सेवा का सबसे बड़ा अधिकारी-हमारा मन

April 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सेवाओं में, समझाने की सेवा सबसे बड़ी मानी गई है। ब्राह्मण ने इसी सेवा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया इसलिए वह सब वर्णों में श्रेष्ठ सब का पूज्य माना गया। किसी को धन या कुछ वस्तुएँ दे देने का लाभ थोड़ी ही देर सुख पहुँचाता है, पर यदि कोई समझाने से समझ जाय, कुमार्ग छोड़कर सुमार्ग पर चलने लगे तो उसके सुखद सत्परिणामों की अत्यन्त विशाल सम्भावना बन जाती है।

सेवा का सबसे बड़ा अधिकारी हमारा अपना आपा-अपना मन ही है। वह भी वाल्मीकि से कम नहीं है। यदि हम नारद बन कर उसे समझ लेते है तो आज जो अपनी घटिया दर्जे की स्थिति है वह नहीं रहेगी। उससे निश्चित रूप से परिवर्तन होगा। महानता उपलब्ध होगी जिसके फलस्वरूप अपना अन्तःकरण सुख शान्ति से भर जाएगा, शत्रु मित्र बनेंगे असहयोग करने वाले सहयोगी बनेंगे उपेक्षा की दृष्टि से देखने वालों की आँखों से प्रेम और श्रद्धा चमकने लगेगी। अपना स्वभाव ऐसा मधुर होगा कि हर कोई संपर्क में आने की, लिपटने की कोशिश करेगा। कार्य ऐसे होंगे जिनसे अपना मान और महत्व सर्व साधारण की दृष्टि में दिन-रात बढ़ता ही चलेगा।

सेवा धर्म की उपयोगिता और आवश्यकता स्वीकार कर लेने के बाद यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सेवा किस की करें”? मन में विश्व हित की, लोक कल्याण की, जनता जनार्दन की सेवा करने की भावना तो होनी चाहिए, पर उसका कार्य क्षेत्र एक नियत मर्यादा में ही होना चाहिए। अन्यथा बिना विवेक की सेवा का लाभ कुपात्र उठावेंगे अथवा ऊसर में बीज बोने की तरह शक्ति का अपव्यय होगा।

सेवा करते समय सत्पात्र का ध्यान रखना आवश्यक है। अपने से पिछड़े, समीपवर्ती, सम्बद्ध और विश्वास करने वालों की ही विचारात्मक सेवा हो सकना संभव है। ऐसे कितने ही व्यक्ति हो सकते हैं जो उपरोक्त कसौटियों पर ठीक उतरें। उन सब की भी यथा शक्ति सेवा आरम्भ करनी चाहिए पर अच्छा परीक्षण के लिए किसी एक को चुनें और उसके साथ पूरा श्रम करके यह देखें कि हमारी सेवा भावना और सेवा शक्ति कितनी सफल हो सकी? हमने अपने प्रयत्न का कितनी तत्परता के साथ किया और उसका क्या परिणाम निकला?

इस दृष्टि से हमारा अपना मन ही सेवा का सबसे बड़ा अधिकारी हो सकता है। जीवात्मा से वह छोटा भी है, संबद्ध भी है। समीप भी है और विश्वासपात्र भी है फिर उसी को क्यों न अपना सेवा भाजन बनावें”? यह सोचना ठीक नहीं कि उपकार तो दूसरों का होता है, अपना उपकार करना तो स्वार्थ होगा, उसे क्यों करें? बात ऐसी है कि-इस संसार में सभी अपने या सभी बिराने है। सब में अपना ही आत्मा समाया हुआ है इसलिए कोई भी बिराना नहीं, यदि बिराना ही मानते हो तो मन भी अपना कहाँ है? वही अपने कहने में कब चलता है? उसका व्यवहार भी मित्र जैसा कब है? दुष्ट साथी और विश्वासघाती नौकर की तरह वह हमें क्या कम दुःख देता है? जब अन्य दुष्टों को सुधारने की बात सोची जाती है तो अपने इस चौबीस घण्टे के साथी की ही उपेक्षा क्यों की जाय? जब दूसरों के बेटों को उपदेश देने की योजना है तो अपने बेटों को भी वैसे उपदेश करने में क्या दोष है? जब सारे नारी समाज को उद्धार करने की इच्छा हो तो अपनी पत्नी को नारी समाज से बाहर समझ कर उसकी उपेक्षा क्यों की जाय?

जीवन के उत्थान एवं पतन का केन्द्र मन है। यह मन जिधर चलता है, जिधर इच्छा ओर आकांक्षा करता है उधर ही उसकी अपनी एक दुनिया बन कर खड़ी हो जाती है। उसमें ऐसा अद्भुत आकर्षण एवं चुम्बकत्व है कि जिससे खिंचती हुई संसार की वैसी ही वस्तुएँ, घटनाएँ साधन सामग्री मानवी एवं देवी सहायता एकत्रित हो जाती है जैसी कि उसने इच्छा एवं कामना की थी। कल्पवृक्ष की उपमा मन की ही दी गई है। पृथ्वी का कल्पवृक्ष यही है। उसमें ईश्वर ने वह शक्ति विशाल परिमाण में भर दी है कि जैसा मनोरथ करे वैसे ही साधन जुट जाएँ और उसी पथ पर प्रगति होने लगे। मन को ही कामधेनु कहा गया है। वही कामना भी करता है और वही उनकी पूर्ति के साधन भी जुटा लेता है।

यदि सेवा ही करनी है तो इस कामधेनु की ही क्यों न करें, यदि पूजन और मंचन करना है तो इस कल्पवृक्ष का ही क्यों न करें जिससे हमारा अपना अभीष्ट सिद्ध हो और साथ ही संसार का भी सब प्रकार से कल्याण होने का योग बने। मन की अद्भुत शक्तियों का जितना-जितना पता चलता है उतना ही मनुष्य आश्चर्य चकित होता जाता है। मनोबल और उसकी इच्छा शक्ति के चमत्कार को जिनने देखा है, सुना है और समझा है वे जानते हैं कि हाड़ माँस का इस ठठरा में छिपा हुआ एक प्रचण्ड बेताल के रूप में यह मन ही बैठा रहता है। यह पैशाचिक कुकृत्य भी कर सकता है, स्वर्ग जैसे नन्दन बन की रचना कर सकता है और कुम्भकरण की तरह पड़ा-पड़ा जीवन क्षणों को बर्बाद भी करता रह सकता है। और देवताओं की पूजा फल दे न दे यह संदिग्ध है पर मन का देवता प्रत्यक्ष हैं। इसकी आराधना कभी निष्फल नहीं जाती। यह तुरन्त फल देता है। गाय की दिन में ठीक तरह सेवा करने से शाम को ही दूध की देगची भर देती है, यह मन की कामधेनु उससे भी अधिक उदार और निश्चित फलदायिनी है। गाय की सेवा कभी निष्फल भी हो सकती है पर इस कामधेनु का प्रत्युपकार तो निश्चित है।

यदि हम अपने आप की अपने मन की सेवा करने लगें तो सेवा का सत्परिणाम देखने के लिए परलोक की, अगले जन्म की प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी वरन नकद धर्म की तरह “इस हाथ दे उस हाथ ले” की उक्ति प्रत्यक्ष चरितार्थ होती दिखाई देगी। संसार के महापुरुषों के जीवन पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से पता चलता है कि परिस्थितियों साधनों एवं योग्यताओं की दृष्टि से वे आरम्भ में बहुत पिछड़े हुए ही थे। उनकी जन्म जाति या साँसारिक स्थिति लगभग वैसी ही थी जैसी औसत दर्जे के लोगों की होती है। उनमें एक ही विशेषता थी-मनोबल की प्रखरता” इसी बल के आधार पर उन्होंने इतने बड़े कार्य सम्पन्न कर डाले जिन्हें देखने से हैरत होती है।

इन पंक्तियों में विश्व की उन असंख्य घटनाओं के उल्लेख करने का अवसर नहीं है जिनमें साधारण स्थिति के व्यक्तियों ने अपने प्रकट मनोबल और प्रबल पुरुषार्थ के बल पर अनहोनी जैसी बातों को संभव करके दिखा दिया। पुराणों और इतिहासों के पन्ने-पन्ने पर ऐसी गाथाएँ हमें पढ़ने को मिल सकती हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति की महानता उसे उपलब्ध साधनों या परिस्थितियों में नहीं वरन् उसके मनोबल में सन्निहित है। जब जिसका मनोबल जितनी मात्रा में विकसित हुआ है तब उसने अपने क्षेत्र में उतनी ही अद्भुत सफलताएँ प्राप्त करके अपने उन साथियों को आश्चर्य में डाला है जो परिस्थितियों का रोना रोकर अपनी काहिली पर पर्दा डालने की कोशिश किया करते हैं।

मन को कल्पवृक्ष कहा गया है और इस पर चार फल-धर्म अर्थ काम मोक्ष-लगते हैं, ऐसा बताया गया है। दूसरों की सेवा करने से केवल धर्म ही प्राप्त हो सकता है, पर अपनी, अपने मन की सेवा करने से जब वह सुधर जाता है, सन्मार्ग पर चलने लगता है तो धर्म लाभ के अनेकों अवसर तो प्राप्त होते ही हैं साथ ही जीवन की प्रत्येक दिशा में उन्नति एवं सफलता का द्वार खुल जाता है और सब ओर से आनन्द तथा प्रसन्नता-जनक परिस्थितियाँ उपजती दिखाई देने लगती हैं। ऐसी स्थिति में बुद्धिमत्ता इसी में दिखाई पड़ती है कि पहले अपनी सेवा करने के लिए ही कटिबद्ध हुआ जाय।

यदि किसी का लक्ष पुण्य परमार्थ नहीं है, केवल स्वार्थ साधन ही अभीष्ट है तो उसे सेवाधर्म अरुचिकर एवं हानिकारक दिखाई देगा। अपनी शक्ति उसमें खर्च करते समय उसे संकोच एवं दुःख लगेगा पर अपनी सेवा करने में उसे वैसी कठिनाई न होगी। भौतिक जीवन की उन्नति के लिए मन का सधा हुआ होना आवश्यक है। यदि वह अव्यवस्थित असंयमित है तो कोई लौकिक सफलता भी न मिल सकेगी। इसलिए लौकिक सुख, सम्पत्ति चाहने वाले व्यक्ति को भी यह लाभदायक प्रतीत होगा कि मनोनिग्रह की दिशा में, आत्म निर्माण की दिशा में कुछ प्रयत्न किया जाय।

जिसका मन बेकाबू है उसका साँसारिक जीवन असफल एवं दुःखमय ही रहता है। चटोरी जीभ वाला व्यक्ति जिसका मन हर घड़ी स्वादिष्ट पदार्थों को अधिक मात्रा में खाने के लिए ललचाता रहता, वह अपनी इस बुरी आदत के कारण ही अपनी पाचनशक्ति को खो बैठता है, और पेट खराब हो जाने पर नाना प्रकार के रोग उसे घेर लेते हैं। काम वासना की लिप्सा जिसके मन पर चढ़ी रहती है वह सोते जागते अपने जीवन रस को वे हिसाब निचोड़ता रहता है और अन्त में भीतर से खोखला होकर असमय में ही जरा जीर्णता और अकालमृत्यु का ग्रास बन जाता है। जिसका मन पढ़ने में नहीं लगता वह विद्यार्थी भला किस प्रकार विद्वान् हो सकेगा? जिस व्यापारी का चित्त अपने व्यवसाय की बारीकियों पर नहीं जमता, उछला उछला फिरता है, उससे पग-पग पर भूलें होती रहेंगी, और असावधानी की, विस्मृति की उपेक्षा की मात्रा बढ़ते रहने से घाटे की दिशा में ही उसका कारोबार चलेगा।

क्या कोई वैज्ञानिक ऐसा हुआ है जिसमें तन्मयता का, चित्त की एकाग्रता का गुण न रहा हो? यदि उसमें ध्यान मग्न होने की विशेषता न रही होती तो वह कदापि कोई महत्त्वपूर्ण खोज न कर सका होता। इंजीनियर, डाक्टर, कलाकार, चित्रकार कवि, साहित्यिक जो कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं उसके पीछे उनका मनोयोग ही काम करता है। राजनीतिज्ञ, दार्शनिक लोकनायक, सेनापति आदि महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों का भार वहन करने वाले वे ही लोग होते हैं, जिनमें दूरदर्शिता होती है, समस्या के हर पहलू को बारी बारीकी से सोच समझ सकते है और यह सब मन के संयमित होने पर ही सम्भव है। ऐसे मनुष्य जिनका चित्त किसी काम पर नहीं जमता, उखड़ा-उखड़ा रहता है कभी किसी काम में सफल नहीं हो पाते, यहाँ तक कि चोरी उठाईगीरी, बेईमानी, व्यभिचार में भी वे कृतकार्य नहीं होते, वहाँ भी पकड़े जाते और बदनामी उठाते हैं।

योग साधना तो महर्षि पतंजलि के शब्दों में “चित्त वृत्तियों का निरोध “मात्र” ही है। योग साधना का सारा कर्मकाण्ड और विधि विधान चित्त निरोध के लिए ही है। ध्यान की तन्मयता से ही भगवान के दर्शन होते हैं। विषय विकारों की ओर से, माया मोह की ओर से चित्त का हटा लेना ही मोक्ष है। मूर्तिपूजा, कीर्तन, भजन पूजन का उद्देश्य भी मन की एकाग्रता ही है। सारी साधनाएँ मन को साधने के लिए ही हैं। भगवान के लिए क्या साधना करनी? वह तो पहले से ही प्राप्त हैं, रोम-रोम में रमा हैं, अनन्त वात्सल्य और असीम करुणा की वर्षा करता हुआ अपना वरद् हस्त पहले से ही हमारे शिर पर रखे हुए है, उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई है। कठिनाई तो मन के कुसंस्कारों की ही है जो आत्मा और परमात्मा के बीच में चट्टान बन कर अड़ा हुआ है। यदि यह कृपा करके अपनी अड़ से पीछे हट जाय तो बस अध्यात्म की सारी सिद्धि करतलगत ही है। मोक्ष और ब्रह्म निर्वाण प्राप्त हुआ हो रखा है। मन के काबू में आते ही सारी सिद्धियाँ मुट्ठी में ही आ जाती है।

मन सचमुच कल्पवृक्ष है। इसकी सेवा करके हम असीम लाभ, और अनन्त पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही इससे सध सकते हैं। लौकिक सुख और पारलौकिक शान्ति की कुँजी हाथ आ सकती है। पर यदि उसे साधा न गया तो वह शैतान की तरह हमारे शिर पर सवार होकर नाना प्रकार के कुकृत्य कराता है, विविध विधि नाच नचाता है। यदि हम इसे वश में नहीं करते तो इसके वश में हमें होना पड़ता है। कहते हैं कि-भूत लोगों को डराता और सताता रहता है पर, यदि कोई तांत्रिक उसे वश में कर लेता है तो फिर उसकी इच्छानुसार नाचता है, जो कुछ करना चाहता है करता है और जो मंगाया जाता है लाकर देता है। सचमुच का भूत किसी को देखना हो तो वह अपने मन के रूप में देख सकता है। असंयमी और मन किसी प्रबल शत्रु से-बेताल ब्रह्म-राक्षस से कम नहीं है, पर यदि उसे साध लिया जाय तो वही परम मित्र बन जाता है, देवता की तरह सहायक सिद्ध होता है।

हजारों मनुष्यों की थोड़ी-थोड़ी सेवा कर देने पर उतना लोकहित नहीं हो सकता जितना अकेले अपने को साध लेने और सुधार लेने से हो सकता है।

इसलिए सेवा का सबसे बड़ा पात्र एवं अधिक हमारा अपना आपा ही है। इसकी सेवा कर समस्त प्राणियों की-सारे विश्व ब्रह्माण्ड की सेवा कर सकते हैं। सेवाधर्म का आरम्भ करने के लिए प्रारंभिक सीढ़ी यही है। अपनी सेवा में की-विश्व मानव की सेवा सन्निहित है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118