सन्तोष की साँस लें आशावान् रहें।

December 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यह संसार अपूर्ण है। उसके सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि वह अपूर्णता से पूर्णता की ओर चल रहा है। मनुष्य भी अपूर्ण है और उसकी क्रमिक प्रगति पूर्णता की दिशा में हो रही है। इतना मानकर ही संतोष किया जा सकता है और आगे बढ़ने का उत्साह संजोये रखा जा सकता है।

प्रकृति मनुष्य से बड़ी है और पुरानी भी। फिर भी उसे पूर्णता का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। हर साल वर्षा आती है और धरती को हरी भरी बनाकर चली जाती है किन्तु ग्रीष्म आते आते वह सारी हरीतिमा सूख जाती है जिसे वर्षा ने जमीन पर कोमल कालीन की तरह बिछा दिया था। वर्षा एक हाथ से जमीन को देती है दूसरे हाथ से उसकी मिट्टी और खनिज सम्पदा को बहा कर समुद्र में धकेल जाती है। धरती यदि वर्षा के अनुदानों को सौभाग्य मानती होगी तो सुखी रहती रहेगी और यदि उसने उपकार वाले पक्ष को प्रधानता दी तो फिर उसका रोना कल्पना बन्द नहीं हो सकेगा।

सुखी मनुष्य वह है जो अपनी वर्तमान उपलब्धियों पर सन्तोष करके ईश्वर को धन्यवाद देता है और साथ ही अधिक पाने तथा अधिक बढ़ने के लिए खिलाड़ी जैसे प्रयत्न जारी रखता है। कौन ऐसा है जिसे सदा सफलता ही मिलती हो? कौन ऐसा है जिसे प्रियजनों का विछोह न सहना पड़ा हो। किस की सब मनोकामनाएँ पूरी हो सकी है? चैन की जिन्दगी किसने काटी है? जीवन का स्वरूप ही ऐसा है कि उसमें खोने और पाने का सिलसिला चलता बने। अगला कदम आगे बढ़ता है तो पीछे वाला अपनी जगह खाली करता है। इसे खोने और पाने की ही गति कहते हैं। लम्बी मंजिलें इसी तरह पूरी होती हैं। जिसे पाने की खुशी मनाने की आदत नहीं-जो गया उसी पर पश्चाताप करना जिसे आता है, वह प्रगति के हर कदम पर अपेक्षाकृत खिन्न ही होता चला जाएगा ।

भविष्य के गर्भ में क्या है? कौन जानता है? विपत्ति के पहाड़ टूट सकते हैं और सफलताओं के सुख साधन भी जुट सकते हैं। जब सब कुछ अनिश्चित ही है तो भयानक विभीषिकाओं की कल्पना करके उद्विग्न रहने की क्या आवश्यकता? फिर सुखद सम्भावनाओं के सपने गढ़ने में ही क्या हानि है? उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशावान् रहना, यही है सुख का सबसे बड़ा स्त्रोत। वर्तमान की समीक्षा करते समय यदि उसे करोड़ों से अच्छा अनुभव कर सके तो वह यथार्थता ही सदा मुसकान बनाये रह सकती है। इसके विपरीत यदि सर्वतोमुखी होने पर शान्ति पाने के लिए आकुल रहेंगे तो खिन्नता और उद्विग्नता के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगेगा।

कुरूपता से तुलना करने पर ही सौंदर्य की उत्कृष्टता प्रकट होती है। सर्दी के कारण ही गर्मी की-महत्ता का बोध होता है, अभावों के कारण भावों का सुख मिलता है। रात्रि से तुलना करने पर दिन का आनन्द मिलता है। विछोह के कष्ट की अनुभूति ही मिलन को सरस बनाती है। असफलताओं की स्मृति में ही सफलता के महत्व का पता चलता है। यदि प्रतिकूलता और अनुकूलता में से एक ही रह जाय तो फिर यहाँ सरसता और आनन्द जैसी कोई वस्तु शेष न रह जायगी।

श्रेष्ठता के प्रति श्रद्धा रखें, प्रगति की आशा करें, प्रभात की कल्पना करें, उज्ज्वल भविष्य पर विश्वास रखें तो ही जीवन को सुखी बनाने वाली किरणें उमंगों को जीवित रख सकेंगी। निराशा तो मृत्यु है। वर्तमान को दुःखपूर्ण और भविष्य को अंधकारयुक्त मानकर हम केवल दुःख पाते हैं, विनाश को न्यौता देते हैं और आग्रहपूर्वक अकाल मृत्यु के मुख में घुसते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles