अन्तरिक्ष की अनन्त गहराइयों में झाँकता मानवीय प्रतिबिम्ब

December 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कोई 50 वर्ष पूर्व की बात है- विश्वविख्यात नक्षत्र विद् डा. हबल अपने दूर-दर्शी स्पेक्ट्रोमीटर पर सुदूर नक्षत्रों से आने वाले प्रकाश के वर्णक्रम का अध्ययन करते थे। सूर्य का श्वेत प्रकाश सात रंगों के मेल से बना है। स्पेक्ट्रोमीटर एक ऐसा यन्त्र है जिसमें एक त्रिपार्श्व काँच लगा रहता है जब प्रकाश की एक किरण को उसमें कुदाया जाता है तो इस काँच के गुण के अनुसार वह अपने सातों रंगों में फूट पड़ता है। इन रंगों के वर्णक्रम से प्रकाश की स्थिति अन्तरंग खनिज स्रोतों की जानकारी भी की जाती है। पर यहाँ जो प्रयोग चल रहा था उसका प्रयोजन एक आकाश गंगा की दूरी की जाँच करना था जो उस समय ब्रह्माण्ड की सीमा पर प्रतीत हो रही थी।

जाँच के समय एक बिलकुल ही नया तथ्य प्रकाश में आया। वर्णक्रम का लाल रंग निरन्तर सरकता और क्षीण होता प्रतीत हो रहा था, जिसका अर्थ था कि आकाश गंगा परे हट रही है। उससे आने वाला अनहद नाद भी क्रमशः मन्द पड़ता जा रहा था, उससे भी उपरोक्त तथ्य की ही पुष्टि हो रही थी। इस परिवर्तन को “डाप्लर प्रभाव” की संज्ञा दी गई और एक नये दर्शन ने जन्म लिया कि ब्रह्माण्ड निरन्तर बढ़ रहा है। यह चौंका देने वाली जानकारी थी, जिसने वैज्ञानिकों के सामने विचार के लिये सैकड़ों प्रश्न खड़े किये, अस्तित्व का उद्गम क्या है, क्या बह बुदबुदों की तरह से मात्र है, अथवा उसमें जीवन अमरता के भी कोई द्रव्य विद्यमान हैं।

अभी कुछ दिन पूर्व एक अन्य वैज्ञानिक डा फ्रेडहायल भारतवर्ष आये थे, विज्ञान भवन में उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था-अन्तरिक्ष की गहराइयाँ जितना अनन्त की ओर बढ़ेगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी हमारा अपना भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट प्रजनन, तृष्णा अहंता तक ही सीमित रहता है तब तो हमें पड़ोसी भी नहीं जान सकेंगे, पर यदि इन सब से पूर्वाग्रह युक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली और अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता और अनुभव किया जा सकता है।

ब्रह्माण्ड के निरन्तर विकास का अर्थ यह हुआ कि सृष्टि में जो कुछ भी है चाहे वह पदार्थ हो, ऊर्जा हो, चुम्बकत्व हो, प्रकाश हो, अथवा विचार सत्ता जो भी स्थूल या सूक्ष्म अस्तित्व में है वह सब एक ही केन्द्र बिन्दु पर समाहित था। इस सन्दर्भ में भारतीय दर्शन और वैज्ञानिक दोनों की धारणायें एक जैसी हैं। प्रारम्भ में एक महापिण्ड था। यह विज्ञान की मान्यता है कि उस महापिण्ड में किसी समय एकाएक विस्फोट हुआ। विस्फोट से समस्त दिशाओं में आकाश गंगाओं के रूप में पदार्थ बह निकला, अब तक की शोधों के अनुसार ब्रह्माण्ड में 19 आकाश गंगाएँ हैं और आकाश गंगा में 10 अरब तारे हैं। एक आकाश गंगा की परिधि या व्यास लगभग एक लाख प्रकाश वर्ष अर्थात् 300000 ग 60 ग 60 ग 24 ग 365 1।4 प्रकाश की गति ग 1 मिनट में ग 1 घन्टे में ग 1 दिन में ग 1 वर्ष = 1 से में कि0 मी0 852560000000 किलोमीटर दूरी 1 प्रकाश वर्ष की हुई, इससे 1 लाख गुना बड़ा व्यास अपनी आकाश गंगा का है जब कि उसके परिवार के दूर-दूर तक छिटके तारों की दूरी भी अरबों प्रकाश वर्ष में है अतएव इस भयंकरतम विस्तार का तो कुछ पता ही नहीं चलता।

सूर्य और पृथ्वी की दूरी सवा नौ करोड़ मील है। वहाँ से यहाँ तक प्रकाश आने में सवा 8 मिनट लगते हैं। यदि किसी तारे का प्रकाश पृथ्वी तक 8 हजार वर्षों में आता है उसका अर्थ यह हुआ कि वह पृथ्वी से 47 पद्म मील की दूरी पर है। लेकिन इन से कुछ तारे तो इतनी दूर हैं कि उनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में ही अरबों वर्ष लग जायेंगे अर्थात् उस दूरी का तो अनुमान ही असम्भव है। इस तरह सृष्टि की अनन्त गहराई में अनन्त प्रकृति अनेक रूपों में विद्यमान हैं।

भारतीय दर्शन की मान्यता चेतन को मूल मानकर ज्यों की त्यों है। प्रारम्भ में एक ही तत्व परमात्मा पिण्ड रूप में था। उसके नाभि देश से 'एकोऽहं बहुस्याम्’ मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँ इस तरह की स्फुरणा, भावना या विचार उठा इससे वह फट पड़ा और महा प्रकृति की रचना हुई। उसमें सत् रज, तम तीन गुणों का सम्मिलन था, इन्हीं से सृष्टि में जीवन का निमार्ण हुआ। सृष्टि के विस्तार की तरह ही 84 लाख जीव योनियों का निरन्तर विस्तार होता चला गया। जिस तरह ब्रह्माण्ड विकसित हो रहा है नाना प्रकार की जीवन सृष्टि का भी विकास होता जा रहा है यह सब अत्यधिक करुणाजनक, स्नेहजनक मातृसंज्ञक रूप से चल रहा है। भौतिक या आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से आकाश गंगाएँ माता का हृदय कही जा सकती है। इन से एक ओर भौतिक जगत को आवश्यक जीवन और प्रकाश मिलता है तो दूसरी ओर जीवन सत्ता उसी से प्राण और पोषण पाती है। ब्रह्माण्ड के समान हमारी सामाजिक व्यवस्थाएँ भी मातृसत्ता प्रधान बनी रहें तो इन महापिण्डों की सुचारु व्यवस्था शान्ति और सामूहिकता के आधार पर अपने सामाजिक जीवन में भी निस्वार्थ प्रेम, परोपकार, दया, करुणा, उदारता और सहकारिता का समावेश तथा फलस्वरूप स्वास्थ्य सुख-शान्ति समृद्धि और सुव्यवस्था प्रतिष्ठित बनी रह सकती है।

चेतना कहीं भी प्रकृति से भिन्न नहीं है। किसी न किसी अवस्था में दोनों अन्योऽन्याश्रित हैं, “गिरा अरथ जल भीचि सम कहियत-भिन्न वाली स्थिति है। यदि दोनों में से कोई इस सन्तुलन को बिगाड़ने का प्रयास करते हैं वहीं संकट पैदा हो जाता है। महापिण्ड या परमात्मा ने अपनी शक्ति स्वरूपा सहचरी आकाश गंगाओं को विपुल शक्ति देकर व्यवस्था के लिए भेज दिया। मन्दाकिनियाँ उस अनुदान को हर मण्डल के एक-एक मुखिया सूर्य उन आद्य शक्ति से अपनी माँ से पोषण और बल लेकर अपने समस्त और मण्डल को जीवित और जागृत रखते हैं। सब को शक्ति, प्रकाश, गर्मी, वायु, जल, वर्षा, प्रकृति अन्न आदि देते हैं। इन सब का प्रयोजन चेतना को -इच्छा शक्ति को जीवित रखना ही तो हो सकता है। यदि परिवार संस्थाएँ प्रेम सद्भावना और सहकारिता के इस चुम्बकत्व को स्वयं भी धारण कर लें, विशाल और परिवार की तरह करोड़ों जीवों का समुदाय एकत्र हो जाने पर भी सभी आनन्द और उल्लास का जीवन जीते रह सकते हैं।

अनेक ग्रह नक्षत्रों का परिवार, जिन्हें अनुशासित, मर्यादित, पोषित और संरक्षित रखने का काम निरन्तर तप कर सूर्य भगवान् करते हैं, सौर परिवार या सौर मण्डल कहलाता है। सूर्य उन सब का मुखिया है देखने में वह आग का गोला लगते हैं, पर उनमें सोडियम, लोहा, मैग्नेशियम, कैल्शियम आदि सब कुछ है। 1859 में डा मेघनाद साहा ने अपनी खोजों से यह सिद्ध किया था कि सूर्य के प्लाज्मा में दृश्य जगत का हर तत्व विद्यमान है। लोगों को सूक्ष्म अस्तित्व में भी आत्मिक आनन्द की सभी सामग्री बताई जाती है तो लोग विश्वास नहीं करते। उनकी स्थूल दृष्टि में दृश्य जगत और स्थूल पदार्थ ही प्रसन्नता के मूल हैं, पर हमारी अनुभूतियाँ जितनी सूक्ष्म और विशाल होती जाती हैं रस और आनन्द के तत्व भी उसी अनुपात में असीम तृप्ति वाले बनते चले जाते हैं।

सूर्य ने कभी शक्तियों पर एकाधिकार परिग्रह नहीं किया। वह अपनी शक्तियाँ निरन्तर बाँटते रहते हैं। इससे वे रिक्त नहीं हुये वरन् परमात्मा का मातृ हृदय यथावत बनाये रखें हैं। जब मनुष्य समाज ने संग्रह का पाप लाद कर कितनी अव्यवस्थाएँ बढ़ा दी हैं, यह हर कोई भली प्रकार अनुभव करता है।

सूर्य की तरह हर तारे का अपना भी एक परिवार होता है उसके अपने चन्द्रमा होते हैं, उसका अपना वातावरण होता है उसी के अनुरूप वह शक्ति का आवश्यक अंश ग्रहण करता रहता है। मनुष्य समाज विभिन्न इकाइयों वर्गों में बँटा रह कर भी यदि नियम व्यवस्था का पालन करते रहें तो वह इस विशाल परिवार की तरह ही जीवन्त और गतिशील, समृद्ध और व्यवस्थित बने रह सकते हैं। उन्हें अपने को एकाकी और अधिकतम अधिकार, स्वेच्छाचारिता की प्रवंचना नहीं बरतनी चाहिए अन्यथा इकारस जैसे उन क्षुद्र ग्रहों की तरह जो मान मर्यादायें तोड़ कर स्वच्छन्द निकल पड़ते हैं न केवल दूसरों को डराते भयभीत करते रहते हैं अपितु स्वयं भी लड़-लड़कर टूटते (उल्कापात इन्हीं क्षुद्र ग्रहों का होता है) रहते हैं। आकाश में जाने वाले उपग्रहों को इनसे बचाने की खास सावधानी करनी पड़ती है। जेलें, पुलिस और दण्ड विधान ऐसे ही स्वेच्छाचारियों के लिये है, जिन्हें सामाजिक और पारिवारिक मान-मर्यादायें प्रिय नहीं होती।

परम ब्रह्माण्ड से लेकर मन्दाकिनी परिवारों के विराट् जगत् और तारा-मण्डल से लेकर प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु तक में सर्वत्र नियम, क्रम व्यवस्था और अनुशासन है। यह तत्व शान्ति और प्रगति के मूल आधार हैं उनकी उपेक्षा कहीं भी उचित और सह्य नहीं। ब्रह्माण्ड का यह विधान समान रूप से मनुष्य जीवन भर भी लागू है।

तारों को एक ताप-नाभिकीय भट्ठियों की संज्ञा दी जा सकती है। इस उच्च ताप में ही तत्वों का निर्माण होता रहता है किन्तु कहीं भी विखण्डन की स्थिति नहीं आती अन्यथा महाविस्फोट हो जाये और किसी भी एक तारे की मर्यादा भंग से सारी सृष्टि का सर्वनाश हो सकता है। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से जिन्हें बड़े उत्तरदायित्व-जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं उन्हें असीमित अधिकार देने की परम्परा प्रकृति में भी है। मनुष्य समाज में भी प्रकृति अपना सन्तुलन निरन्तर बनाये हुए है इसी से संसार में सुव्यवस्था कायम है, जब कि मनुष्य इन अधिकारों का हनन करके अपने लिये देश, समाज, संस्कृति सभी के लिए संकट पैदा करता रहता है। शेक्सपियर ने सम्भवतः इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए जूलियस सीजर में लिखा है- दोष अपने तारों में नहीं स्वयं मनुष्य में है”

ब्रह्माण्ड की गति और विस्तार का क्रम सर्वत्र एक सा है। हर ग्रह नक्षत्र अपनी धुरी पर घूमता है। पृथ्वी 24 घण्टे में अपनी एक परिक्रमा पूरी करती हैं जब कि चन्द्रमा 336 घण्टे में। अर्थात् वहाँ के दिन और रात में हमारी पृथ्वी के दिन व रात से 14 गुने बड़े दिन और 14 गुनी बड़ी रात। बुध की परिस्थितियाँ भिन्न हैं अर्थात् उसका एक भाग निरन्तर सूर्य की ही और बना रहता है दूसरी ओर अन्धकार में पर अपने आप में गतिशील वह भी है। हम समझते हैं सूर्य स्थिर है, पर ऐसा नहीं वह भी 1 सेकेण्ड में 13 मील की गति से घूमता है। मन्दाकिनियाँ भी अपने सौर परिवारों को लेकर किसी विराट् परिक्रमा में संलग्न हैं। अपनी “स्पाइरल” आकाश गंगा की स्वयं की गति 200 मील प्रति सेकेण्ड है। इसी तरह ब्रह्माण्ड 150 मील प्रति सेकेण्ड की गति से विकसित हो रहा है। यह गति हर जगह हैं। इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी एक आचार संहिता ऐसी निर्धारित करनी चाहिए जिससे समाज में गतिशीलता तो रहे पर किसी की सीमा किसी के अधिकारों का अतिक्रमण न हो। हर ग्रह अपने मुखिया की परिक्रमा में लगा है। हर चन्द्रमा अपने ग्रह का, ग्रह सौर परिवार का, सौर मण्डल मन्दाकिनियों की परिक्रमा करते और मनुष्य को अपने देश, जाति, समाज के प्रति कर्तव्यनिष्ठ बने रहने की प्रेरणा देते रहते हैं।

सृष्टि निरन्तर विकसित हो रही है, ब्रह्माण्ड फैल रहा है, कहने को तो हम सबके साथ भी ऐसा ही हो रहा, वह सकते हैं, पर यह फैलाव भौतिक दिशा में ही हो रहा है। जिस तरह प्रकृति विरल होते हुये निरन्तर विकसित हो रही है अपनी भावनाओं से, तात्त्विक दृष्टि से अपनी आत्मा का भी विस्तार आवश्यक है। मनुष्य जीवन की सम्भावनाएँ अनन्त और अपार हैं। ठीक ब्रह्माण्ड की तरह यदि प्रकृति के प्रत्येक प्रस्ताव को हम अपने जीवन में धारण कर सकें तो हमारा जीवन ब्रह्माण्ड जैसा ही विराट् हो सकता है। अनन्त अन्तरिक्ष एक दर्पण है हमें उसमें अपना प्रतिबिम्ब निरन्तर देखते रहना चाहिए, ताकि शरीर पर लगे दाग धब्बे छुड़ायें जाते रह सकें। अपना शरीर मन अपनी भावनायें पवित्र की जाती रहें, जिससे हम भी ब्रह्माण्ड जैसा ही महान् सुन्दर और सुखी बन सकें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118