आवश्यकताऐं बढ़ाइए नहीं; घटाइए

April 1961

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(श्री रामखेलावन चौधरी)

मनुष्यों के विचारों की उच्चता अधिकाधिक इस बात पर निर्भर है कि वह कहाँ तक अपना जीवन सादगी से व्यतीत करता है। सादगी क्या है, इस बात का पता सुकरात के जीवन से लग सकता है, कहते हैं कि जब वह एथेंस की सड़कों पर चला करता था, साधारण जनों का प्रवृत्त के बिल्कुल विपरीत सुन्दर वस्तुओं से सजी हुई दुकान को देख कर सोचा करता था। कि इन वस्तुओं के “बिन” में कैसे जीवन निर्वाह कर सकता हूँ “यदि कोई वस्तुएँ उसको अपने लिये अत्यन्त आवश्यक जान पड़ता था उन्हें लेने के लिये उसका मन ललचाता, तो वे इस पर विचार करता और इस बात का प्रयत्न करता कि उन्हें बिना लिये हुए वह अपना काम चला लें। इस उद्धरण से जीवन की सादगी का कुछ अनुमान लग सकता है। सुकरात की बात बहुत पुरानी है। कुछ लोग कह सकते है कि उस काल में जीवन इतना जटिल न था, आज की तरह उपयोगी वस्तुओं का निर्माण ही नहीं हुआ था; लोग वैसा जीवन व्यतीत करने के आदी थे और आज मशीनों ने हमको इतनी वस्तुएँ दे दी हैं कि हम उनका प्रयोग कर सकते हैं और करना चाहिए। इस दृष्टि से आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक डा. आइन्स्टीन के जीवनचर्या का उल्लेख हम कर रहें हैं। यह महान वैज्ञानिक जिसने अणु शक्ति की खोज की और नये युग का सूत्र पात किया अत्यन्त सादगी से जीवन व्यतीत करता था। वह अपने बालों को सँवारने, कपड़ों को तहाने या उन पर इस्त्री करने की ओर ध्यान भी नहीं देता था। वास्तविकता यह है कि सादगी महान पुरुषों के जीवन का अभिन्न अंग है।

भौतिकतावाद के इस जमाने में अर्थशास्त्री जीवन की आवश्यकताओं को बढ़ाने पर जोर देते है उनका विचार है कि आवश्यकता मनुष्य को क्रियाशील बनाती है और उसे काम करने की प्रेरणा देती है। नाना प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन अधिक मात्रा में तभी संभव है, जब लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ें। मान लीजिए सभी लोग गेहूँ उबाल कर खाने लगे और उनका अन्य प्रकार के स्वादों का आनन्द लेने की आवश्यकता न रह जाय, तो मसालेदार चटपटे भोज्य पदार्थ जिनके सहारे अनेक व्यवसाय चल रहे है अपने आप नष्ट हो जायेंगे। जब लोगों की आवश्यकताएँ बहुत कम होगी, तो वे अधिक धनार्जन की ओर भी ध्यान न देंगे। इन आर्थिक सिद्धान्तों को लेकर मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाता जा रहा है।, जहाँ इसका यह परिणाम हुआ कि मशीनों का जन्म हुआ और अनेक प्रकार का उत्पादन होने तथा, वहाँ एक परिणाम यह भी हुआ कि मनुष्य का जीवन अत्यधिक दुखी, चिंताग्रस्त और असन्तोषपूर्ण बन गया। कारण यह है कि आवश्यकताओं का बढ़ा लेना सरल है। मनुष्य के चारों ओर नाना प्रकार की सुख-सुविधा देने वाली असंख्य वस्तुएँ है। उनका प्रयोग करके आनन्द लेने की आदत डाल लेने में देर नहीं लगती। परन्तु बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने की सामर्थ्य बढ़ाना इतना सरल नहीं है।

मान लीजिए आप 15 रु0 के किराये के छोटे से मकान में रहते हैं। 50 रु0 के मकान में आपको अधिक सुख-सुविधा होगी और उसमें रहने की आवश्यकता का अनुभव करना सरल है परन्तु 50 रु0 किराया अदा करने की आर्थिक क्षमता बढ़ाना कठिन हैं। यदि आप 500) प्रतिमास के स्तर से रह रहे हैं, तो दो दिन बाद 1000 रु0 प्रतिमास के स्तर पर रहने की आवश्यकता अनुभव करना सरल है परन्तु दो दिन में 1000 रु0 की आय कर लेना असंभव है। और ज्यों ही आप अपनी आवश्यकता बढ़ा लेते हैं, आप अपने लिए दुःख का बीज बो लेते हैं। वास्तव में आज के संसार में आवश्यकता बढ़ा लेने की कोई सीमा नहीं है परन्तु धनार्जन की सीमा है। आवश्यकता के बढ़ने से एक परिणाम यह होता है कि उनकी पूर्ति के लिए मनुष्य अनुचित उपाय अपनाता है। आज हमारे समाज में भ्रष्टाचार, जो कर्तव्यहीनता और घूसखोरी के रूप में बढ़ रहा है, आवश्यकता-वृद्धि का परिणाम हैं। हर एक मनुष्य अपनी बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए घूस लेता है। यदि वह सुकरात की भाँति कम से कम वस्तुओं से जीवन निर्वाह करने लगे तो घूस लेना ही न पड़े।

आवश्यकताओं के विषय में इतना इसलिए लिखना पड़ा है कि कम से कम आवश्यकताएँ रखना सादगी है और अधिक से अधिक आवश्यकताएँ बढ़ाना सादगी से दूर हटना है। जिस मनुष्य की कम आवश्यकताएँ है उसे उन्हें पूरा करने में उत्पादन में लगाने का अवसर मिलेगा। आज हम जब अपने चारों और आँख उठाकर देखते है, तो पता चलता है कि क्या निर्धन, क्या धनी सभी दिन रात दौड़ धूप करते नजर आते हैं दिन भर दफ्तर में काम करने के बाद यदि क्लर्क को टाइप करना आता है तो वह घर पर आते ही व्यक्तिगत टाइप का व्यवसाय करने लगता है, जिससे उसे धन मिले, आय बढ़े ओर उसकी चाय पानी और सिनेमा देखने की आवश्यकताएँ पूरी हो जाएँ। घर की स्त्रियों को भी नौकरी करने के लिए भेजने के पीछे यही भावना है। फल यह हो रहा है कि मनुष्य को पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं मिलता। लोग पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं लेते। एक ओर अधिक से अधिक संख्या में लोग शिक्षित होते जा रहे है परन्तु दूसरी ओर उनकी शिक्षा बेकार चली जाती है क्योंकि चिन्तन मनन की ओर कोई ध्यान नहीं देता। शिक्षित जन केवल साधारण अख़बार, सस्ते विचारों से पूर्ण लेखादि या कहानी उपन्यास पढ़ते है, जिनका उनके चरित्र पर उत्तम प्रभाव नहीं पड़ता। उच्चकोटि का साहित्य, दर्शन, अर्थशास्त्र और नैतिक शास्त्र इसलिए नहीं पढ़ा जाता कि उनके पढ़ने में मानसिक श्रम करना पड़ता है, जब कि अधिकांश शिक्षित जन केवल मनोरंजन के लिए पढ़ते है। बहुत से लोग सैर-सपाटे और शृंगार की सामग्री पर धन व्यय कर देते है परन्तु अपने मानसिक विकास के लिए साल में दस-बारह रुपये भी साहित्य खरीदने में नहीं खर्च करते।

पशु की अपेक्षा मनुष्य इसीलिए श्रेष्ठ माना गया है कि वह स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ की ओर अधिक ध्यान देता है। पशु का क्रिया-कलाप केवल भोजन प्राप्त करने तक सीमित है; उसका जीवन ऐंद्रिक स्तर पर है। इसके विपरीत मनुष्य अपनी इंद्रियों के वशीभूत न होकर आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ना चाहता है। इन्द्रियों के सुख को पाने में समर्थ होने पर भी, वह उन सुखों का त्याग करता है। यदि वह आध्यात्मिकता का परित्याग करके भौतिक सुखों की मृगतृष्णा के पीछे दिन रात दौड़ता फिरता है तो वह पशु ही कहलाने का अधिकारी है। आडम्बरपूर्ण तथा विलासिता के वातावरण से घिरा जीवन पशु का जीवन है और सादा जीवन आध्यात्मिक जीवन का प्रवेश-द्वार है। सादगी को अपनाये बिना आध्यात्मिकता आ ही नहीं सकती। ईसा ने अपने भक्तों को उपदेश देते हुए कहा था कि - ऐ सज्जनों, तुम भगवान और धन के देवता की एक साथ पूजा नहीं करते।” तात्पर्य है कि धन और तद्जन्य विलासिता का त्याग किये बिना भगवान तक, जो विचारों की दुनियाँ में रहता है, पहुँच सकना असम्भव है। सादगी केवल वैरागियों, साधु-सन्तों पादरियों, मौलवियों या कुछ वर्गों के लिए ही आवश्यक नहीं है। सादगी मनुष्य मात्र का प्रथम और प्रमुख गुण है। सच तो यह है कि सादगी मनुष्यता का चरम विकास है जैसा कि हम पहले कह चुके है। यदि आज हम सादगी को अपना लें, तो न केवल व्यक्तिगत जीवन शुद्ध हो सकता है, वरन उससे समाज और राष्ट्र का अपरिमित लाभ होगा। शायद इसी तथ्य को समझकर राष्ट्रपिता गाँधी ने अपने जीवन को सादगी के साँचे में ढाल कर हम भारतीयों के आगे एक अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया था। क्या हम उन का अनुकरण करने को तैयार है?


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