मरणोत्तर जीवन एक सचाई

December 1977

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मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए प्रेतात्माओं के क्रिया कलापों और पूर्व जन्मों की स्मृतियों को साक्षी रूप में प्रस्तुत किया जाता है। अब तक उपलब्ध साक्षियाँ इतनी अधिक और इतनी प्रामाणिक हैं कि उनमें अविश्वास ठहराने का कोई कारण नहीं रह गया है। अब इस निष्कर्ष पर पहुँचना शेष है कि वे स्मृतियाँ आखिर उद्भूत कहाँ से होती हैं। उनका आधार क्या है? इस सन्दर्भ में कितने ही निष्कर्षों पर विचार किया जा रहा है। इनमें से एक यह है कि मनुष्य का अचेतन मन न केवल वर्तमान जन्म की स्मृतियों को अंकित करता है वरन् पूर्व जन्मों की स्मृतियाँ भी अति सूक्ष्म संस्कारों के रूप में अपने भीतर समेटे रहता है। उन्हें अनायास जगने का भी कोई कारण हो सकता है। दूसरा कारण यह सोचा गया है कि एक व्यक्ति का अचेतन मन दूसरे के अचेतन के साथ आसानी से संपर्क मिला सकता है और उसकी गहराई में उतर कर बहुत कुछ रहस्य जान सकता है जब कि सचेतन भाग की सामान्य जानकारियों का पता लगाना कठिन होता है। जिस प्रकार सागर जल में घुली हुई आक्सीजन में से सभी जलचर अपने लिए प्राणवायु ग्रहण करते हैं उसी प्रकार इस निखिल विश्व में एक जीवन तत्व संव्याप्त है। उसी में से हर प्राणी अपने लिए आवश्यक अनुभूतियाँ एवं सम्वेदनाएँ ग्रहण करता है। इस प्रकार हर व्यक्ति की ज्ञानपरिधि विश्व ज्ञान की ही एक इकाई होती है। इसकी मात्रा प्रशिक्षण के माध्यम से तो बढ़ती ही है दूसरे रहस्यमय उपायों एवं आधारों से भी उसका विकास अभिवर्धन हो सकता है और मानवी ज्ञान उस स्तर तक पहुँच जाता है जिसे अतीन्द्रिय क्षमता नाम दिया जाता है।

परामनोविज्ञान की एक शाखा के अंतर्गत ऐसे प्रमाण एकत्रित किये गये हैं जिनसे मनुष्यों का पूर्व जन्म होने के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे अन्वेषणों में प्रो राइन की खोजें बहुत विस्तृत और प्रामाणिक मानी गई हैं उनके आधार पर अन्यत्र भी इस दिशा में बहुत सी जाँच पड़ताल हुई है। इस खोजबीन के निष्कर्ष इस मान्यता का पलड़ा भारी करते हैं कि आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बना रहता है और वह पुनर्जन्म धारण करती है। हिन्दू धर्म में आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म की सुनिश्चितता को आरम्भ से ही मान्यता प्राप्त है किन्तु संसार में दो प्रमुख धर्मों - ईसाई और इस्लामी धर्मों के बारे में ऐसी बात नहीं है। उनमें मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व तो माना जाता है, पर कहा जाता है कि वह प्रसुप्त स्थिति में बना रहता है। महाप्रलय के होने के उपरान्त फिर कहीं नया जन्म मिलता है। इतने विलम्ब से पुनर्जन्म होने की बात न होने जैसी ही बन जाती है। ऐसी दशा में इन धर्मों के अनुयायियों के बारे में पुनर्जन्म न मानने जैसी ही मान्यताएँ हैं। ऐसी दशा में उस प्रकार की घटनाओं एवं प्रमाणों को न तो खोजा ही जाता है और न वैसा कोई प्रमाण मिलने से उन पर ध्यान ही दिया जाता है। पर अब धार्मिक कट्टरता घट जाने और तथ्यों पर ध्यान देने की सोच चल पड़ी है। विज्ञान और बुद्धिवाद के समन्वय ने यह नई दृष्टि दी है अस्तु पाश्चात्य देशों में तथ्यों पर ध्यान देने की प्रवृत्ति ने पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भी जाँच-पड़ताल करने पर जो तथ्य सामने आयें उन पर विचार करने के सम्बन्ध में उत्साह उत्पन्न किया है।

विगत शताब्दी में यूरोप में सबसे पहली किताब फ्रेडरिक स्पेन्सर ओलवर द्वारा लिखित एन अर्थ डवेलर्स रिटर्न थी, जिसमें उसने अपन पिछले 32 जन्मों का हाल लिखा था। उसका कथन था वह पुस्तक उसने नहीं लिखी किन्तु किसी दिव्यात्मा ने उसके शरीर में प्रवेश करके लिखाई है। इस पुस्तक के पीछे तर्क और प्रमाण न होने से उसे विश्वास तो नहीं माना गया, पर जब उसमें की गई भविष्य वाणियों में से कितनी ही सही सिद्ध हुई तो वह बहुचर्चित अवश्य बन गई।

इसके बाद मनोविज्ञान और चिकित्सा शास्त्र में समान रूप से ख्याति प्राप्त डा जीना सरमी द्वारा लिखित “मैनी मेन्शन” का नम्बर आता है जिसमें ऐसे कितने ही आधार प्रस्तुत किये गये हैं जिनसे शरीर न रहने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहने तथा फिर से जन्म होने की बात पर विश्वास जमता है।

उन्नीसवीं सदी में सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रमाण एक जीवित व्यक्ति का सामने आया, जिसने पुनर्जन्म की मान्यता को वैज्ञानिकों और मनीषियों की गहरी खोज का विषय बनाने के लिए विवश किया। उस व्यक्ति का नाम था एडगर कैसी। उसमें ऐसी चेतना उभरी जो कितने ही व्यक्तियों के पूर्व जन्मों के हाल बताती थी। ऐसे तो इस प्रकार की बातें ढोंगी और अर्ध विक्षिप्त लोग भी करते रहते हैं, पर कैसी के कथनों में यह विशेषता होती थी कि वह जो कुछ बताता था तलाश करने पर उसके सारे प्रमाण यथावत् मिल जाते थे। वर्णन इतने पुराने, इतनी दूर के और इतने महत्त्वहीन होते थे कि उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के कहीं बताने जैसी न तो आशंका की जा सकती थी और न वैसी सम्भावना ही थी। टेढ़ी मेढ़ी परीक्षणों पर जब उसके कथन को बुद्धिजीवियों द्वारा जाँचा और सही पाया गया तो उसके कथन को महत्व दिया गया और पुनर्जन्म के सम्बन्ध में नये सिरे से नये उत्साहपूर्वक शोध प्रयास आरम्भ हुआ।

अमेरिका के कैन्टकी प्रान्त में होपकिन्स विले नामक व्यक्ति देहात में हुआ। वह अपने अन्य परिवारियों की भाँति नाम मात्र को ही शिक्षित था। उसे सम्मोहन विद्या से वास्ता पड़ा। वह उस तन्द्रा से ऐसी बातें करने लगा जिन्हें अतीन्द्रिय अनुभूतियों की संज्ञा मिलने लगी। आरम्भिक दिनों में वह रोगियों के कष्ट, निदान एवं उपचार के सम्बन्ध में तन्द्रित स्थिति में परामर्श देता था जो लाभदायक सिद्ध होते थे। फिर उसमें पिछले जन्मों का हाल बताने की नई क्षमता जगी। उसने सैकड़ों के पूर्व जन्मों के विवरण बताये और वे सभी ऐसे थे जो तलाश करने पर सही प्रमाणित हुए। इस प्रमाणों की साक्षी कहाँ से प्राप्त की जाय इस सन्दर्भ में उसने अनेकों सरकारी और गैर सरकारी कागजों में दर्ज ऐसे पुराने विवरण बताये जिनका साधारण रीति से पता लगाना अति कठिन था। साक्षी रूप में वे ढूँढ़े गये तो जैसा कि उल्लेख बताया गया था, ठीक उसी रूप में उसी तरह वह सब मिल गया।

इसी प्रकार कैसी ने ऐसे विवरण भी बताये जिनमें पुराने जन्मों के दुष्कर्मों का फल इस जन्म में मिलने के सिद्धान्त की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। इन कष्ट पीड़ितों में अधिकाँश विकलांग एवं रोगी थे। उन्हें यह विपत्ति किस कारण उठानी पड़ रही है, इसके सन्दर्भ में विवरण बताये गये वे भी उस कथन की पुष्टि के लिए सबल साक्षी थे। इनकी प्रामाणिकता भी बताये घटनाक्रम के साथ भली प्रकार खोजी गई और जो बताया गया था वह सही मिला। इस प्रकार कैसी रोग चिकित्सा-पूर्व जन्म और कर्मफल के तीन तथ्यों पर ऐसे रहस्यमय प्रकाश डालता रहा जो इससे पूर्व इतनी अच्छी तरह कभी भी सामने नहीं आये थे।

पुनर्जन्म की घटनाओं से जहाँ आत्मा की अमरता का सिद्धान्त पुष्ट होता है वहाँ प्रेतात्माओं के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले अगणित प्रत्यक्ष प्रमाण भी इसी तथ्य की साक्षी देते हैं। मरणोत्तर जीवन में रहने वाले आत्माओं का एक ऐसा वर्ग भी है, जो जीवित लोगों में पाये जाने वाले ऋषियों एवं महामानवों की तरह ही उदार है, लोगों की विविध प्रकार सेवा सहायता करते हैं। श्रेष्ठ कार्यों में परोक्ष सहायताएँ प्रस्तुत करने में उन्हें सहज रुचि होती है। सुकरात के साथ एक ऐसी ही अदृश्य आत्मा देवी थी। विक्रमादित्य का भी ऐसी ही कुछ आत्माओं के सहयोग का उल्लेख मिलता है। कापालिक, अघोरी, प्रेत-पिशाचों का और देव साधन देव पितरों का सहयोग प्राप्त करके अपने अपने बुरे भले उद्देश्यों में सफल होते देखे जाते हैं।

थियोसोफी के जन्मदाताओं में से एक सर आलिवर लाज, ने लिखा है- जीवित और मृत का भेद स्थूल जगत तक ही सीमित है। सूक्ष्म जगत में सभी जीवित हैं। मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। जिस प्रकार हर जीवित लोग परस्पर विचार विनिमय करते हैं उसी प्रकार जीवित और मृतकों के बीच में आदान प्रदान हो सकना सम्भव है। हमें विज्ञान के इस नये क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिये और एक ऐसी दुनिया के साथ संपर्क बनाना चाहिये जो हमसे अधिक साधन सम्पन्न है। इस नये संपर्क का द्वार खोलकर हम मानवी परिवार को कहीं अधिक सुविस्तृत सुखी और प्रगतिशील बना सकेंगे।

सर आर्थर कानन डायल भी इसी विचार के थे। वे कहते थे अपनी दुनिया की ही तरह एक और सचेतन दुनिया है जिसके निवासी न केवल हमसे अधिक बुद्धिमान है वरन् शुभ-चिन्तक भी है। इन दोनों संसारों के बीच यदि आदान-प्रदान का मार्ग खुल सके तो इससे स्नेह सम्वेदनाओं का सुखद सहयोग का एक नया अध्याय प्रारम्भ होगा। मृतकों और जीवितों के बीच संपर्क स्थापना का प्रयास यदि अधिक सच्चे मन से किया जा सके तो अब तक की प्राप्त वैज्ञानिक उपलब्धियों से कम नहीं वरन् बड़ी सफलता ही मानी जायेगी।

आत्मा शरीर के साथ उत्पन्न होती है और उसी के साथ मर जाती है। यह मान्यता पिछले दिनों के पदार्थ विज्ञानियों की तरह है। वे प्राणी को एक चलने फिरने और सोचने बोलने वाला समर्थ पौधा मानते रहे हैं। पौधों के जन्म और मरण के साथ ही उसके अस्तित्व का उदय और अन्त ज्ञानी और विज्ञानी एक समान मानते हैं।

प्रश्न प्राणियों के विशेषतया मनुष्य के सम्बन्ध में उपस्थित होता है क्योंकि उसके समाधान से हमारा सीधा सम्बन्ध है। क्योंकि तब सोचना पड़ेगा कि यदि जीवन शरीर के बाद भी बना रहता है तो शरीर त्याग के बाद उसे किस स्थिति का सामना करना पड़ता है। स्वर्ग, नरक, परलोक के प्रसंग इसी सन्दर्भ में सामने आते हैं। यदि पुनर्जन्म होता है तो पिछले जन्म की स्थिति का इस जन्म पर और इस जन्म का अगले जन्म पर क्या प्रभाव पड़ता है? इतना ही नहीं इस सम्बन्ध में जो निष्कर्ष निकलता है उससे वर्तमान जीवन का उपयोग करने के सम्बन्ध में नीति निर्धारित करने की बात भी सामने आ खड़ी होती है।

सामान्यतया हम भूतकाल से बहुत कुछ सीखते रहते हैं और भावना उस सब को स्मरण रखता है जो हमने खोया या पाया है। वर्तमान में जो कुछ हम है वह भूतकाल में रोपे गये वृक्ष के ही फल-फूल हैं। भविष्य में कुछ बनना है वह आज के क्रिया-कलाप का प्रतिफल ही होगा। इन दिनों जो कुछ करते हैं उसका लाभ तत्काल तो मिलता नहीं-कुछ समय उपरान्त ही उसके परिणाम सामने आते हैं। इस प्रकार हमारी समस्त गतिविधियाँ प्रायः भविष्य निर्माण में ही नियोजित रहती है। फिर यदि जीवन मरने के बाद भी बना रहता है तो स्वभावतः उसकी भी चिन्ता करनी पड़ेंगी और भविष्य के लिए सुखद अवसर प्राप्त करने की तैयारी को भी महत्व देना होगा। यदि जीवन शरीर के साथ ही समाप्त होता है तो मरणोत्तर जीवन के बोर में चिन्ता या तैयारी नहीं करनी पड़ेगी, तब वर्तमान शरीर के वर्तमान और भविष्य को ही सब कुछ मानकर तद्नुरूप जीवन यापन की नीति निर्धारित करनी होगी। दोनों परिस्थितियों में दृष्टिकोण अपनाने और कार्यक्रम निर्धारित करने में भारी अन्तर होगा। आस्तिकों को मरणोत्तर भविष्य निर्माण करने के लिए स्वर्ग मुक्ति-शान्ति सद्गति की बात सोचनी पड़ती है और इस जीवन में तप, संयम, दान, परमार्थ जैसे धर्मानुष्ठानों को महत्व देना पड़ता है भले ही प्रत्यक्षतः उसमें आर्थिक हानि एवं शारीरिक असुविधाएँ ही सहन क्यों न करनी पड़ती हों। इसके विपरीत नास्तिक तात्कालिक आमोद-प्रमोद एवं सुख-साधनों को ही महत्व देते हैं। जब देह भस्मीभूत ही ठहरा और पुनरागमन की सम्भावना नहीं रही हतो ‘ऋण कृत्वा घृतं पिबेत्' की नीति अपनाने में कोई अनौचित्य नहीं कहा जा सकता। जीवन का आदि अन्त शरीर तक ही सीमित है या उसके पश्चात् भी उसका अस्तित्व है यह मात्र दार्शनिक पहल नहीं है। उसका आज की गतिविधियों से सीधा सम्बन्ध है। एक निश्चय के उपरान्त एक दिशा में चलना पड़ता है और दूसरा निश्चय होने पर दूसरी दिशा में चलने की आवश्यकता अनुभव की जायगी।

क्या मृत्यु की अनुभूति कभी हो सकती है? इसका उत्तर नकारात्मक ही हो सकता है। मैं मरने वाला हूँ, मर रहा हूँ जैसे शब्दों का उच्चारण करते हुए भी कहने वाला अपने को जीवित ही अनुभव करता है। सपने में अपनी मृत्यु का दृश्य देखा जा सकता है। शरीर अचेतन पड़ा हुआ और स्वजन सम्बन्धी रोते कलपते दिखाई पड़ते हैं। इतने पर भी अपनी सत्ता बनी ही दिखती है। मरण का अनुभव अपने को ही होता है। इससे स्पष्ट है कि अपना मरण स्वीकार करना आत्मा का स्वभाव ही नहीं है।

जिसका जो स्वभाव है। मच्छर गन्दगी पसन्द करते हैं और खटमल रक्त पीते हैं । इसमें उन्हें घृणा नहीं प्रसन्नता होती है। आत्मा यदि मरण धर्मी होता तो उसे मरने से तनिक भी डर न लगता। चूँकि वह मरना नहीं चाहता, मृत्यु संकट आने पर उससे बचने का हर सम्भव उपाय करता है। मरने से डरना यह बताता है कि मृत्यु अस्वाभाविक है। जीवात्मा उस स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। यों शरीर मरता है, आत्मा की मृत्यु नहीं होती तो भी उसे न केवल अपनी वरन् अपने शरीर और स्वजनों तक की मृत्यु अनुपयुक्त अप्रिय लगती है। जीवन ही आत्मा का धर्म है। अपना मरण तो होता नहीं है। शरीर पर पदार्थों के लिए मरण स्वाभाविक होते हुए भी चेतना पर उसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है। यह सब लक्षण इस बात के हैं कि मानवी सत्ता मरणशील नहीं न उसे मरण से कोई सहानुभूति है।

स्वास्थ्य स्वाभाविक है और रोग अस्वाभाविक। स्वस्थ सदैव बने रहने में भी किसी को कोई आपत्ति नहीं। अस्वस्थता थोड़े दिन की भी असहनीय होती है। किसी प्रिय जन के रोगी होने से चिन्ता होती है, उसकी स्थिति तथा वजह पूछने जानने के लिए आतुरता व्यक्त की जाती है किन्तु स्वस्थ रहने पर कोई उसके लिए चिन्ता नहीं करता और न यह पूछता है कि आप स्वस्थ क्यों है? इससे स्वाभाविक और अस्वाभाविक होने का परिचय मिलता है। मृत्यु और जीवन के सम्बन्ध में भी यही बात है मृत्यु का समाचार पाकर या उसकी सम्भावना विदित होने पर चिन्ता सम्वेदना प्रकट की जाने लगती है, पर जीवित रहने पर ऐसी कोई व्यग्रता कहीं से भी नहीं होती। इससे जीवन की स्वाभाविकता सिद्ध है। अस्वाभाविक तो मरण ही है। जब शरीर तक के मरण में अस्वाभाविकता मानी आती है तब आत्मा की चेतना सत्ता का मरण स्वीकार करने की बात तो किसी के गले उतरती ही नहीं।

इस संसार में जितना पदार्थ सृष्टि के आरम्भ में था उतना ही अन्त तक रहेगा। उसमें न्यूनाधिकता नहीं होती। वस्तुओं के स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है। ठोस, तरल और वायु भूत इन स्थितियों में वस्तुएँ बदलती रहती हैं। पानी तरल है, ठण्डक पड़ने पर बर्फ बन जाता है। गर्मी पड़ने पर भाप बनकर आकाश में उड़ जाता है फिर बादल या ओस बन कर तरल रूप में दिखाई पड़ता है। यही अदला-बदली वस्तुओं की उत्पत्ति और मृत्यु के रूप में प्रकट-अप्रकट होती रहती है, वस्तुतः कोई वस्तु कभी नष्ट नहीं होती। इस सिद्धान्त को रसायन शास्त्र के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। भौतिक विज्ञान में इसी सिद्धान्त को ‘तत्व का अणुत्पत्ति- तत्व का अतिनाशित्व-अध्यात्म शास्त्र में पदार्थ और प्राणी दोनों पर ही इसी तथ्य का समान रूप से कार्यान्वयन प्रतिपादित किया गया है। गीता कहती है- ना सतो विद्यते भावो, ना भावो विद्यते सतः।” अर्थात् जो नहीं था वह पैदा नहीं होता और जो है उसका नाश नहीं हो सकता। इस प्रतिपादन में पदार्थ की तरह आत्मा की अमरता भी सन्निहित है।

किसी से पूछा जाय कि आप का अस्तित्व इस समय है या नहीं, वह यही है, में ही उत्तर दे सकता है। यदि यह ‘मैं’ इस समय विद्यमान है तो वह पहले भी था और आगे भी बना ही रहेगा। हाँ, नाम, रूप और स्थान का परिवर्तन प्रकृति के स्वाभाविक क्रम के अनुसार अवश्य होता रहता है। यदि स्थानान्तरण को मृत्यु समझा जाय तब तो बात दूसरी है पर यदि विनाश या समाप्ति के रूप में मरण की व्याख्या की जाती है वह भौतिक शास्त्र और दर्शन शास्त्र दोनों ही दृष्टियों के उपरान्त भी बना रहता है। इस तथ्य से वे धर्म भी इनकार नहीं करते जो पुनर्जन्म को नहीं मानते। उस परलोक का अस्तित्व तो उन्हें भी मान्य है, जिसमें मरने के बाद भी आत्मा किसी न किसी स्थिति में निवास करता रहता है।

साधारणतया जन्म शब्द का अर्थ पैदा होना और मृत्यु का नष्ट एवं समागत हो जाना है। यह दो घटनाएँ समझी जाती है। संस्कृत भाषा में ‘जन्म’ और ‘मृत्यु’ शब्दों की व्याख्या व्युत्पत्ति में तथ्य को पूरी तरह स्पष्ट किया गया है। उसमें जन्म का अर्थ प्रकट होना और मृत्यु का देखने योग्य न रहना भर है। इन शब्दों में स्थिति के परिवर्तन भर का संकेत है किसी नवीन उत्पादन या आत्यंतिक विकास प्रतिपादन नहीं है।

संस्कृत की जननी-प्रादुर्भाव धातु से जन्म शब्द बना है। प्रादुर्भाव का अर्थ है- प्रकटीकरण-आकिजिन प्रकट होने का तात्पर्य हैं जो छिपा था उसका सामने आ जाना ‘जन्म’ शब्द का दूसरा पर्यायवाचक है। उत्पत्ति यह शब्द उत-पद से मिलकर बना है। जिनका अर्थ है ऊपर आना! इस व्याख्या में भी स्थिति के बदलने भर का संकेत है। जन्म के पर्यायवाची में एक और शब्द है- सृष्टि - क्रिएशन। यह शब्द सृजन-विसर्ग धातु से बना है। जिसका तात्पर्य लगभग वैसा ही है जैसा कि जन्म एवं उत्पत्ति का। सृष्टि को बाहर आना-प्रत्यक्ष होना कह सकते हैं। हमारी इन्द्रियों में सब कुछ देखने का सामर्थ्य नहीं है। वे पंचतत्वों से बनी होने के कारण मात्र किन्हीं वस्तुओं की स्थूल स्थिति को ही देख सकती हैं। कितनी ही वस्तुओं का अस्तित्व सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से रेडियो टेलिस्कोप से एवं अन्यान्य साधनों से जाना जा सकता है। आँख एवं इन्द्रियाँ तो वायुभूत पदार्थ तक को नहीं देख पाती, जबकि अन्य इन्द्रियाँ उनकी उपस्थिति का अनुभव करती हैं। आग पर मिर्च जला देने से वे हवा में उड़ जाती हैं तब उस वायुभूत मिर्च को आँखें नहीं देखतीं किन्तु नाक गन्ध रूप में उसकी उपस्थिति अनुभव करती है। इसके आगे सूक्ष्मता आने पर वे इन्द्रियों की पकड़ से बाहर हो जाती हैं तो भी उनका अप्रकट अस्तित्व बना रहता है। पदार्थ और आत्मा दोनों के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त एक समान लागू होता है। जन्म का अर्थ नवीन उत्पत्ति नहीं किन्तु अप्रकट का प्रकट भर हो जाना है।

‘मृत्यु’ शब्द का संस्कृत भाषा में जो अर्थ है उससे भी वस्तुस्थिति पर भली प्रकार प्रकाश पड़ता है। मृत्यु के लिए नाश शब्द का प्रयोग होता है। नाश-ना दर्शनेन' धातु से बना है। जिसका तात्पर्य है- देखने योग्य न रहना। इसमें अस्तित्व के अभाव की बात नहीं कही गई है, मात्र इतना ही संकेत है कि वह पदार्थ दृष्टि पथ से ओझल हो गया। ऐसा तो बच्चे ‘आँख मिचौनी’ खेल में भी करते रहते हैं। बादलों की छाया सूर्य चन्द्र तक को गुप्त प्रकट होने तक के लिए विवश करती रहती है। धूप-छाँव की स्थिति को सूर्य चन्द्र की उत्पत्ति या समाप्ति तो नहीं कह सकते। ठीक इसी प्रकार आत्मा के शरीर धारण करने और चोला उतार देने की स्थिति के सम्बन्ध में समझा जाना चाहिए। इसमें अस्तित्व तो बना ही रहता है। उसकी अमरता में कोई अन्तर नहीं आता।

मौत न डरने की जरूरत है और न उसके लिए उतावले होने की। शरीर ही बदलते हैं आत्मा के अस्तित्व पर मौत का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कपड़े बार-बार बदलने पड़ते हैं पर शरीर वही बना रहता है- शरीर भी कपड़े की तरह बदलते रहते हैं। जीवन ईश्वर के समान ही अनादि और अनन्त है। कोई सत्कर्म किया है तो उसका फल अगले दिन- अगले जन्म में मिल सकता है उस में अधीरता की आवश्यकता नहीं है। वृद्ध हो गये, मरने के दिन आ गये। अब पढ़ कर क्या करेंगे? अब के आरम्भः इन मान्यताओं को अपनाया रहकर हम शरीर की मृत्यु निश्चित मानते हुए भी अजर-अमर जैसा निश्चिन्त प्रसन्न और योजनाबद्ध प्रगतिशील जीवन जी सकते हैं।


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