ़ चलें। इस बार यह संकल्प इस रूप में होना चाहिए कि आत्मोत्कर्ष के मूलभूत आधारों का अवलम्बन परिपूर्ण निष्ठा के साथ होता रहेगा और उसमें आलस्य, प्रमाद बरतने का अवसर न आने दिया जाएगा । साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा के चारों चरणों में से किसी को भी छोड़ा जा सके और एक भी ऐसा नहीं है जिस अकेले के बल पर आत्मोत्कर्ष का उद्देश्य पूरा हो सके। इस सन्दर्भ में अखण्ड-ज्योति के पृष्ठो पर चिरकाल से विभिन्न रूपों में कहा जाता रहा है।

इस बसन्त पर्व से हममें से प्रत्येक को सामान्य जीवनक्रम के साथ असामान्य उत्कृष्टता का समावेश जितना सम्भव हो सके उतना करने का प्रयत्न करना चाहिए। दिनचर्या में अर्थोपार्जन के समतुल्य ही आत्मोत्कर्ष को स्थान मिलना चाहिए। जिस प्रकार जीवित रहने के लिए आहार, निद्रा, श्रम, मल त्याग की कृषि के लिए भूमि ,बीज, खाद, पानी रखवाली की-इमारत बनाने के लिए ईंट, चूना, लोहा, लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार आत्मोत्कर्ष के लिए साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चारों चरणों को समान महत्व मिलना चाहिए। इन चारों के लिए जिससे जितना बन पड़े उसे उतना प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए। हममें से एक भी ऐसा न रहे जो आत्मिक प्रगति को कम महत्व दे और उसके लिए इन ठोस आधारों की अपेक्षा करता रहे। स्मरण रखने योग्य बात यह है कि मात्र मन्त्र जपने भर से आत्मिक प्रगति का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए आत्मशोधन और आत्म-परिष्कार के लिए तत्पर होना होगा। इसी प्रयोजन की पूर्ति उपरोक्त चार आधार अपनाने पर सही रूप से बन पड़ती है यदि यह बसन्त पर्व परिजनों में आत्मिक प्रगति की उत्कण्ठा उत्पन्न कर सके और उस मार्ग पर चलने के लिए इन आधारों को जीवनचर्या में समाविष्ट करने की प्रेरणा दे सके तो समझना चाहिए कि इस बार को बसंती पर्व साक्षात् सरस्वती की तरह अपने अन्तःकरणों में अवतरित हो गई। इसी के लिए हमने इस बार सर्व शक्तिमान सत्ता से प्रार्थना की है, परिजनों से इसी दिशा में कदम बढ़ाने का अनुरोध किया है और हर साल पूरा मन इसी कार्य में लगाने का निश्चय किया है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक परिजन को किसी न किसी रूप में साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चतुर्विध प्रयोजनों में संलग्न करने के लिए भरपूर प्रयत्न करेंगे और आशा रखेंगे कि इन सिद्धान्तों को-गतिविधियों को अपनाने के लिए जिससे जितना बन पड़ेगा वह उसके लिए प्रयत्न करेगा। जो अब तक इस दिशा में प्रयास नहीं कर सके हैं वे शुभारम्भ करेंगे और जो कुछ करते रहे है वे इसमें अभिवृद्धि का साहस जुटाएँगे। सर्वथा विरत अपने परिवार का एक भी व्यक्ति न रहने पावे। इस वर्ष का यही बसंती लक्ष्य हम लोगों के सामने रहना चाहिए और बसन्त पर्व के दिन इसी के संकल्प सामूहिक रूप से किये जाने चाहिए। इस वर्ष बसन्त पर्व 12 फरवरी रविवार का है। इसके लिए लगभग दो महीने शेष रहते हैं। यह अवधि इसी तैयारी में लगनी चाहिए कि उस दिन उत्साहपूर्ण वातावरण उत्पन्न करने वाला समारोह सम्पन्न हो सके और उसमें उपस्थित परिजनों में आत्मोत्कर्ष के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक इन चार आधारों को अपनाने के लिए कुछ ठोस कार्यक्रम बनाने के लिए संकल्प लेने पर सहमत किया जाय। यह सब कैसे किया जा सकता है इसके लिए फरवरी की पूरी अखण्ड-ज्योति को ही मार्गदर्शिका के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस अखण्ड-ज्योति पत्रिका ने परिजनों को स्नेह सूत्र में बाँधा और अपरिचितों को आत्मीय बनाया है उसके प्रति भाव भरी कृतज्ञता हम सब के मन में स्वभावतः रहती ही है। आवश्यकता इस बात की भी है कि उस श्रद्धा, सद्भावना का इस रूप में प्रकटीकरण हो सके जिससे इस ‘बोधि वृक्ष’ का सिंचन भी सम्भव हो सके। संस्कृति की सीता को वापिस लाने के लिए अपना वानर परिवार जिस दिशा में चल रहा है उसकी पथ-प्रदर्शक अखण्ड-ज्योति को समझा जाय तो उसके प्रकाश को जीवन्त रखने के लिए तेल बाती का प्रबन्ध भी सोचना ही होगा। यह महान प्रयोजन हम में से प्रत्येक थोड़-थोड़े श्रमदान द्वारा सम्पन्न कर सकता है। सेतुबंधनं के समय ऐसा ही श्रमदान रीछ, वानरों ने किया भी था। उनने अपने श्रम साधन से पत्थरों के ढेर लाकर जमा किये थे। ठीक यही कार्य अखण्ड-ज्योति की सदस्य संख्या बढ़ाने से पूरा हो सकता है। लागत की दृष्टि से प्रायः हर साल की कागज, छपाई पोस्टेज का मूल्य पूरा करने में कमी रह जाती है। इसकी पूर्ति ग्राहक संख्या बढ़ने से ही पूरी हो सकती है। साथ ही मिशन की प्रेरणाओं का विस्तार भी इसी आधार पर हो सकता है कि उसके अधिक पाठक बनें। इसके लिए अपने मित्र, परिचितों पर दबाव डाला जाय तो यह उनके हित में ही होगा जिन्हें इसका सदस्य बनने के लिए समझाया, उकसाया या दबाया गया होगा। इसमें सच्ची मैत्री का निर्वाह भी है। ‘कुपथ निवारा-सुपथ चलावा’ के उद्देश्य की पूर्ति निश्चित रूप से हो सकती है यदि आग्रहपूर्वक किन्हीं स्वजन को इस प्रकाश स्तम्भ के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए सहमत किया जा सके। सच्चे मन से प्रयत्न किया जाय। दो-दो की टोलियाँ बनाकर निकल पड़ा जाय तो पुराने ग्राहकों से चन्दा वसूल करने और नयों को बढ़ाने के दोनों कार्य साथ-साथ हो सकते हैं। बसन्त पर्व पर तो इस सन्दर्भ में जिन भावनाशील परिजनों से जितना श्रम बन पड़े उसके लिए भरपूर प्रयत्न किया जाना चाहिए। अखण्ड-ज्योति के प्रति-उसके सूत्र संचालक के प्रति यह सबसे महत्वपूर्ण और आनन्ददायक श्रद्धांजलि बसन्त पर्व के अवसर पर हो सकती है।

जिनके पास पत्रिका पहुँचती है वे सभी नोट करें कि हर पत्रिका के कम से कम पाँच पाठक होने चाहिए। घर के, पड़ोस के, संपर्क के लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाय उन्हें दो-चार पुराने अंग पढ़ा कर चस्का लगाया जाय जो निश्चित रूप से फिर वे हर महीने पढ़ने के लिए स्वतः लालायित रहने लगेंगे। न्यूनतम यह कार्य तो प्रत्येक परिजन को बसन्त पर्व पर करना ही चाहिए। यह न्यूनतम सुझाव है। वस्तुतः यह महान पर्व भगवती सरस्वती का जन्म दिन है, साथ ही नवयुग अवतरण की ईश्वरीय इच्छा का उद्घोषक दिन भी। इस पुण्य पर्व पर अन्तरात्मा से परामर्श करना चाहिए यदि वहाँ ईश्वर बोलता हो तो उसके संकेतों पर कुछ ऐसा करने का साहस जुटाना चाहिए जिससे अपना जीवन धन्य बन सके और युग की पुकार पूरी करने में चिरस्मरणीय योगदान मिल सके।


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