आनन्द अपनी ही मुट्ठी में भरा पड़ा है।

December 1977

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भगवान बुद्ध से एक बार श्रेष्ठी सुमन्तक ने पूछा- भन्ते अक्षय आनन्द की प्रगति का क्या उपाय है?” इस पर तथागत ने उत्तर दिया- इच्छाओं का त्याग करना।” प्रसंग को अधिक स्पष्ट कराने के लिये जिज्ञासु ने पूछा- बिना इच्छा के कोई कर्म तक नहीं हो सकता फिर इच्छा न रहने से तो निष्क्रियता छा जायेगी और निर्वाह तक कठिन हो जायेगा।

भगवान् ने विस्तार से बताया कि इच्छा त्याग से तात्पर्य बुद्धि एवं कर्म का परित्याग नहीं, वरन् व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं को छोड़ कर आदर्शों के लिये काम करना है। शरीर रक्षा, परिवार पोषण एवं सामाजिक सुख-शान्ति का ऊँचा उद्देश्य रखकर जो काम किये जायेंगे उनमें स्वार्थान्धता नहीं रहेगी न उनके लिये दुष्कर्म करने पड़ेंगे। सामर्थ्य भर प्रयत्न करने पर जितनी सफलता मिलेगी उसमें संतोष रखते हुए आगे का प्रयास जारी रखा जाय, यही है इच्छाओं का त्याग। जिनमें किन्हीं आदर्शों का समावेश नहीं होता-लोभ और मोह की पूर्ति ही जिनका आधार होता है वे ही हेय और त्याज्य मानी गई हैं।

ईमानदारी के साथ उद्देश्य लेकर मनोयोगपूर्वक श्रम किया जाय यह कर्तव्य है। कर्तव्य कर्म करने के उपरान्त जो प्रतिफल सामने आये उससे प्रसन्न रहने का नाम सन्तोष है। सन्तोष का यह अर्थ नहीं है कि जो है उसी को प्राप्त मान लिया जाय, अधिक प्रगति एवं सफलता के लिए प्रयास ही ना किया जाय। ऐसा सन्तोष तो-अकर्मण्यता का- पर्यायवाचक हो जायेगा। इससे तो व्यक्ति की दरिद्रता बढ़ेगी। संतोष भरे उपार्जन में से व्यक्ति की प्रतिभा निखरती है और समाज की समृद्धि बढ़ती है।

दार्शनिक जैरोल्ड की परिभाषा के अनुसार सन्तोष, निर्धनों का निजी बैंक है, जिसमें पर्याप्त धन भरा रहता है। जार्ज इलियट का मत भी इसी से मिलता-जुलता है, वे कहते थे ‘असंतोषी कभी अमीर नहीं हो सकता और संतोषी के पास दरिद्रता फटक नहीं सकती।’ उदार और दूरदर्शी मस्तिष्कों में संतोष का वैभव प्रचुर मात्रा में भरा रहता है। आनन्द की तलाश करने वालों को उसकी उपलब्धि संतोष के अतिरिक्त और किसी वस्तु या परिस्थिति में हो ही नहीं सकती। सुकरात ने एक बार अपने शिष्यों से कहा था-संतोष ईश्वर प्रदत्त सम्पदा है और तृष्णा अज्ञान के असुर द्वारा थोपी गई निर्धनता।’

परिणाम को आनन्द का केन्द्र न मानकर यदि काम को उत्कृष्टता की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाय और उसका स्तर ऊँचा रखने में प्रयत्न किया जाये तो सदा उत्साह बना रहेगा और साथ ही आनन्द भी। कलाकार ब्राडनिंग कहते थे-हम किसी काम को छोटा न मानें वरन् जो भी काम हाथ में है उसे इतने मनोयोग के साथ पूरा करें कि उसमें कर्ता का व्यक्तित्व बोलने लगे। ऐसे कार्य अपने कर्ता के लिये श्रेय और सम्मान का कारण बनते हैं भले ही वे अधिक महत्त्वपूर्ण न हों।’ मनस्वी रस्किन की उक्ति है- काम के साथ अपने को तब तक रगड़ा जाय जब तक कि वह संतोष की सुगन्ध न बिखेरने लगे।’ वाल्टेयर ने लिखा है किसी काम का मूल्याँकन उसकी बाजारू कीमत के साथ नहीं, वरन् इस आधार पर किया जाना चाहिये कि उसके पीछे कर्ता का क्या दृष्टिकोण और कितना मनोयोग जुड़ा रहा है। अब्राहम लिंकन का यह कथन कितना तथ्य पूर्ण है जिसमें उन्होंने कहा था-हम जिस काम में जितना रस लेते हैं और मनोयोग लगाते हैं वह उतना ही अधिक आनन्ददायक बन जाता है।

आनन्द के लिये किन्हीं वस्तुओं या परिस्थितियों को प्राप्त करना आवश्यक नहीं और न उसके लिये किन्हीं व्यक्तियों के अनुग्रह की आवश्यकता है। वह अपनी भीतरी उपज है। परिणाम में संतोष और कार्य में उत्कृष्टता का समावेश करके उसे कभी भी, कहीं भी और कितने ही बड़े परिणाम में उसे पाया जा सकता है। मिलन से नई किस्म के पदार्थ बन सकते हैं, पर वे रहेंगे अन्ततः बोध रहित ही। चेतना का गुण बोध है। जिसे बोध नहीं-मात्र हलचल करता है- उसे चेतन की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धियाँ चेतन मस्तिष्क के प्रयास का प्रतिफल है। यदि ऐसा न होता तो प्रकृति की विद्युत शक्ति बहुत पहले ही अपने अस्तित्व का परिचय देने लगी होती और आज जो काम कर रही ही है वह उससे भी पहले ही करने लगी होती। पदार्थ में पाई जाने वाली एनर्जी हलचल भर कर सकती है। चेतना का मौलिक गुण है आत्म बोध। रेडियम आदि में शक्तिशाली एनर्जी पाई जाती है, पर वह आत्म-बोध के आधार पर संभव हो सकने वाली विचारणा और आकांक्षा से सर्वथा रहित है। किसी विचारशील के इशारे पर अपनी क्रियाशक्ति का प्रभाव भर देख सकती है। एनर्जी और चेतना दोनों एक वस्तु नहीं है जैसा कि विज्ञान पक्ष द्वारा प्रतिपादन किया जाता है।

न तो चेतना जड़ है और न जड़ में चेतना का अस्तित्व है। दोनों की अपनी-अपनी सत्ता और महत्ता है। हाँ दोनों के बीच ताल-मेल बहुत अधिक है। जड़ से चेतन को अपनी आकांक्षाएँ एवं आवश्यकतायें पूरी करने का अवसर मिलता है। चेतन से जड़ की उपयोगिता को उभारने और सुव्यवस्थित रूप से प्रयुक्त करके उसकी सार्थकता सिद्ध की जाती है। लोक व्यवहार में यही क्रम चलता है। सृष्टि निर्माण का आधार भी यही समझा जाना चाहिये।

विज्ञान की मान्यता यह है कि जो जाना गया वह जड़ है। उसका यह आग्रह नहीं है कि जो मान लिया गया उससे आगे और कुछ जानने के लिये नहीं है। जिज्ञासा का द्वार खुला रखने और भावी शोध से नये निष्कर्ष निकालने की आशा बनाये रहने के कारण विज्ञान को नास्तिक नहीं कहा जा सकता। वह आज ईश्वर को उस रूप में नहीं मानता जिसमें कि आस्तिक मानते हैं तो भी ऐसी सम्भावनाओं को स्वीकार करने के लिये मस्तिष्क खुला रखना होगा।

‘ईश’ का अर्थ है- अनुशासन इस सृष्टि के कण-कण में एक अनुशासन संव्याप्त है। मनुष्य अपने शरीर और मस्तिष्क को जितने अंश में अनुशासित रख सकता है वह उतने अंश में अपने आप का ईश्वर है। इस संसार में अनुशासनहीन कुछ भी नहीं है। आकाशस्थ, ग्रह नक्षत्र एक अनुशासन में बंधे हैं। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की सुव्यवस्था सर्वत्र देखी जा सकती है। प्राणी और पदार्थ एक दूसरे के पूरक बनकर रह रहे हैं। प्रजनन और काम कौतुक में प्रत्येक वर्ग की वंश वृद्धि का कैसा अद्भुत समन्वय है, जिसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। परमाणु समूह का अपने क्रिया-कलाप में बिना दूसरों से टकराये संलग्न रहना कितना विधिवत् और कितना व्यवस्थित है। शरीर की कोशिकाएँ अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय देती हैं और सघन सहयोग के सहारे शरीर की गतिविधियों का सुसंचालन करती है। किसी भी क्षेत्र में-किसी भी दिशा में-दृष्टि पसार कर देखा जाय सर्वत्र अनुशासन संव्याप्त है। बाढ़, भूकम्प, आँधी, तूफान जैसी दुर्घटनायें भी अनायास नहीं होती उनके मूल में भी कोई सिद्धान्त काम करते हैं और उन्हीं के आधार पर वे घटनायें घटित होती हैं, जिन्हें यदा-कदा होने के कारण हम आकस्मिक अप्रत्याशित समझते और आश्चर्य करते हैं। इस अनुशासन को भी ईश्वर नाम दिया जा सकता है।

लहरों का पृथक् अस्तित्व देखने पर भी वे वस्तुतः समुद्र की विशाल जल राशि की ही छोटी-छोटी इकाइयाँ होती है। किरणों का समन्वय ही सूर्य है। व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं। सृष्टि के सबसे छोटे घटक अण्ड या अणु कहलाते हैं इन्हीं का विशाल समुदाय ब्रह्माण्ड है। आत्माओं की सामूहिक चेतना परमात्मा है। हम हवा के विशाल समुद्र में उसी प्रकार साँस लेते और जीते हैं जिस प्रकार मछलियाँ किसी जलाशय में अपना निर्वाह करती है। प्राणियों की समग्र सत्ता ब्रह्म है। अणुओं का समुदाय ब्रह्माण्ड। प्राणी और पदार्थों की सत्ता दीखती तो स्वतंत्र हैं, पर वस्तुतः वह एक ही विशाल महाप्राण के अनन्त संसार से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। उसमें उगते, बढ़ते और बदलते रहते हैं। इस महाप्राण को-महान् अनुशासन को ईश्वर कहा जा सकता है।

न तो पैर को पैर देख पाते हैं और न हाथ को हाथ। आँखों की ज्योति ही दोनों को देख सकने में समर्थ होती है। आँखें स्वयं ही इस ज्योति से प्रकाशवान होती है तो भी वे अपने आलोक को देख सकने में समर्थ नहीं होती। हाथ के लिये आँखें की ज्योति का देख सकना तो और भी कठिन है। जड़ पदार्थों से बने इन्द्रिय समूह से-यंत्र उपकरणों से उस परम चेतन ज्योति को कैसे देखा जाय? यह संभव न होने से ही यदि ईश्वर की सत्ता मानने से इनकार किया जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा यदि सूक्ष्म और स्थूल की अनुभूति के लिये प्रत्यक्ष के साक्षी न बनने की बात स्वीकार कर ली जाय तो ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति पग-पग पर हो सकती है। जड़ से जड़ की नाप तौल हो सकती है। चेतन-चेतन की अनुभूति पा सकता है। परिष्कृत, परिशोधित आत्मा के लिये यह तनिक भी कठिन नहीं है कि वह अपने अन्तराल में विद्यमान् ऐसी सत्ता का अनुभव करे जो उसे निरन्तर ऊँचा उठने और आगे बढ़ाने का आह्वान करती है।

पास्कल कहते थे कि -जो हमारी पकड़ में नहीं आया, उसके संबन्ध में यह सोचना गलत है कि उसका अस्तित्व है ही नहीं। अब से कुछ शताब्दियों पहले बिजली, रेडियो आदि की कहीं चर्चा तक नहीं थी। भूतकाल में भी कभी उनकी उपस्थिति देखी नहीं गई थी। इन शक्तियों की कल्पना जब किन्हीं मस्तिष्कों में उदय हुई तब भी कोई ऐसे प्रमाण नहीं थे जिनसे उनकी उपस्थिति निश्चित रूप से सिद्ध की जा सके। फिर भी इनके अस्तित्व की संभावना स्वीकार की गई और खोजें चल पड़ी। विभिन्न आविष्कार इसी प्रकार प्रकट हुए हैं।

ईश्वर के अस्तित्व से मात्र इस आधार पर इनकार करना अयोग्य है कि वह इंद्रियों और यंत्रों की पकड़ में नहीं आता। ईश्वर तो चेतन है। जड़ जगत की भी अभी अनेकों शक्तियाँ पर्दे के पीछे से झाँकती हैं और अपने आभास का संकेत करती है। ‘शोधकर्ता इन्हीं सम्भावनाओं पर आस्था रख कर इतना श्रम, समय और धन खर्च कर रहें है। यदि यह मानकर चला जाय कि जितना प्रत्यक्ष होगा उन्हीं की संभावना स्वीकार की जायेगी तब तो विज्ञान की प्रगति का सारा आधार ही समाप्त हो जायेगा। तब उपलब्धियों का प्रयोग भर होता रहेगा। इन शोधों के लिये चेष्टा करना तो दूर उनकी कल्पना तक उपहासास्पद बन जायेगी।

आदर्शों के प्रति आस्था’ यही है ‘मानवी गरिमा का प्राण।’ यदि इसे हटा दिया जाय तो अपनी शारीरिक दुर्बलताओं, मानसिक विकृतियों और कुसंस्कारी दुष्टता के कारण वह किसी के लिये भी उपयोगी न रह जायेगा। यहाँ तक कि अपने आप के लिये भी अभिशाप सिद्ध होगा। तब इस संसार में न संस्कृति शेष रहेगी और न सभ्यता के कहीं दर्शन होंगे। जिसकी लाठी उसकी भैंस का मत्स्य न्याय ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होगा। तब शासन, समाज, नीति, मर्यादा, व्यवस्था आदि की सुन्दर संरचना का सारा महल ढह जायेगा और या तो आदिम काल के बनमानुष युग में लौट चलना पड़ेगा, अथवा प्रलय तुल्य किसी महायुद्ध से संचित सभ्यता और प्रगति का पूरी तरह अन्त करना पड़ेगा।

शरीर के लिये जितनी आवश्यक ‘आक्सीजन’ है, उससे भी अधिक चेतना के लिये आदर्शवादी आस्था। उन्हीं के सहारे नर-पशु को मानवता का वरदान मिला है। यह छिन गया तो उसकी विशेषता कुछ रह ही नहीं जायेगी। तब जीवन में सुन्दरता, सरसता और उत्कृष्टता के वे तत्त्व भी रह नहीं जायेगी जिनके कारण प्रगति के पथ पर चलते हुए हम आज यहाँ पहुँचे हैं।

ईश्वर क्या है, इस तत्त्वज्ञान की विवेचना के अनेकों पक्ष हैं। यदि उनमें से इस तथ्य को ही स्वीकार कर लिया जाय कि ईश्वर उच्च आस्थाओं का समुच्चय है, तो इतने से भी काम चल जायेगा। किसी राष्ट्रीयता का प्रतीक उसकी ध्वज एवं प्रतीक मान लिया जाये तो भी आस्तिकता का मूल प्रयोजन पूरा हो सकता है। जूनियर हक्सले और एलिस्टर हार्डी ठीक ही कहते थे कि जीवन सुखद साधनों को कितना ही महत्त्व क्यों न दिया जाय सबसे ऊपर की बात उन संस्थाओं का संरक्षण है जिनसे मनुष्यता को सामाजिकता का उपहार देकर समान प्रगति का पथ प्रशस्त किया है।


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