जीवन श्रद्धा और शालीनता युक्त जियें!

December 1977

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हमारे चिन्तन में गहराई हो, साथ ही श्रद्धा युक्त नम्रता भी। अन्तरात्मा में दिव्य-प्रकाश की ज्योति जलती रहे। उसमें प्रखरता और पवित्रता भरी रहे तो पर्याप्त है। पूजा के दीपक इसी प्रकार टिमटिमाते हैं। आवश्यक नहीं कि उनका प्रकाश बहुत दूर तक फैले। छोटे से क्षेत्र में पुनीत आलोक जीवित रखा जा सके तो वह पर्याप्त है।

अल्बर्ट श्वाइत्जर कहते थे- आदर्शों को चरितार्थ करने के लिए मुहूर्त की प्रतीक्षा आवश्यक नहीं। उसके लिए सदा सुअवसर है। वह अभी भी है और कभी भी। सबसे अच्छा समय है जब परिस्थितियाँ सर्वथा प्रतिकूल जा रही हों।

हम आकाश में बिखरी सुविस्तृत महानता को देखें। साथ ही समुद्र जैसी गहराइयों को भी। मनुष्य इन सबसे बड़ा है उसका वजन पर्वत से भारी है। पर्वत बेजान है और आदमी जानदार। संसार को बनाया तो भगवान ने है, पर उसे सुधारा और सँभाला आदमी ने है। इस पृथ्वी की शोभा, सज्जा और उपयोगिता आज जिस रूप में दिख पड़ती है वैसी पहले नहीं थी। यह आदमी की सूझ बूझ और मेहनत है, जिसने इतने प्रभावशाली परिवर्तन प्रस्तुत किये और प्रगति के चरण उठाये हैं। इतने पर भी ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि वही जेलखानों और पागलखानों में भी बन्द है। कुकृत्यों से वही सृष्टा की इस कलाकृति, मानवीय काया को कलंकित करने में भी पीछे नहीं है। अपने आपको तो पूरी तरह नष्ट कर सकता है, साथ ही दूसरों को भी क्षति पहुँचा सकता है।

जीवन का सम्मान ही आचार शास्त्र है। अनीति ही जीवन को नष्ट करती है। मूर्खता और लापरवाही से तो उसका अपव्यय भर होता है। बुरी तो बर्बादी भी है, पर विनाश तो पूरी विपत्ति है। बर्बादी के बाद तो सुधरने के लिए कुछ बच भी जाता है पर विनाश के साथ तो आशा भी समाप्त होती है। अनीति अपनाने से बढ़ कर जीवन का तिरस्कार और कुछ हो नहीं सकता। पाप अनेकों हैं उनमें प्रायः आर्थिक अनाचार और शरीर को क्षति पहुँचाने जैसी घटनाएँ ही प्रधान होती हैं। इनमें सबसे बड़ा पातक जीवन का तिरस्कार है। अनीति अपना कर हम उसे क्षतिग्रस्त, कुण्ठित, हेय और अप्रमाणिक बनाते हैं। दूसरों को हानि पहुँचाना जितनी बुरी बात है- दूसरों के ऊपर पतन और पराभव थोपना जितना निन्दनीय है उससे कम पातक यह भी नहीं है कि हम अपने जीवन का गला अपने हाथों घोटे और उसे कुत्सित, कुण्ठित, वांछित, अपंगों एवं तिरस्कृत स्तर का ऐसा बना दें जा मरण से भी अधिक कष्टदायक हो।

अन्तरात्मा में यदि किसी दिव्यवाणी को सुनने की शक्ति हो तो अपने भीतर बैठा हुआ कोई ‘नैतिक’ यह कहते हुए पाया जाएगा कि जो सुख साधन समाज के अनुग्रह से मिले हैं उन्हें लूट का माल न समझा जाय। ऋण माना जाय और उसका प्रतिदान चुकाया जाय। अपने पास जो स्वस्थता, शिक्षा, प्रतिभा, योग्यता, सुविधा, सम्पदा, प्रतिष्ठा उपलब्ध है वह अनेकों ज्ञात एवं अज्ञात, जीवित एवं दिवंगत-मनुष्यों के सहयोग से ही सम्भव हुई है। उसे ऐसे हजम नहीं कर जाना चाहिए और न परिवार वालों के लिए यह सब कुछ संग्रह करके रखना चाहिए। इसमें अन्यों को भी हिस्सेदार बनाया जाय- विशेषतया जो अपने पैरों दूर तक चल नहीं सकते, जिन्हें किसी की सहायता की अपेक्षा है, यदि इस आत्मा की पुकार को न सुना जाय तो उसका प्रतिफल यह होगा कि ऋणग्रस्तों की तरह अपना अन्तःकरण भारी होता चला जाएगा और उस उल्लास की अनुभूति न हो सकेगी जो जीवन देवता के अनुग्रह से हर घड़ी होती रहनी चाहिए। मनुष्य की मूलसत्ता सहयोग परायण और सृजनात्मक है, इन्हीं दो मूल प्रवृत्तियों को प्रगति का आधारभूत कारण कह सकते हैं। अन्यथा शारीरिक दृष्टि से अन्य कितने ही प्राणियों की तुलना में उसका पिछड़ापन स्पष्ट है। मानसिक विकास सहकारिता का परिणाम है, अन्यथा चतुरता और कुशलता की दृष्टि से सहस्रों जातियों के प्राणी उससे आगे हैं और कितनी ही क्षमताओं में बाजी मारते हैं

सहकारिता की प्रवृत्ति ने मिल-जुलकर कबीले बनाये, परिवार बसाए, समाज की संरचना की, उत्पादन बढ़ाया, अर्थ तन्त्र खड़ा किया और शासन की स्थापना की। सुरक्षा, कृषि, उद्योग, शिक्षा, संस्कार आदि कितनी ही गतिविधियों का सृजन संचालन हुआ। ज्ञान-विज्ञान के अनेकों स्त्रोत उभरे और उपार्जन के अनेकों स्त्रोत उभरे, विनोद कला, धर्म, अध्यात्म, भाषा, साहित्य आदि को सहकारिता का ही अनुदान कहा जा सकता है।

सृजन की वैसी सुविकसित प्रवृत्ति, और किसी प्राणी में नहीं पाई जाती जैसी कि मनुष्य में। अन्य प्राणी अपने निवास स्थल का निमार्ण करने भर की सीमा में इस प्रवृत्ति का यत्किंचित् परिचय दे पाते हैं, किन्तु मनुष्य ने शरीर सुविधा से आगे आगे बढ़ कर अनेकों प्रकार के सृजन प्रस्तुत किये हैं। भाषा, साहित्य, संगीत कला, जैसे कार्य ऐसे नहीं हैं जिनके बिना उसका दैनिक निर्वाह सम्पन्न हो सके। विज्ञान के छोटे-बड़े आविष्कार, शोध प्रयोजनों में संलग्न रह कर उसने प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों को खोज निकाला है और थल से आगे बढ़ कर जल में-आकाश में अपनी गति बनाई है। आदिम काल की ऊबड़ खाबड़ धरती आज सुरम्य उद्यान की तरह सजी पड़ी है। प्रकृति के सौंदर्य को निखारने और उसे कामधेनु की तरह अनेकानेक अनुदान देने की वर्तमान स्थिति तक पहुँचाने में मानवी श्रम एवं कौशल का ही नियोजन हुआ है। उद्योग, व्यवसाय, समाज, शासन, शिक्षा, कला, विज्ञान, संचार, वाहन जैसे अनेकों ऐसे क्षेत्र प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचे हैं जिनका आदिम काल में अता-पता भी नहीं था। तब इनकी कल्पना तक सम्भव नहीं थी। यह सब मानवी सृजन शक्ति का चमत्कार ही कहा जा सकता है।

सहयोग और सृजन के आधार पर साधनों की असीम अभिवृद्धि हुई। वे इतने समर्थ हैं कि जहाँ भी उनका उपयोग किया जाएगा वहीं चमत्कार उत्पन्न होगा, इस तथ्य को समझाते हुए हमें इस निर्णय पर पहुँचना चाहिए। इन्हें मात्र साधन संवर्द्धन तक सीमित न रखकर उस क्षेत्र के लिए भी प्रयुक्त किया जाय तो सुख-शान्ति का वास्तविक आधार है। मनुष्य साधन नहीं, साधन तो उसकी सुविधा के लिए प्रयुक्त होते हैं। सुविधाओं का जो उपयोग करता है वह चेतन ही मनुष्य की मूल सत्ता है। इसे सुविकसित बनाये रहने के लिए कुछ ऐसी आधारभूत आवश्यकताएँ हैं जिनकी पूर्ति होनी ही चाहिए, अन्यथा साधनों का सदुपयोग होने के स्थान पर दुरुपयोग होने लगेगा और सम्पत्ति संवर्द्धन के लिए किया गया श्रम उलटा शोक-सन्ताप उत्पन्न करने लगेगा। चेतना का स्तर परिष्कृत करने का तात्पर्य है मनुष्य की आस्थाओं, आकांक्षाओं एवं विचारणाओं को उत्कृष्टता के आदर्शों के साथ जोड़ देना। इस विकास के सहारे ही उसकी दिशाधारा बनती है।

‘द् कन्सट्रक्शन आफ ह्यूमिनिटी’ के लेखक विचारक पितिरिम सोरोकिन ने लिखा है- जन चेतना का प्रवाह जिस दिशा में बह रह है उसे उलटना अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य की स्वार्थान्धता उसे उन नैतिक मूल्यों से विरत कर रही है जिनके कारण व्यक्ति का सुसंस्कृत और समाज का समुन्नत बने रह सकना संभव हुआ है। नैतिक मूल्यों को गवाँ देने के उपरान्त प्रस्तुत साधनों का सदुपयोग सम्भव न हो सकेगा। वैभव विपत्ति उत्पन्न करेगा। बढ़ी हुई बुद्धि भ्रम और अनाचार फैलाने के काम आयेगी। विलास और अहंकार द्वारा विनिर्मित वातावरण ऐसा होगा जिसमें पशुता भर जीवित रह सकती है, मनुष्यता का तो दम ही घुट जायेगा।

दार्शनिक वर्टेरड रसेल इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मनुष्य के चिन्तन और रुझान में आमूल-चूल परिवर्तन होना चाहिए। प्रचलित मान्यताओं में बहुत थोड़ी ऐसी बच गई हैं जिनमें बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए प्रगति में सहायक और शान्ति की संरक्षक कहा जा सके। यदि इस पुनर्निर्माण की ओर ध्यान न दिया गया तो वैयक्तिक विद्वेष और सामाजिक कलह बढ़ते ही चले जाएँगे। इन अवांछनीयताओं की अभिवृद्धि से विनाश ही प्रस्तुत होगा। बढ़े हुए सुख साधनों से भी पतन की दुःखदायी प्रतिक्रिया को रोका न जा सकेगा।

पुनर्निर्माण का अर्थ है- चिन्तन और रुझान का परिवर्तन। अनौचित्य के परित्याग और औचित्य को स्वीकार करने का नये सिरे से साहस भरा प्रयास। अपराध और अनाचार का वातावरण बनाने वाली बुद्धि के लिए क्या यह सम्भव नहीं कि वह अपनी गतिविधियाँ सुधारे जो मनोयोग तथा श्रम प्रयत्न को उन कामों में लगाये जिनमें वैचारिक श्रेष्ठता और व्यावहारिक शालीनता का अभ्यास प्रयोग के आने लगे। जिस प्रकार आज एक दूसरे से निष्कृष्टता का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं उसी तरह बदली हुई परिस्थितियों में एक दूसरों की सद्भावना का भी अनुकरण करने के लिए उत्साह ग्रहण कर सकते हैं। भुखमरी, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा एवं पिछड़ेपन से ग्रसित असंख्य मानवों में सुयोग्य एवं सम्पन्न व्यक्तियों की सहायता पग पग पर चाहिए। क्या सृजन और सहयोग का द्वार उनके लिए नहीं खुल सकता।

आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को इस बात का बोध कराया जाय कि उसकी क्षमताएँ निर्वाह के साधन जुटाने तक सीमित नहीं हैं। उसमें सृजनात्मक सामर्थ्य के अकूट भण्डार भरे पड़े हैं। उन्हें प्रसुप्त से जागृत स्थिति में लाना है। बिखराव को समेटना है और अस्तव्यस्तता को क्रमबद्ध बनाना है। सुख की आकांक्षा स्वाभाविक है, पर उसकी उपलब्धि का स्तर उठना चाहिए। हममें इन्द्रिय तृप्ति, संग्रह की कृपणता और दूसरों को छोटा सिद्ध करके बड़प्पन पाने की अहंता, यही हैं वे अभिलाषाएँ जिन्हें पूरा करने में सुखानुभूति मिलने की बात सोची जाती है। सोचने का स्तर ऊँचा उठाया जा सके तो दृष्टिकोण में आदर्शवादी उत्कृष्टता समन्वित करने का गौरव अनुभव किया जा सकता है। यह सन्तोषजनक भी होगा और दूसरों का भाव भरा सहयोग प्राप्त करने में समर्थ भी। दृष्टिकोण में इस प्रकार का परिवर्तन हो सके तो सुख के लिए प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी, वरन् प्रस्तुत स्थिति में ही तत्काल आनन्दानुभूति की मात्रा बढ़ती दिखाई देगी।

सबसे बड़ी बात है सृजनात्मक चिन्तन। जीवन को और उसके संपर्क क्षेत्र को अधिक समुन्नत बनाने वाले प्रयासों एवं साधनों का अभिवर्धन। मानवी गतिविधियों का प्रवाह यदि अपव्यय से हटाकर सृजन में नियोजित किया सके तो समय की कुरूपता को भविष्य के स्वर्गीय सौंदर्य में बदल देना सहज सम्भव हो सकता है।


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