कर्म की जगमग जले मशाल

April 1961

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

(श्री सरस्वती कुमार “दीपक”)

कर्म की जगमग जले मशाल

एक दिए से जले दूसरा, सजे आरती थाल।

मानवता का यही धर्म है,

शान्ति, सुखों का यही मर्म है,

जो कि रमा करता जीवन में

वही भूमि का सत्य कर्म है,

हाथ साथ होकर कर देते, दूर दूर जंजाल।

कर्म सजाता सुन्दर खेती,

कुन्दन बन जाती है रेती,

अगर न हम मिट्टी से मिलते

मिट्टी कभी न महिमा देती,

किरणों की किन्नरियाँ पहना देती हैं वरमा

पर्वत झुक कर शीश झुकाते,

सागर, पग पखारने खाते,

हाथ बाँध कर बाँध नीर के

धरती का शृंगार सजाते-कन-कन में नव जीवन जागे, बजे कर्म करताल।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: