स्मरण शक्ति की कमी-कारण और निवारण

December 1977

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स्मरण शक्ति की कमी की शिकायत वृद्ध ही नहीं युवा व्यक्ति भी करते पाये जाते हैं। इस कमी से वे परीक्षा में उत्तीर्ण होने से लेकर व्यावसायिक तथा दैनिक काम-काजों में बड़ी अड़चन अनुभव करते हैं। बहुधा इसे कोई रोग मान लिया जाता है और उसके निवारण के लिए तरह-तरह के औषधि उपचारों तथा पुष्टाई सेवन का सिलसिला चलता है।

उपचार करने से पूर्व विस्मृति का कारण जानने की आवश्यकता है साथ ही यह समझना भी उपयोगी है कि मस्तिष्क में स्मृति को संग्रह करने वाली सुरक्षित रखने वाली संरचना कैसी है। मोटर की मशीन और उसके चलाने की विधि ठीक तरह समझ ली जाय तो उसके संचालन में जो व्यवधान आते हैं उनमें से अधिकाँश का निवारण सहज ही हो जाता है।

स्मरण शक्ति प्रायः अपने स्थान पर यथावत् रहती है। बचपन के प्रारम्भिक और वृद्धावस्था के अन्तिम दिनों को छोड़कर शेष प्रौढ़ परिपक्वावस्था में स्मृति का स्तर प्रायः समान ही रहता है। हमें स्मरण रखने की प्रक्रिया में अन्तर पड़ जाने से उसकी मात्रा घट बढ़ जाने का भ्रम होने लगता है। यदि स्मरण रखने की पद्धति का ज्ञान हो और स्मरण तन्त्र की संरचना को ध्यान में रखते हुए तद्नुरूप घटनाओं को स्मरण रखने की विधि व्यवस्था बना ली जाय तो फिर स्मृति की उतनी शिकायत न रहे जैसी आमतौर से रहती है। यों हर मनुष्य में दूसरों की अपेक्षा कुछ न कुछ तो न्यूनाधिकता हर बात में रहती है।

समझा जाता है कि बचपन में स्मरण शक्ति तीव्र होती है और पीछे आयु बढ़ने के साथ-साथ मन्द होती जाती है। पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। छोटी आयु में मस्तिष्क के ऊपर बोझ कम रहता है विचारणीय प्रश्न कम रहते हैं, घटनाएँ, सम्वेदनाएँ और समस्याएँ भी उन दिनों थोड़ी ही रहती हैं। फलतः बोझ कम रहता है और जो सोचना, याद रखना है वह आसानी से निपट जाता किन्तु बड़े होने के साथ-साथ कार्य क्षेत्र बढ़ता जाता है, साथ ही स्मरण रखने निष्कर्ष निकालने एवं निर्णय करने का भार भी। ऐसी दशा में बहुत काम करते रहने पर भी कुछ में अधूरापन रह जाना अप्रत्याशित नहीं। जो कुछ सही रीति से पूरा हो गया उसकी ओर तो ध्यान दिया नहीं गया, पर जो कमी रह गई उसी को मस्तिष्क की कमजोरी या स्मरण शक्ति की कमी मान लिया गया। ऐसे ही प्रसंगों को लेकर दिमागी शक्ति घट जाने की बात सोच ली जाती है और चिन्ता होने लगती है जबकि वस्तुतः वैसा कुछ होता नहीं।

विस्मृति का बहुत बड़ा कारण है- उपेक्षा जिस वस्तु, बात, या सन्दर्भ में अन्यमनस्कता होती है वहाँ उथला ध्यान दिया जाता है और स्मृति की परतों पर अंकन बहुत ही हलका-धुँधला हो पाता है। उसके मिटने में भी देर नहीं लगती। इसके विपरीत जिन प्रसंगों में अपनी दिलचस्पी होती है, उन्हें ध्यानपूर्वक सुना देखा और समझा जाता है। फलतः उनके मानस चित्र अधिक स्पष्ट बनते हैं और स्मृति पटल पर उनका अंकन इतना गहरा हो जाता है कि आवश्यकतानुसार उसे फिर पूर्ववत् देखा जा सके। यों समय बीतने के साथ साथ सभी स्मृतियाँ धुँधली पड़ती जाती है, फिर भी जिन्हें मनोयोग पूर्वक अपनाया गया है उनकी रेखाएँ अमिट न सही चिरस्थायी तो बनी ही रहती है।

स्कूली छात्रों को पाठ याद न होने की शिकायत रहती है, पर वे ही किसी देखी हुई फिल्म का पूरा कथानक भली प्रकार सुना देते हैं और साथ ही उसके गीत भी याद रखते हैं। दादी अपनी पोती का नाम बार-बार भूल जाती है पर अपने पति या ससुर की श्राद्ध तिथि नहीं भूलती। व्रत उपवास की तिथियाँ भी विस्मरण नहीं होती। युवक अपने पिता को पत्र लिखने की बात भूल जाते हैं, पर प्रेमिका को नियमित रूप से लिखते रहते हैं। सामान्य प्रसंगों में तारीखें याद नहीं रहतीं पर वेतन पाने की तारीखें भूलने में कदाचित ही किसी से कभी भूल होती होगी। भुलक्कड़पन वस्तुतः कोई रोग नहीं वरन् आदत है, जो दिलचस्पी की कमी वाले क्षेत्रों को ही प्रभावित करती है। नोटबुक को साथी बना लेने उसमें करने योग्य आवश्यक काम नोट करते रहने और उन पृष्ठों को सामने खुला रखने तथा बार-बार पलटते रहने से सभी महत्वपूर्ण बातें याद रखी जा सकती हैं और सभी आवश्यक काम निपटते रह सकते हैं। नोटबुक साथ रखने जैसे सामान्य से उपचार से विस्मृति की वह विभीषिका टल जाती है जिसके कारण बहुत से लोग बुरी तरह घबराते और खर्चीले इलाज कराते रहते हैं।

भगवान ने स्मृति की तरह विस्मृति को भी एक वरदान की तरह सृजा है। उपयोगी बातें याद रखें और आवश्यकता के समय सहायक बनें यह उत्तम है। इसी प्रकार यह भी ठीक है कि द्वेष-दुर्भाव और शोक-संताप की कटु स्मृतियाँ धुँधली होते होते विस्मरण स्तर तक जा पहुँचे। क्रोध, हानि, वियोग आदि की स्थिति में मन जितना उद्विग्न होता है यदि उतना ही संताप बना रहे तो जीवन कठिन हो जाय। एक बार जिनके साथ झगड़ा हो जाय फिर कभी सद्भाव बन ही न सके। मस्तिष्क में यों करोड़ ग्रन्थों के समा सकने जितना स्मृति क्षेत्र है पर क्षण क्षण में जो विविध जानकारियाँ मस्तिष्क को मिलती रहती हैं उनका विस्तार तो स्मृति क्षेत्र की तुलना में बहुत अधिक है। ऐसी दशा में पुरानों को हटाकर ही नयों के लिए जगह मिल सकती है। रेलगाड़ी के मुसाफिर खानों में बैठे यात्री यदि वहाँ जम बैठें तो नये आगन्तुकों को जगह कहाँ मिलेगी।

उनींदे-झपका लेते हुए मनुष्य किसी सम्भाषण को कानों से सुनते हुए भी उसका बहुत थोड़ा अंश समझ पाते हैं। दत्त चित्त होकर सावधानी एवं दिलचस्पी के साथ कोई बात सुनी जाय तो वह न केवल भली प्रकार समझ में ही आ जायगी वरन् चिरकाल तक स्मरण भी बनी रहेगी और छाप भी छोड़ेगी। समझाने के ढंग या स्तर की जितनी महत्ता है, उससे भी अधिक सुनने वालों की दिलचस्पी और सावधानी पर ज्ञानवर्धन की सफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है।

शरीर किस स्थिति में है इसका भी मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। आराम कुर्सी पर शिथिल शरीरावस्था में पड़े-पड़े अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह सोचा जा सकता है। कल्पना की उड़ानें उस स्थिति में अधिक दूर तक और सही दिशा में चलती है। पढ़ने के लिए मुस्तैदी से बैठना उत्तम है। चलते-फिरते जो कुछ सोचा पढ़ा जाएगा वह सब आधा-अधूरा ही रहेगा।

स्मृति और मस्तिष्क का तारतम्य समझने के लिए हमें यह भी जानना चाहिए कि ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से मस्तिष्क को अनेकों प्रकार की जानकारियाँ हर घड़ी प्राप्त होती रहती है। इसमें अधिकाँश वो होती हैं जो स्थिति का परिचय देकर अपना काम समाप्त कर देती हैं। उस जानकारी का यदि कुछ सीधा प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ता है और उसकी कुछ प्रतिक्रिया नहीं होनी है तो विस्मृति की रद्दी की टोकरी में जा पड़ती है और सदा के लिए समाप्त हो जाती है। कुछ जानकारियाँ ऐसी हैं जिनसे निपटना है तो शरीर के अन्य कल पुर्जों को वैसा आदेश मिलता है और तद्नुसार हलचल होती है जैसे पैर में मच्छर काटे तो मस्तिष्क उसके निवारण के लिए हाथ को आज्ञा देता है और वह तत्काल उस स्थान पर पहुँच कर मच्छर पर आक्रमण करता है। ऐसी जानकारियाँ अपना सामान्य प्रयोजन पूरा करके जली हुई दियासलाई की तरह अपना सामयिक प्रयोजन पूरा करके विस्मृति के गर्त में चली जाती है। संग्रह तो थोड़ी-सी ही की जा सकती है। मस्तिष्क में इतनी जगह नहीं है कि हर घड़ी इन्द्रियों की सहायता से जो ज्ञान प्राप्त होता है उस सभी को अर्जित किया जा सके, तो भी जो महत्वपूर्ण है उसे सुरक्षित रखे जाने की इस छोटे किन्तु सुविस्तृत भण्डार में पर्याप्त जगह है।

टेप रिकार्डर पर कुछ आवाजें अंकित कर ली जाती हैं। इसके बाद वे चुप हो जाती हैं। आवश्यकतानुसार उसे उत्तेजित करके फिर से सुना जा सकता है। मस्तिष्क एक प्रकार का टेप रिकार्डर है उसमें असंख्य टेप की हुई घटनाएँ स्मृतियों के रूप में अंकित हो जाती हैं। इसके बाद वे विस्मृत हो जाती हैं किन्तु फिर जब कभी आवश्यकता पड़े उन्हें फिर से उभारा जा सकता है। यह स्मृतियाँ ध्वनि और चित्र एवं सम्वेदनाओं के त्रिविध सम्मिश्रणों के रूप में होती है। टेप रिकार्डर में तो मात्र आवाज ही अंकित रहता है पर मस्तिष्क की स्मृति-कोशिकाओं पर दृश्य भी नोट होता रहता है। इतना ही नहीं जो भाव सम्वेदना उस समय प्रतीत हुई थी वह भी अर्जित रहती है। समयानुसार यह चित्र धूमिल होते जाते हैं। दस दिन पहले की घटना का विस्तार पूर्वक वर्णन किया जा सकता है वैसा दस वर्ष बाद नहीं हो सकता। तब तक वे अंकन काफी जीर्ण और धुँधले हो चुके होते हैं। अस्तु उनमें से उतना ही भाग याद रहता है जो अंकन के समय अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ था और जिसने अधिक गहरी छाप छोड़ी थी।

यहाँ एक बात और भी जानने योग्य है कि स्मृति अंकन के समय मस्तिष्क की क्या स्थिति थी इस बात पर भी यह निर्भर करता है कि कितनी गहराई तक स्मरण को नोट किया गया है। उथले अंकन गहरे अंकनों की तुलना में जल्दी ही घट या मिट जाते हैं। कुछ मस्तिष्कों की जन्मजात बनावट ही बहुत भौंड़ी होती है वे काम चलाऊ स्मृतियाँ ही नोट कर सकते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी शारीरिक कष्ट या मानसिक उद्वेग में मानसिक चेतना बुरी तरह उलझी रहती है या उपेक्षा-उदासीनता का दौर रहा होता है। ऐसी दशा में जो जानकारियाँ मिल रही हैं वे या नोट हो ही नहीं पाती या फिर वे इतनी उथली होती हैं कि दुबारा फिर उन्हें आसानी से उभार सकना सम्भव नहीं रहता।

मस्तिष्क विज्ञानी स्मरण शक्ति का आधार उस विद्युत धारा को मानते हैं जो संवाद वाहिनी तंत्रिकाओं में गतिशील रहती है। न केवल स्मृतियों का अंकन और पुनर्जागरण वरन् मस्तिष्कीय संरचना को अपना काम ठीक करने योग्य बनाये रहने में भी इसी विद्युतधारा की प्रधान भूमिका रहती है। विद्युत विज्ञान के छात्र आवर्तन शील विद्युतचक्र रिवर्वरेटिंग सर्किट की क्रिया-प्रतिक्रिया से परिचित होते हैं। नाड़ियों में रक्त परिभ्रमण की तरह कुछ विद्युतधारा भी अपने कार्यक्षेत्र में गतिशील रहती है। इस गतिचक्र में कितना विद्युत आवेश और परिभ्रमण में कितनी गतिशीलता है इन दोनों बातों पर यह निर्भर है कि स्मृतियों का स्थापन कितने समय तक और किस सीमा तक बना रहेगा। यह विद्युत स्व संचालन और स्व निर्मित होती है। मस्तिष्कीय तंत्रिकाओं की संरचना में सोडियम और पोटैशियम के-आयन काम करते हैं उनमें उथल-पुथल शरीर के अन्य अवयवों की भाँति होती रहती है। उसी सहज हलचल से मस्तिष्कीय विद्युतधारा उत्पन्न होती और अपना काम करती रहती है। यह झीनी तो होती जाती है पर पूर्णतया अन्त उसका तब तक नहीं होता जब तक कि जीव सत्ता का ही पूरी तरह अन्त न हो जाय।

मस्तिष्क यों शारीरिक अवयव माना जाता है पर जीव चेतना का केन्द्र संस्थान वही है। जड़ और चेतन का संगम इसी को माना जाता है। शरीर न रहने पर भी मस्तिष्क का सार-तत्व जीव चेतना के साथ लिपटा रहता है। मरणोत्तर काल में भी उसकी सत्ता बनी रहती है। भूत प्रेतों की परित्यक्त शरीर के साथ सम्बन्धित घटनाएँ स्मरण बनी रहती हैं और वे उस भूत चिन्तन के आधार पर ही अपना समय गुजारते हैं। वर्तमान और भविष्य के लिए उपयुक्त साधन उनके पास उस स्थिति में नहीं होते अस्तु भूतकालीन स्मृतियों का दबाव ही उन पर छाया रहता है। सम्भवतः मृतात्माओं का नाम करण ‘भूत’ इसी आधार पर किया गया हो। पुनर्जन्म में कइयों को कितनी ही घटनाएँ पिछले जीवन की याद बनी रहती है और ऐसे कथन बहुत बार आश्चर्यजनक रीति से सत्य पाये जाते हैं। इतनी तो हर किसी को होता है कि भूतकाल के अनुभव एवं संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक चलें जाते हैं। जन्म जात विशेषताओं का ऐसा परिचय भी बहुत बार मिलता है जिनकी आनुवांशिकी तथा पारिवारिक परिस्थितियों के साथ कुछ भी तालमेल नहीं बैठता। पूर्व जन्मों की संग्रहित पूँजी मस्तिष्क के बहीखाते में जमा रहती है और अपने अस्तित्व के प्रभाव का परिचय नये जन्म में भी देती रहती है।

ईंधन न मिलने पर चूल्हा ठंडा हो जाता है। मस्तिष्कीय कोशिकाओं को भी अपना काम सही रीति से करते रहने के लिए आक्सीजन का ईंधन चाहिए। बचपन में नई मशीन यह ईंधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध और वितरण करती है। तब मस्तिष्क को भी यह खुराक पर्याप्त मात्रा में मिलती है और बच्चों की स्मरण शक्ति तीव्र रहती है वे अपने पाठ आसानी से याद कर लेते हैं। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे कोमलता घटती है और कठोरता बढ़ती है। फलतः आक्सीजन का उत्पादन-वितरण घटता जाता है अवयवों में जो कोमलता बचपन अथवा किशोरावस्था में, होती है वह आयु बढ़ने के साथ घटती जाती है। आक्सीजन प्रवाह के मस्तिष्कीय कोशिकाओं तक पूरी तरह पहुँचने में भी व्यवधान उत्पन्न होता है। फलतः आयु के साथ-साथ स्मरण शक्ति घटती है। बुद्धिमत्ता समस्त स्मृतियों के मन्थन का निष्कर्ष है। अस्तु उसकी मात्रा तो बढ़ती है पर स्मरण शक्ति के सन्दर्भ में बच्चों की स्थिति की अपेक्षा बड़ी आयु वाले कमजोर ही पड़ते हैं। वृद्धावस्था में रक्त वाहिनियाँ कठोर पड़ जाती हैं और रक्त संचार उतनी अच्छी तरह नहीं हो पाता, फलतः मस्तिष्कीय कोशिकाएँ पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन न मिलने के कारण दुर्बल होती जाती हैं। फलतः बूढ़े लोगों की स्मृति दिन-दिन क्षीण होती जाती है। प्रायः वे अपने दैनिक उपयोग की वस्तुएँ तक जहाँ-तहाँ भूलने लगते हैं। परिचितों के नाम तक याद नहीं रहते।

इतने पर भी देखा गया है कि बूढ़ों को भी अपने बचपन या युवावस्था की वे स्मृतियाँ बिलकुल तरोताजा रहती हैं, जिन्हें वे महत्वपूर्ण समझते रहते हैं। देखा गया है कि वे अपनी उन स्मृतियों को आये दिन किसी न किसी को सुनाते रहते हैं। उन्हें वह सब कुछ इस प्रकार याद रहता है मानों अभी कल-परसों की बात हो। ऐसा इसलिए भी होता है कि नई स्मृतियाँ समुचित आक्सीजन के अभाव में न तो मस्तिष्कीय कोशिकाओं पर पूरी तरह अंकित हो पाती हैं और न उनमें स्थायित्व होता है। ऐसी दशा में नये स्मरणों की भीड़-भीड़ रहती नहीं और वे पुरानी अनुभूतियाँ निर्द्वन्द्व होकर पूरे मस्तिष्क पर छाई रहती हैं।

मस्तिष्क एक दीखता भर है, वस्तुतः वह असंख्य घटकों में विभाजित हैं। वे पृथक पृथक होते हुए भी परस्पर एक दूसरे के साथ अति घनिष्ठता पूर्वक बंधे हुए हैं और भरपूर सहयोग देते हैं। यह सहयोग जिस मस्तिष्क में जितना प्रखर होगा उसमें स्मरण शक्ति उतनी ही तीव्र पाई जायगी। जहाँ इस सहयोग में जितना अनुत्साह होगा वहाँ मंदबुद्धि एवं विस्मृति की शिकायत उसी अनुपात से बनी रहेगी।

ध्यान धारण में यह विशेषता है कि मस्तिष्कीय विद्युत का बिखराव रुकता है और उस तन्त्र में ऐसी उत्तेजना उत्पन्न होती है जिसमें तंत्रिकाओं का मध्यवर्ती सहयोग प्रखर हो उठे और स्मरण शक्ति का अभाव अनुभव न हो। इसके लिए ध्यान अभ्यासों में से जो भी अपने लिए उपयुक्त हो उसे चुन लेना चाहिए। एकाग्रता बढ़ाने वाले सभी अभ्यास मनोबल बढ़ाते और स्मरण रखने की क्षमता को सतेज कर देते हैं।

स्मृति संस्थान के घटकों की तुलना किसी प्रशिक्षित और घनिष्ठ सहयोग अनुशासन अपना कर चलने वाली सेना से कर सकते हैं। मस्तिष्कीय साम्राज्य को सुसंचालित रखने के लिए कुशल कर्मचारियों की एक कुशल सेना नियुक्त है। इन सैनिकों अथवा इंजीनियरों का नाम है- नर्व सेल्स- तंत्रिका कोशिकाएँ। इनकी संख्या प्रायः दस अरब आँकी गई है। इनकी लघुता देखते ही बनती है। कार्य की महत्ता और आकार की लघुता को देखते हुए ईश्वर की महिमा वर्णन में कही जाने वाली उक्ति ‘अणोरणीयान् महतो महीवान्’ मस्तिष्क तन्त्र पर भी पूरी तरह लागू की जो सकती है। तंत्रिकाएँ कोशिका का आकार एक इंच के हजारवें भाग से भी कम होता है और वजन की दृष्टि से वह एक ओस का छः खरबवाँ हिस्सा मात्र होती है।

सेना के सभी सदस्यों को यों पृथक पृथक काम करना पड़ता है, पर उसकी वास्तविक शक्ति सैनिकों के परस्पर मिलकर काम करने में और एक-दूसरे के लिए आवश्यक साधन जुटाते रहने में सन्निहित रहती है। ठीक यही पद्धति तंत्रिका कोशिकाओं में काम करती है। उन्हें परस्पर जोड़े रहने का कार्य नर्व फाइवर- तंत्रिका तन्तु-करते हैं। इनके इन्सुलेशन पूरी तरह इस संस्थान पर छाये हुए हैं और उनमें बिजली के- इपल्स- दौड़ते रहते हैं। यों प्रत्येक कोश और तन्तु अपने आप में महत्वपूर्ण और अपनी भौतिक विशेषता से सम्पन्न हैं तो भी उन्हें मिलजुलकर ही अपना काम सम्पन्न करना पड़ता है। उनकी संयुक्त शक्ति से ही विभिन्न मानसिक प्रयास बनते और चलते हैं। इन्द्रिय संस्थान से जो कोई सूचनाएँ मस्तिष्क में पहुँचती हैं उनका क्या उपयोग किया जाय इसका मुकदमा मस्तिष्क मजिस्ट्रेट को तत्क्षण करना पड़ता है। यह अनायास ही नहीं हो जाता । इसके लिए अनेकों गवाहों, वकीलों, सबूतों, नजीरों, कानूनों की उसे देखभाल करनी पड़ती है। इस कार्य में तंत्रिका कोशिकाओं में संग्रह हुए अनुभव काम आते हैं। विभिन्न व्यक्तियों की कोशिकाएँ पृथक पृथक प्रकार के अनुभव एवं अभ्यास सँजोये रहती है। इसलिए उनके निर्णय भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। एक ही प्रश्न पर लोगों के अलग अलग प्रकार के फैसले होते हैं यह उनके कोशिका समूह के संग्रहित अनुभवों और अभ्यासों की भिन्नता पर निर्भर रहता है। इन कोशिकाओं के छोटे-छोटे समूह होते हैं जो परस्पर मिलकर एक प्रकार का काम पूरा करने की दृष्टि से क्षमता और अभ्यस्त होते हैं। यह मण्डलियाँ कभी-कभी तो दस-दस हजार कोशिकाओं की टीम की तरह मिल जुलकर काम करती देखी गई हैं। सभी दस अरब कोशिकाएँ एक साथ तो काम धाम नहीं करती, पर सामान्य रूप से जो काम होता रहता है उसे भी जब इलेक्ट्रो एन्सेफैलोग्राम जैसे यंत्रों से देखा जाता है तो लगता है खोपड़ी के भीतर भयंकर विद्युतीय तूफान उठते और भारी हलचलें उत्पन्न करते हैं। अब तक बने कम्प्यूटरों में जो सर्वश्रेष्ठ है उनमें दस लाख से अधिक इकाइयाँ नहीं रखी जा सकीं और उनमें से प्रत्येक का संपर्क समीपवर्ती पाँच छः के साथ ही जुड़ सकना सम्भव हो सका है, पर इसकी तुलना में मस्तिष्क की तुलना कर सकना अतीव कठिन है। यों मस्तिष्क एक है और उसके सभी घटक एक दूसरे के साथ पूर्णतया सुसम्बद्ध हैं इतने पर भी विभिन्न मानसिक क्रिया-कलापों के लिए छोटे बड़े विभिन्न क्षेत्र निर्धारित हैं और अपने अपने जिम्मे के काम निपटाने में लाखों करोड़ों कोशिकाएँ चींटियों, दीमकों एवं मधुमक्खियों की तरह एक जुट होकर काम करती देखी जा सकती हैं। इनकी क्रियाशीलता न केवल वर्तमान जन्म के द्वारा संग्रहित अनुभवों पर निर्भर है वरन् उसमें वंश परम्परागत अनुभवों और अभ्यासों का भी भण्डार भरा रहता है।

पशु पक्षियों तथा दूसरे जीव जन्तुओं के मस्तिष्क तो प्रायः इन आनुवांशिकी उपलब्धियों के सहारे ही अपना सारा क्रिया कलाप चलाते हैं।

मस्तिष्कीय गतिविधियों की प्रत्यक्ष जानकारी को देखते हुए उसे किसी अलौकिक कलाकार की अद्भुत संरचना कहा जा सकता है। वैसा कुछ बना सकने की बात सोचने का साहस ही कौन करेगा, अभी तो उसकी गतिविधियों को समझ सकने में ही बुद्धि हतप्रभ रह जाती है। अनुमान है कि विदित मस्तिष्कीय गतिविधियाँ बहुत स्वल्प है। समूची मानसिक क्षमता का प्रायः सात प्रतिशत ही क्रियाशील पाया जाता है। शेष तो अभी अविदित अर्धमूर्छित स्थिति में ही सील बन्द स्टोर की तरह सुरक्षित पड़े हैं। जो क्रियाशील हैं वे उस प्रयोजन में काम आते हैं जिसमें सामान्य जीवन की निर्वाह व्यवस्था का संचालन होता है। निर्वाह प्रयोजन तो समग्र जीवन सत्ता का एक छोटा सा अंश है। उसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ सोचने और करने को बच जाता है। कभी किसी को उस अविज्ञात को जानने की, निष्क्रिय को क्रियाशील बनाने की और प्रसुप्त को जागृत करने की आवश्यकता पड़े तो उसे इन सील बन्द स्टोरों को खोलना पड़ेगा जो अपने भीतर बढ़ी-चढ़ी दिव्य क्षमताएँ छिपाये हुए हैं। उच्च अध्यात्म प्रयोजनों के लिए इन्हीं कोष्टकों को खोलने और उनसे उपलब्ध क्षमता को असाधारण कार्यों में लगाने का प्रयत्न योगी तपस्वियों द्वारा किया जाता है।

स्मृति-विस्मृति को चर्चा करने की अपेक्षा जागृति और सुषुप्ति के आधार पर विवेचन करना अधिक युक्तिसंगत है। असावधानी उपेक्षा और अनुत्साह की मनःस्थिति रहेगी तो विस्मृति की शिकायत बनी ही रहेगी । जहाँ ऐसी कठिनाई अनुभव होती हो वहाँ मानसिक पोषण देने वाले आहार का परामर्श देना कोई विसंगति नहीं है, पर अधिक उपयुक्त यह है कि चिन्तन तन्त्र पर छाई हुई शिथिलता को दूर किया जाय। इसके लिए ध्यान धारण के सभी उपचार न्यूनाधिक मात्रा में लाभदायक ही सिद्ध होते हैं। उपासना में ध्यान धारण पर जोर देने के अनेक लाभों आध्यात्मिक लाभों के अतिरिक्त एक अतिरिक्त लाभ यह भी है कि उसे करते रहने पर विस्मृति की शिकायत पनपने नहीं पाती।


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