मनुष्य ही क्या प्रकृति की प्रत्येक रचना परिपूर्ण है।

December 1977

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प्रकृति ने प्रत्येक जीव को उसकी दुनिया के हिसाब से परिपूर्ण बनाया है। उसे देखकर मनुष्य यह विश्वास करने को विवश होता है कि हर चेतना का निर्माण किसी उच्च चेतना के गहन चिन्तन-मनन के बाद होता है। लीमर जीव जब अपने शरीर की सफाई करता है तो उसके बहुत से बाल दाँतों में फँस जाते हैं। उस बेचारे को जिन्दगी भर इस परेशानी का सामना करना पड़ता यदि रचयिता ने उसकी जीभ के नीचे एक दूसरी छोटी कंघीनुमा जीभ नहीं लगाई होती। इसकी सहायता से वह फँसे हुए वालों को निकाल लेता है। यदि इस सहायक जीभ को नहीं लगाया गया होता तो बेचारे का मुँह न जाने कब का सड़ जाता।

माना कि मनुष्य की रचना परमात्मा की पूर्ण विकसित कला है, किन्तु यदि साँसारिक जीवन की सुख सुविधाएँ ही अभीष्ट हैं तो उस दृष्टि से अन्य जीवों को भी छोटा नहीं कहा जा सकता। घोंघे को अपना आहार खुरच कर खाना होता है इसलिए उसकी जीभ में प्रकृति ने दाँत लगाये हैं, इन दाँतों की संख्या 12 सौ से 15000 तक होती है।

अनातीदी जाति के पक्षियों में प्रकृति ने उनके पंखों के नीचे कुछ ऐसी ग्रन्थियाँ बनाई है जिनसे तेल निकलता रहता है। उसके कारण ही उनके पंखों का विकास होता है तथा वे चिकने और स्वस्थ बने रहते हैं। एक प्रयोग में एक बतख की तेल उत्पादक ग्रन्थि को आपरेशन करके निकाल दिया गया तो उसके पंख कुछ ही दिनों में झड़ गये। इसका यह अर्थ हुआ कि प्रकृति स्थानीय परिस्थितियों में प्रत्येक जीव के अनुरूप संरचना का ध्यान पहले से पहन रखती है इस दृष्टि से मनुष्य निर्माण पर गर्व प्रकृति या परमात्मा करे तब तो उचित भी है मनुष्य का अहंकार करना तो उसकी तुच्छता ही है। 100 फुट लम्बी व्हेल का वजन 125 टन के लगभग होता है। इसके शरीर में 35 टन चर्बी और 70 टन मांस होता है यदि उसे हाथियों से तोला जाये तो दूसरे पलड़े पर 20 से 25 हाथी तक चढ़ाने पड़ जायें। अकेले उसकी जीभ 3 टन और 2 मन वजन का दिल होता है जो 8 टन खून की नियमित सफाई में दिन-रात लगा रहता है इसके लिए उसके फेफड़े एक बार में 14000 लीटर वायु खींचते हैं। नवजात व्हेल शिशु का ही वजन 6 टन होता है और उसकी वृद्धि 1 क्विन्टल प्रतिदिन के हिसाब से होती है। कोई मनुष्य इतना बड़ा विकास स्वेच्छा से कर सकता है क्या? व्यायाम से कोई किंगकांग, दारासिंह और चन्दगीराम हो सकता है, पर व्हेल बनाना - काम परमात्मा का ही हो सकता है अतएव सर्वोपरि कलाकार के रूप में वन्दनीय वही है मनुष्य नहीं।

वीटल-कीटक की आँखों पर प्रकृति ने एक चश्मा भी चढ़ा दिया है ऊपर की आँखों से वह हवा में देखता है किन्तु जब यह पानी में चला जाता है तब नीचे की आँखों से देखने लगता है। हम समझते हैं हमारे पास ही इतनी बुद्धि है कि लेंस लगा कर आँखों की बीमारी ठीक करने हों तो इतने विशालकाय संसाधन आवश्यक होंगे कि उनके वजन से दब कर ही मनुष्य मर जाये। अपनी परिपूर्णता बाहर नहीं अन्दर खोजी जाये तब तो कोई बात है बात ही नहीं मनुष्य के भीतर जो सर्वांगपूर्ण सृष्टि भरी हुई है उसे खोजा जा सके तो मनुष्य को बाहर कुछ पाने की आकांक्षा ही न रहे।

कुछ भालुओं को ताड़ी के नशे की आदत पड़ जाती है तो उनको बार-बार ताड़ी के पेड़ों की तरफ जाना पड़ता है। ताड़ी पीकर भालू झूमने लगते हैं उनके पाँव लड़खड़ाने लगते हैं शिकारी इस स्थिति का लाभ उठाकर उसी प्रकार जा धमकते हैं जिस तरह नशेबाज मनुष्य को बीमारियाँ दबोच लेती हैं। भालू का शिकार भी इस स्थिती में अत्यन्त सुगम हो जाता है। अतएव वे इस ताक में रहते हैं कि भालू किस ताड़ में लगे। मिट्टी के बर्तन को फोड़कर वे ताड़ी पी जाते हैं। मनुष्य को भी लगता है उसी तरह बाहर खोजने का नशा हो गया है उससे सम्भव है कुछ समय की मस्ती तो हाथ लग जाये, पर शिकारी के हाथों पड़ जाने वाले भालू की तरह अन्ततः मनुष्य भी दुर्दैव का ही ग्रास बनता है। तब फिर उसकी शोभा क्या रही?

मनुष्य ने बिजली बना ली, पर अपने भीतर की बिजली को तो वह जान भी नहीं सका। व्हेल मछली का तो नाम ही “इलेक्ट्रिक व्हेल “ जिसके नाम से ही उसके विद्युत जनरेटर होने का पता चलता है। इस विद्युत शक्ति का उपयोग वह शिकार करने में करती है वह इसके एक झटके से तैरते हुए घोड़े को भी गिरा देती है।

“इलेक्ट्रिक रे” या “टारपीड़ो फिश” का विद्युत भाग पीठ पर होता है, इसमें कितनी अधिक विद्युत शक्ति होती है, इस सम्बन्ध में जेराल्ड ड्यूरेल नामक जीव-विज्ञानी का एक संस्मरण उल्लेखनीय है वे यूनान की एक घटना के हवाले से बताते हैं कि एक लड़का त्रिशूल से मछलियों का शिकार किया करता था, एक दिन उसने अपना निशाना इस मछली को बनाया किन्तु त्रिशूल ने जैसे ही मछली का स्पर्श किया इतना जबर्दस्त झटका उसे लगा कि एक भयानक आवाज के साथ वह पानी में जा गिरा। उसे इतना जबर्दस्त विद्युत- शाक लगा था कि घण्टों बाद उसे होश आया।

सात-आठ फुट लम्बा 2-3 मन का शुतुरमुर्ग संकट के समय बालू में सिर घुसेड़ लेने की मूर्खता के लिए ही विख्यात नहीं तेज दौड़ने की गति के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी दौड़ने की गति प्रायः 60 मील प्रति घण्टे की है। उसकी चोंच का प्रहार इतना तीक्ष्ण होता है कि लोहे की चादर में भी छेद हो जाता है। इसकी पाचन शक्ति भी ऐसी होती है कि कठोर से कठोर वस्तु भी खाकर पचा लेता है। लगता है यह बीमारी मनुष्य को भी है तभी तो कुछ भी इकठ्ठा करते रहने की तृष्णा उसे अहर्निश पीड़ित किये रहती है। वास्तव में यह शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुँह छिपाने की तरह की मूर्खता है जब कि मृत्यु निरन्तर पास आती रहती है उसके लिए जो पूर्व तैयारी की जा सकती थी मूर्खतापूर्ण मनुष्य उससे वंचित बना रहता है।

संरचना की दृष्टि से तो एक मक्खी भी मनुष्य से कम रहस्यपूर्ण नहीं। उसे देखकर कलाकार की कला पर आश्चर्य होता है। उसके पाँव में एक विशेष प्रकार का स्राव होता है। मक्खी जहाँ बैठी यह स्राव उस स्थान पर चिपका और उस स्थान की भोजन सामग्री को पैरों से ही चूस कर सारे शरीर में पहुँचा दिया। उसकी आँखें प्रकृति की विलक्षण रचना है। इस पर भी उसकी लगभग 80000 जातियाँ पृथ्वी पर तब से विद्यमान चली आ रही हैं जब मनुष्य भी नहीं आया था। इसके पंख अत्यधिक कुशल सन्तुलन तो बनाये रखते ही हैं वह उनसे ही इंद्रियों की बोध क्षमता का लाभ लेती है, कोई भी यांत्रिक यन्त्र ऐसा नहीं बन पाया जो जिरास्कोप का भी काम कर सके हिचकोले भी लें सके। उसके पंख सीधे मस्तिष्क के ज्ञान तंतुओं से सम्बद्ध होते हैं जिससे वह तुरन्त परिस्थिति के अनुरूप इनसे काम ले लेती है।

जीवन का नाम यदि पेट और प्रजनन ही हो तो मक्खी बनने में ज्यादा लाभ है। मादा मक्खी एक ही बार में 125 से लेकर पाँच हजार तक अण्डे देती है। मनुष्य के शरीर का विकास तो लम्बी अवधि के बाद होता है, पर मक्खी के शरीर में ऐसा न जाने क्या तन्त्र है कि यदि उसे 5 माह की भी जिन्दगी मिल जाये तो वह इसी अवधि में 500000000000 पाँच खरब बच्चे पैदा कर देगी। यही यदि एक ही जोड़ा पितामह बनने तक जीवित बच जाये तो वह इतनी सन्तान पैदा कर देगा जिससे 6 माह में ही सारी पृथ्वी में 50 फुट ऊँचा विशालतम ढेर लग जायेगा। यह तो उसकी यह क्षुद्र प्रवृत्ति ही है कि वह जितना वंश वृद्धि करती है काल उतना ही उसे चबेना बना डालता है और यह बताता रहता है कि जो भी जीव पृथ्वी का भार बढ़ाने का प्रयास करेगा उसका भी अन्त इन्हीं की तरह शत्रुओं से, अकाल मृत्यु और रोग-शोक से घिरा हुआ रहेगा उसे अन्यत्र कुछ सोचने-विचारने प्रगति करने का तो अवसर ही मिलता कहाँ है?

मक्खियाँ धरती के लिए ही नहीं हर जीव के लिए भार है। उन्हें स्थान नहीं मिलता तो कुछ हवा में ही अण्डे दे देती हैं, कुछ भेड़ों के थूथन पर अण्डे देती हैं। कुछ उड़ती हुई मधुमक्खियों की पीठ पर अण्डे देकर अपना प्रयोग तो पूरा कर लेती हैं, पर यह प्रयोग अन्ततः उसके ही वंश नाश का कारण बनते हैं। अधिक प्रजनन कम आयु का सिद्धान्त चाहे मक्खी हो या मनुष्य सर्वत्र एक-सा है। मक्खी का बच्चा 6 दिन में ही विकसित हो जाता है और 10 दिन में मर जाता है। कुछ ही मक्खियाँ ज्यादा दिन जीती हैं पर उनकी प्रजनन क्षमता उतनी ही कम होगी। इतनी वंश वृद्धि आखिर जियेगी। कनाडा की पाइन-सा मक्खियाँ प्रति वर्ष हजारों एकड़ भूमि की उपज हजम कर जाती हैं विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार मुर्गियों के विनाश का मूल कारण यह मक्खी ही है जिसके छोटे-से पंख में एक लाख से अधिक रोग कीटाणु होते हैं। संख्या का गन्दगी से अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध है, गन्दगी का बीमारी से। मनुष्य जीवन का वर्तमान लेखा-जोखा उसी का नमूना है, यदि यह क्रम न रुके तो अगले दिनों हर मनुष्य एक लाख विषाणुओं की प्रयोगशाला बन जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। आज तो मक्खी प्रति वर्ष हजारों मनुष्यों को अँधा कर देती है तब मनुष्य मनुष्य को ही जीवित खाने लग सकता है। मनुष्य स्वयं बढ़ सकता है आखिर पृथ्वी तो नहीं बढ़ सकती, साधन तो उस अनुपात का साथ नहीं दे सकते।

यदि यह विवेक न हो तो मनुष्य उतना ही उपहासास्पद है जितना सुरीनाम टैड। उसकी अण्डे देने और उनको सेने की क्रिया बहुत ही विलक्षण होती है- मादा अपने अण्डे अपनी पीठ पर डालती जाती है। अण्डा खाल में कुछ इस तरह धँस जाता है कि ऊपर एक और खोल ढक्कन की तरह चढ़ जाता है इसी तरह सारे अण्डे पीठ में ही पकते रहते हैं। विकसित होने पर जब ये बच्चे फुदक-फुदक बाहर निकलते हैं तो किसी निहारिका के विस्फोट से बनने वाले ब्रह्माण्डों की कल्पना साकार हो उठती है। यह बच्चे थोड़े ही समय में स्वेच्छाचारी जीवन जीते और मनुष्य को यह बताते हैं कि यदि प्रजनन उद्देश्यपूर्ण न हुआ तो वह मेरी तरह भार ही होगा।

उल्लू जैसा मूर्ख समझा जाने वाला पक्षी कितनी विलक्षणताओं से परिपूर्ण है उसकी कल्पना करते ही प्रकृति की सचेतन कलाकारिता पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। कहते हैं उल्लू रात का राजा होता है वस्तुतः उसे रात में दिखाई नहीं देता। इस कमी की पूर्ति के लिए प्रकृति ने उसे ऐसे कान दिये हैं जिनमें एक विचित्र ढक्कन लगा होता है यह पूरी तरह कान को ढकता नहीं । जब कोई ध्वनि उल्लू के पास आती है तो पहले उसे वह ध्वनि एक कान से सुनाई देती है पीछे कुछ क्षणों के बाद दूसरे से। बस श्रवण के इस अन्तर को ही वह फटाफट गणित में बदल कर यह पता लगा लेता है कि आवाज किस दिशा से कितनी दूर से आई है। मनुष्य जो कि प्रकृति का परिपूर्ण प्राणी माना जाता है उसे भी इतने संवेदनशील कान न मिलने का दुःख हो तो कुछ आश्चर्य नहीं जिनसे वह और नहीं तो पृथ्वी के घूर्णन की, ग्रहों के चलने और सौर घोष जैसी ध्वनियाँ तो सुन ही लेता, यदि ऐसा हो सका होता निःसन्देह उसके चिन्तन और दृष्टिकोण में आज जो संकीर्णता भरी हुई है वह नहीं ही होती ।

सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री जान एच॰ टाड ने एक बार मछलियों पर एक प्रयोग किया। मछलियाँ एक नियत समय पर अपने सामान्य निवास से चलकर किसी विशेष स्थल में जाकर अण्डे देती हैं। विकसित होने के बाद उनके बच्चे स्वयं ही अपने माता-पिता की जन्म भूमि को लौट आते हैं, वे किस बौद्धिक सूझ और अंतःप्रेरणा से ऐसा करती हैं यह जानने के लिए ही यह प्रयोग किया गया था। प्रयोग के समय जहाँ मछलियाँ थी उस स्थान को घेर दिया गया और उस स्थान का सम्बन्ध एक कुँए से जोड़ दिया गया ऐसा करने पर भी वे मछलियाँ कुएँ की और नहीं गई, अपितु उस रासायनिक संकेत के सहारे ही समुद्री धारा में बढ़ने लगीं जिधर उन्हें अण्डे देने जाना होता है। अपने स्थान पर लौटाने या नये स्थान जाने के अतिरिक्त भी मछलियों की एक रासायनिक भाषा होती है जिससे वे सजातियों को सामाजिक व्यवस्था की जानकारी देती रहती हैं।

जन-समुदाय को कोई चेतावनी या सूचना देनी हो तो ढोल पीट कर मुनादी की प्रथा प्रचलित है। कदाचित कोई दीमकों के सूक्ष्म जीवन पर दृष्टि डाले तो उसे यह जानकर आश्चर्य हुए बिना न रहेगा कि यह परम्परा उनमें भी पाई जाती है। सैनिक दीमक को जब किसी शत्रु का पता चलता है तो वे एक विशेष ध्वनि से अपने कुनबे को सचेत कर देते हैं। बात की बात से सारे दीमक नगर को सूचना हो जाती है और वे सब के सब अपना माल, असबाब बाँध कर दूसरे आश्रय के लिए चल पड़ते हैं।

विवेक बुद्धि मिल जाने पर मनुष्य चाहे तो गर्व कर सकता है, पर इतना होने पर भी जब यह जीवन की गुत्थियाँ नहीं सुलझा पाता तो उसकी इस बुद्धिमत्ता पर तरस आता है।

कला-कौशल और अपनी बौद्धिक सामर्थ्य से आज मनुष्य ने धरती, वायु, आकाश सर्वत्र अपनी कीर्ति-पताका फहरा दी है किन्तु यदि इतने मात्र को ही श्रेष्ठता का मानदंड मान लिया जाये तब तो पशु-पक्षी उससे इक्कीस ही बैठेंगे उन्नीस नहीं। आज मनुष्य ने तरह-तरह के विमान विकसित कर लिए, पर जीवों की सदृश क्षमताएँ अभी भी उसे उपलब्ध नहीं। उड़ने को अमेरिका की कुछ गिलहरियाँ भी उड़ लेती हैं। मलाया, सिंगापुर की छिपकली और साँप उड़ानों के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। एक समय था जब टेरोडक्टाइल नामक विशालकाय सरीसृप उन्मुक्त आकाश में उड़ते थे तब तक तो मानवी सभ्यता अस्तित्व में भी नहीं आई थी। इस तरह उड़ान का श्रेय राइट बन्धुओं को नहीं अपने इन छोटे कहे जाने वाले भाइयों को ही देना पड़ेगा।

“एक्सोसिटायडी” मछलियाँ मनुष्य की तरह पारिवारिक जीवन बिताती हैं। ये सदैव समूह में रहती, एक दूसरे के हितों का ध्यान रखती, प्रसव जैसी कठिन परिस्थितियों में एक दूसरे की सहायता करती हैं यही नहीं यह अपने बच्चों को पेड़ों पर चढ़ाकर उन्हें विधिवत् उड़ना भी सिखाती हैं। इस तरह यह समूचा समुदाय उड़न-दस्तों की तरह ही जीवनयापन करता है। कुछ मछलियों को तो प्रकृति ने पीठ ही नहीं पेट में भी पंख अर्थात् चार-चार डैने प्रदान किये हैं। इसमें पेलथिक मछली अत्यन्त कुशल उड़ाका होती है। यह अपने पीठ के कन्धों से ‘ग्लाइडर’ का काम लेती है और किसी स्थान विशेष में ठहरना चाहे तो पंखों को लहराती हुई ठहर भी जाती है इतनी उन्नत किस्म तो मानवीय यानों ने भी अभी नहीं पाई। मनुष्य ने तो उड़ान के तरीके लगता है “हैचेट” तथा “बटरफ्लाई” मछलियों के ही करतब देखकर सीखे हैं जिनके सहारे वे पहले पानी में ही प्रचुर वेग लेकर ऊपर उड़ जाती हैं। जावा में एक मेंढक पाया जाता है यह भी उड़ता है। “गरनार्ड” मछली इन सबसे उन्नत किस्म की उड़ाका होती है ये अपने पंखों के सहारे पानी में तैर भी सकती है सतह पर संतरण भी कर सकती है और उड़ तो सकती है। उड़ान में तो मनुष्य मक्खी से भी हार मानता है, सिफेनेमिया जाति की मक्खी 816 मील प्रति घण्टा की भयंकर गति से उड़ने में सक्षम है।

प्रगति और आत्म-रक्षा के लिए जड़ता का आश्रय एक दिन जीवन चेतना को ही जड़ बना दे तो कुछ आश्चर्य नहीं। स्पंज और मूँगे जीव हैं किन्तु वे इसी ताक में रहते हैं कि कहीं उन्हें कोई चट्टान, काई का ढेर या रेत मिल जाये बस वे उसी से चिपक कर जड़ हो गये, उनकी मूल चेतना का विनोद समाप्त हुआ वे न वैसे का आनन्द ले सकते हैं न विविध पूर्ण सृष्टि के विहंगावलोकन का मस्सेल, ओइस्टर ड्रिल बारनंकल तथा इसी श्रेणी के जीवन है जिन्होंने अपनी दुनिया सीमित कर ली है और व्यापक दृष्टि से वंचित हो गये हैं। मनुष्य जाति भी कुछ इसी तरह होती जा रही है। जड़ता के अनुसन्धान के साथ-साथ चेतन मन की सम्वेदना और उसकी भावनाएँ बुरी तरह नष्ट होती जा रही हैं। उसकी मैत्री भावना, करुणा, दया और उदारता नष्ट होती जा रही है और इन्द्रिय लिप्सा इन जीवों की तरह बढ़ती रहती है।


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