सुनसान के सहचर

April 1961

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(कोई एक)

विश्व समाज की सदस्यता

नित्य की तरह आज भी तीसरे पहर उस सुरम्य बनश्री के अवलोकन के लिए निकला। भ्रमण में जहाँ स्वास्थ्य संतुलन की, व्यायाम की दृष्टि रहती है वहाँ सूनेपन के सहचरों से, इस निर्जन में निवास करने वाले परिजनों से कुशल क्षेम पूछने ओर उनसे मिलकर आनन्द लाभ करने की भावना भी रहती है। अपने आपको मात्र मनुष्य जाति का सदस्य मानने की संकुचित दृष्टि जब विस्तीर्ण होने लगी, तो वृक्ष, वनस्पति, पशु, पक्षी, कटी पतंगों के प्रति भी ममता और आत्मीयता उमड़ी ये परिजन मनुष्य की बोली नहीं बोलते और न उनकी सामाजिक प्रक्रिया ही मनुष्य जैसी है, फिर भी अपनी विचित्रताओं और विशेषताओं के कारण इन मनुष्येत्तर प्राणियों की दुनियाँ भी अपने स्थान पर बहु ही महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार धर्म, जाति, रंग प्रान्त, देश भाषा, भेष आदि के आधार पर मनुष्यों-मनुष्यों के बीच संकुचित साम्प्रदायिकता फैली हुई है, वैसे ही एक संकीर्णता यह भी है कि आत्मा अपने आपको केवल मनुष्य जाति का सदस्य माने। अन्य प्राणियों को अपने से भिन्न जाति का समझे या उन्हें अपने उपयोग की, शोषण की वस्तु समझे। प्रकृति के अगणित पुत्रों में से मनुष्य भी एक है। माना कि उसमें कुछ अपने ढंग से विशेषताएँ है पर अन्य प्रकार की अगणित विशेषताएँ सृष्टि के अन्य जीव जन्तुओं में भी मौजूद हैं और वे भी इतनी बड़ी है कि मनुष्य उन्हें देखते हुये अपने आपको पिछड़ा हुआ ही मानेगा।

आज भ्रमण करते समय यही विचार मन में उठ रहे थे। आरम्भ में इस निर्जन के जो सदस्य जीव जन्तु और वृक्ष वनस्पति तुच्छ लगते थे, महत्त्वहीन प्रतीत होते थे, अब ध्यान पूर्वक देखने से वे भी महान लगने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा कि भले ही मनुष्य को प्रकृति के बुद्धि अधिक दे दी हो पर अन्य अनेकों उपहार उसने अपने इन निर्बुद्धि माने जाने वाले पुत्रों को भी दिये हैं। उन उपहारों को पाकर वे चाहें तो मनुष्य की अपेक्षा अपने आप पर कहीं अधिक गर्व कर सकते हैं।

इस प्रदेश में कितनी ही प्रकार की चिड़ियाँ हैं, जो प्रसन्नता पूर्वक दूर-दूर देशों तक उड़कर जाती है। पर्वतों को लाँघती है। ऋतुओं के अनुसार अपने प्रदेश पंखों से उड़कर ही बदल लेती हैं। क्या मनुष्य को यह उड़ने की विभूति प्राप्त हो सकी है? हवाई जहाज बनाकर उसने एक भौंड़ा-सा प्रयत्न किया तो है पर चिड़ियों के पंखों से उसकी क्या तुलना हो सकती है? अपने आपको सुन्दर बनाने के लिए सजावट की रंग-बिरंगी वस्तुऐं उसने आविष्कृत की हैं पर चित्र विचित्र पंखों वाली, स्वर्ग की अप्सराओं जैसी चिड़ियों ओर तितलियों जैसी रूप सज्जा उसे कहाँ प्राप्त हुई है?

सर्दी से बचने के लिए लोग कितनी तरह के वस्त्रों का उपयोग करते हैं पर रोज ही आँखों के सामने से गुजरने वाले बरड (जंगली भेड़) और रीछों के शरीर पर जमे हुए बालों जैसे गरम ऊनी कीट शायद अब तक किसी मनुष्य की उपलब्ध नहीं हुए। हर छिद्र से हर घड़ी दुर्गन्ध निकालने वाले मनुष्य की हर घड़ी अपने पुष्पों से सुगन्धि बिखरने वाले, लाल-गुलाबों की क्या तुलना हो सकती है? साठ-सत्तर वर्ष में जीर्ण-शीर्ण होकर मर-खप करने वाले मनुष्य की इन अजगरों से क्या तुलना की जाए जो चार सौ वर्ष की आयु को हँसी-खुशी पूरा कर लेते हैं। वट और पीपल के कुछ वृक्ष तो एक हजार वर्ष तक जीवित रहते हैं।

कस्तूरी मृग जो सामने वाले पठार पर छलाँग मानते रहते हैं, किसी भी मनुष्य को दौड़ में परास्त कर सकते हैं। भूरे बाघों के मल युद्ध में क्या कोई मनुष्य जीत सकता है? चींटे की तरह अधिक परिश्रम करने की सामर्थ्य भला आदमी में होगी। शहद की मक्खी की तरह फूलों में से कोन मधु संचय कर सकता है, बिल्ला की तरह रात के घोर अन्धकार में देख सकने वाली दृष्टि किसे प्राप्त है? कुत्तों की तरह घूर शक्ति आधार पर बहुत कुछ पहचान लेने की क्षमता भला किस की होगी? मछली की तरह निरन्तर जल में कौन रह सकता है? हंस के समान नीर-क्षीर विवेक किसे होगा? इन विशेषताओं युक्त प्राणियों को देखते हुये मनुष्य की यह गर्व करना मिथ्या मालूम पड़ता है कि वही संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है।

आज के भ्रमण में रही विचार मन में घूमते रहे कि मनुष्य ही सब कुछ नहीं है, सर्वश्रेष्ठ भी नहीं है, सब को नेता भी नहीं है। उसे बुद्धि बल मिला, सही। उसके आधार पर उसने अपने सुख साधन बढ़ाये यह भी सही है। पर साथ ही यह भी सही है कि उसे पाकर उसने अनर्थ ही किया। सृष्टि के अन्य प्राणी जो उसके भाई ही थे, वह धरती, उनकी भी उनकी माता ही थी, उस पर जीवित रहने, फलने फूलने और स्वाधीन रहने का उन्हें भी अधिकार था ; पर मनुष्य ने सब को पराधीन बना डाला, सब का शोषण किया, सब की सुविधा और स्वतंत्रता को बुरी तरह पददलित कर डाला। पशुओं को जंजीरों से कसकर उससे अत्याधिक श्रम लेने के लिए पैशाचिक उत्पीड़न किया, उनके बच्चों के हक का दूध छीनकर स्वयं पीने लगा, निर्दयता पूर्वक वध करने उनका माँस खाने लगा। पक्षियों और जलचरों के जीवन को भी उसने अपनी स्वाद प्रियता और विलासिता के लिए बुरी तरह नष्ट किया। साँस के लिए, दवाओं के लिए, फैशन के लिए, विनोद के लिए उनके साथ कैसा नृशंस व्यवहार किया है। उस पर विचार करने से दंभी मनुष्य की सारी नैतिकता मिथ्या ही प्रतीत होती है।

जिस प्रदेश में अपनी निर्जन कुटिया है, उसमें पेड़ पौधों के अतिरिक्त, जलचर, थलचर, नभचर जीव जन्तुओं की भी बहुतायत है। जब भ्रमण को निकलते हैं तो अनायास ही उनसे भेंट करने का अवसर मिलता है। आरम्भ के दिनों में वे डरते थे पर अब तो पहचान गये हैं। मुझे अपने कुटुम्ब का ही एक सदस्य मान लिया है। अब न वे मुझ से डरते हैं और न अपने को ही उनसे डर लगता है। दिन-दिन वह समीपता और घनिष्ठता बढ़ती जाती है। लगता है कि इस पृथ्वी पर हर एक महान विश्व मौजूद है। उस विश्व में प्रेम करुणा, मैत्री, सहयोग, सौजन्य, सौन्दर्य शान्ति मनुष्य दूर है। उसने अपनी एक छोटी सी दुनियाँ अलग बना रखी है-मनुष्यों की दुनिया। इस अहंकारी ओर दुष्ट प्राणी ने ज्ञान-विज्ञान की लम्बी-चौड़ी बातें बहुत की हैं। महानता और श्रेष्ठता के धर्म और नैतिकता के लम्बे चौड़े विवेचन किये हैं। पर सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ उसने जो दुर्व्यवहार किया है उससे उस सारे पाखण्ड का पर्दाफाश हो जाता है जो वह अपनी श्रेष्ठता अपने समाज और सदाचार की श्रेष्ठता अपने समाज और सदाचार की श्रेष्ठता बनवाते हुए प्रतिपादित किया करता है।

आज विचार बहुत गहरे उतर गये, रास्ता भूल गया, कितने ही पशु पक्षियों को आँखें भर-भर कर देर तक देखता रहा। वे भी खड़े होकर मेरी विचारधारा का समर्थन करते रहे। मनुष्य ही इस कारण सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी नहीं माना जा सकता कि उसके पास दूसरों की अपेक्षा बुद्धि बल अधिक है। यदि बल की बड़प्पन क चिह्न हो तो दस्यु, सामन्त, असुर, दानव, पिशाच, बेताल, ब्रह्म राक्षस आदि की श्रेष्ठता को मस्तक नवाना पड़ेगा। श्रेष्ठता के चिह्न हैं सत्य, प्रेम, न्याय, शील, संयम, उदारता, त्याग, सौजन्य, विवेक, सौहार्द्र यदि इनका अभाव रहा तो बुद्धि का शस्त्र धारण किये हुए नर-पशु-उन विकराल नख और दाँतों वाले हिंस्र पशुओं से कहीं अधिक भयंकर है। हिंस्र पशु भूखे होने पर ही आक्रमण करते हैं पर यह बुद्धि धारी नर पशु तो तृष्णा और अहंकार के लिये ही भारी दुष्टता और क्रूरता निरन्तर अभियान करता रहा है।

देर बहुत हो गई थी। कुटी पर लौटते-लौटते अँधेरा हो गया। उस अंधेरे में बहुत रात गये तक सोचता रहा कि-मनुष्य की ही भलाई की, उसी की सेना की, उसी के सान्निध्य की, उसी की उन्नति की, बात जो हम सोचते रहते हैं क्या इसमें जातिगत पक्षपात भरा नहीं है, क्या यह संकुचित दृष्टिकोण नहीं है? सद्गुणों की अपेक्षा से मनुष्य को श्रेष्ठ माना जा सकता है, अन्यथा वह अन्य जीव धारियों की तुलना में अधिक दुष्ट ही है। हमारा दृष्टिकोण मनुष्य की समस्याओं तक ही क्यों सीमित रहे? हमारा विवेक मनुष्येत्तर प्राणियों के प्रति आत्मीयता बढ़ाने,उनके सुख दुःख में सम्मिलित होने के लिए अग्रसर क्यों न हो? हम अपने को मानव समाज की अपेक्षा विश्व समाज का एक सदस्य क्यों न मानें?

इन्हीं विचारों में रात बहुत बीत गई। विचारों के तीव्र दबाव में नींद बार-बार लगती खुलती रही। सपने बहुत दिखे। हर स्वप्न में विभिन्न जीवन-जन्तुओं के साथ क्रीड़ा, विनोद, स्नेह संलाप करने के हस्त दिखाई देते रहे। उन सबके निष्कर्ष यही थे कि अपनी चेतना विभिन्न प्राणियों के साथ स्वजन संबंधियों जैसी घनिष्ठता अनुभव कर रही है। आज के सपने बड़े ही आनन्ददायक थे। लगता रहा जैसे एक छोटे क्षेत्र में आगे बढ़कर आत्मा विशाल विस्तृत क्षेत्र में अपना क्रीड़ांगण बनाने के लिए अग्रसर हो रही है। कुछ दिन पहले इस प्रदेश का सुनसान अखरता था पर अब तो सुन-सान जैसी कोई जगह दिखाई ही नहीं पड़ती। सभी जगह तो विनोद करने वाले सहचर मौजूद हैं। वे मनुष्य की तरह भले ही न बोलते हों, उनका परम्पराएँ मानव समाज जैसी भले ही न हों पर इन सदाचारों की भावनाएँ मनुष्य की अपेक्षा हर दृष्टि से उत्कृष्ट ही है। ऐसे क्षेत्र में रहते हुए जी ऊबने का अब कोई कारण प्रतीत नहीं होता।

लक्ष पूर्ति की प्रतीक्षा-

आहार हलका हो जाने से नींद भी कम हो जाती है। फल तो अब दुर्लभ हैं पर शाकों से भी फलों वाली सात्विकता प्राप्त हो सकती है। यदि शाकाहार पर रहा जाए तो साधक के लिए चार पाँच घंटे की नींद पर्याप्त हो जाती है।

जाड़े की रात लम्बी होती है। नींद जल्दी ही पूरी हो गई। आज चित्त कुछ चंचल था। यह साधना कब तक पूरी होगी? पक्ष कब तक प्राप्त होगा? सफलता कब तक मिलेगी? ऐसे-ऐसे विचार उठ रहे थे। विचारों की उलझन भी कैसे विचित्र है, जब उनका जंजाल उमड़ पड़ता है तो शान्ति की नाव डगमगाने लगती है। इस विचार प्रवाह में उन भजन बन पड़ रहा था, न ध्यान लग रहा था। चित्त ऊबने लगा। इस ऊब को मिटाने के लिये कुटिया से निकला और बाहर टहलने लगा। आगे बढ़ने की इच्छा हुई। पैर चल पड़े। शीत तो अधिक था, पर गंगा माता की गोद में बैठने का आकर्षण भी कौन कम मधुर है, जिसके सामने शीत पर रवा हो? तट से लगी हुई एक विशाल शिला जलधारा में काफी भीतर तक घुसी पड़ी थी। अपने बैठने का वही प्रिय स्थल था। कम्बल ओढ़ कर सी पर जा बैठा। आकाश की और देखा तो तारों ने बताया कि अभी दो बजे हैं।

देर तक बैठे रहा तो झपकी आने लगी। गंगा का ‘कलकल हरहर’ शब्द भी मन का एकाग्र करने के लिये ऐसा ही है जैसे शरीर के लिए झूला-पालना बच्चे को झूला पालने में डाल दिया जाए तो शरीर के साथ ही उसे नींद आने लगती है। जिस प्रदेश में इन दिनों यह शरीर है वहाँ का वातावरण इतना सौम्य है कि यह जलधारा का दिव्य कलरव ऐसा लगता है मानों वात्सल्यमयी माता लोरी सुना रही हो। चित्त एकाग्र होने के लिये, यह ध्वनि लहरी, कलरव नादानुसंधान से किसी भी प्रकार कम नहीं है। मन को विश्राम मिला। चित शान्त हो गया। झपकी आने लगी। लेटने को जी चाहा। पेट में घुटने लगाये। कम्बल ने ओढ़ने बिछाने के दोनों काम साध दिये। नींद के हलके हलके झोंके आने आरम्भ हो गये।

लगा कि नीचे पड़ी शिला की आत्मा बोल रही है। उसकी वाणी कम्बल को चीरती हुई, कानों से लेकर हृदय तक प्रवेश करने लगी। मन तंद्रित अवस्था में भी उसे ध्यानपूर्वक सुनने लगा।

शिला की आत्मा बोलो-साधक क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता, जो सिद्धि की बात सोचता है? भगवान के दर्शन से क्या शक्ति भावना में कम रस है? लक्ष प्राप्ति से क्या यात्रा की मंजिल कम आनन्द दायक है? फल से क्या कम का माधुर्य फीका है? मिलने से क्या विरह में कम गुदगुदी है? तू इस तथ्य को समझ। भगवान तो भक्त से श्रोत-प्रोत ही है। उसे मिलने में देरी हो क्या है? जीव को साधना का आनन्द लूटने का अवसर देने के लिए ही उसने अपने को पर्दे में छिपा लिया है और झाँक-झाँक कर देखता रहता है कि मेरा भक्त, भक्ति के आनन्द में सरोवर हो पा रहा है या नहीं? जब वह उस रस में निमग्न हो जाता है तो भगवान भी आकर उसके साथ रास नृत्य करने लगता है। सिद्धि वह है जब भक्त कहता है-मुझे सिद्धि नहीं भक्ति चाहिए। मुझे मिलन की नहीं विरह की अभिलाषा हैं। मुझे सफलता में नहीं कर्म में आनन्द है। मुझे वस्तु नहीं भाव चाहिए।”

शिला की आत्मा आगे भी कहती ही गई। उसने और भी कहा-साधक सामने देख, गंगा अपने प्रियतम से मिलने के लिए कितनी आतुरता पूर्वक दौड़ा जा रही है। उसे इस दौड़ में आनन्द है। समुद्र से मिलने तो उसका कब का हो चुका, पर उसमें उसने रस कहाँ पाया? जो आनन्द प्रयत्न में हैं? भावना में है, आकुलता में है वह मिलन में कहाँ हैं? गंगा उस मिलन से तृप्त नहीं हुई, उसने मिलन प्रयत्न को अनन्त काल तक जारी रखने का व्रत लिया हुआ है। फिर अधीर साधक, तू ही क्या उतावली करता करता है। तेरे लक्ष महान है। महान उद्देश्य के लिए महान् धैर्य चाहिए। बालकों जैसी उतावली का यहाँ क्या प्रयोजन? सिद्धि कब तक मिलेगी यह सोचने में मन लगाने से क्या लाभ?”

शिला की आत्मा बिना रुके कहती ही रही। उसने आत्मा विश्वास पूर्वक कहा-मुझे देख। मैं भी अपनी हस्ती को उस बड़ी हस्ती में मिला देने के लिये यहाँ पड़ी हूँ। अपने इस स्थूल शरीर को-विशाल शिलाखंड को-सूक्ष्म अन्न बनाकर उस महासागर में मिला देने की साधना कर रही हूँ। जल की प्रत्येक लहर से टकरा कर मेरे शरीर के कुछ कण टूटते हैं और वे रजकण बनकर समुद्र की और बह जाते हैं। इस तरह मिलन का बूँद-बूँद स्वाद ले रही हूँ, तिल तिल अपने को घिस रही हूँ। इस प्रकार प्रेमी के प्रति आत्मदान का आनंद कितने अधिक दिन तक लेने का रस ले रही हूँ। यदि उतावले अन्य पत्थरों की तरह बीच जलधारा में पड़कर लुढ़कने लगती तो संभवतः कब की में लक्ष तक पहुँच जाती। पर फिर यह तिल-तिल अपने ही प्रेमी के लिए घिसने का जो आनन्द है उससे तो वंचित ही रह गई होती?”


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