अन्धकार को हटाने के लिए आत्मज्ञान आवश्यक है?

April 1961

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(श्री. सत्यभक्त जी)

उद्यतसह सहस आज्ञनिष्ट

देदिष्ट इन्द्र इन्द्रियाणि विश्वा।

प्राचोदयत्सुदुघा दव्रे अन्तविं,

ज्योतिषा संववृत्वत्तमोऽवः॥

(ऋक् 5-31-3)

“उषा के प्रकाश से जब आदित्य का प्रकाश बढ़ जाता है तब इन्द्र उपासकों को सभी धन देते हैं। वे छिपाने वाले पर्वतों के बीच से दूध देने वाली गायों को बाहर लाते हैं और अपने तेज से सर्वथा व्याप्त अन्धकार को हटा देते हैं।”

इस संसार में समस्त कार्य शक्ति अथवा बल द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। लौकिक-पारलौकिक स्वार्थ-परमार्थ साधारण विशेष कैसा भी कार्य क्यों न हो उसके लिए शक्ति की आवश्यकता होती है। शक्ति अनेक प्रकार की होती है, पर अधिकांश लोग शक्ति का अर्थ शारीरिक बल से ही लेते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि अनेक साँसारिक विषयों में सफलता प्राप्त करने में शारीरिक बल ही प्रधान सिद्ध होता है, पर तो भी बुद्धिमानों ने ज्ञान-बल को सर्वश्रेष्ठ माना है। संसार में पाये जाने वाले प्राणियों में हाथी सबसे बलवान है, पर मनुष्य बुद्धिबल से उसे शीघ्र ही वशीभूत कर लेता है।

ज्ञान भी अनेक प्रकार का है, वर्तमान समय में सार में सबसे बड़ा दर्जा “विज्ञान” का माना जाता है। विज्ञान ने संसार की कायापलट कर दी है और सब प्रकार की शक्तियों को अपने अधीन कर लिया है। कुछ समय पहले लड़ाई में शारीरिक बल प्रधान माना जाता था। युद्ध क्षेत्र में जो जोरों से तलवार, भाला, गदा आदि शस्त्रों का उपयोग कर सकता था, पर अब विज्ञान ने एक के बाद एक नये-नये आविष्कार करके ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि लाखों-करोड़ों हट्टे-कट्टे और पूर्ण रूप से साहसी व्यक्तियों को दो-चार आदमी मिनटों में मार सकते हैं।

पर विज्ञान के इस हद पर पहुँच जाने पर भी मनुष्य में सुरक्षित रहने की भावना बढ़ी नहीं है, वरन् वह पहले से भी कहीं अधिक भयभीत अवस्था को प्राप्त हो गया है। पहले तो जिनके पास पर्याप्त धन होता था, शारीरिक बल होता था अथवा जिनके हाथ में दृढ़ राजनैतिक शक्ति होती थी, वे अपने को थोड़े बहुत समय के लिये सुरक्षित समझ भी लेते थे, पर आज तो छोटे बड़े सब एक ही भय में ग्रस्त है, सभी का जीवन संशय में पड़ा हुआ है।

यह दशा देखकर लोग स्वभावतः इस प्राचीन सत्य को अनुभव करने लगे हैं कि जिस प्रकार सब प्रकार के बलों में ज्ञान-बल बड़ा है उसी प्रकार समस्त ज्ञान बलों में आत्म-ज्ञान रूपी बल सर्वोच्च है। वर्तमान समय में समस्त संसार एटम और हाइड्रोजन बमों के भय से व्याकुल है, इसे देखकर सन्तजन उपदेश दे रहें है कि आत्म-बल अणु-शक्ति से भी बहुत बढ़कर है, अगर तुम इस भय से बचना चाहते हो तो आत्मबल का सहारा लो और उसी को प्राप्त करने को प्रयत्न करो। यह तो स्पष्ट है कि सब प्रकार के बलों का स्त्रोत एक वही परमात्मा है, जिस प्रकार सूर्योदय से अन्धकार मिट जाता है, सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है और अँधेरे में जो अनेक प्रकार के भय लगे रहते हैं वे भी नष्ट हो जाते है, इसी प्रकार परमात्मा का बल प्राप्त होने पर सब प्रकार के डरो का अन्त हो जाता है और मनुष्य समझ लेता है कि मैं आत्म स्वरूप हूँ और संसार की कोई शक्ति मेरा हनन नहीं कर सकती।

जिस प्रकार आत्म-ज्ञान से सब प्रकार की हानि और भय की निवृत्ति होती है उसी प्रकार सब प्रकार के लाभ भी, चाहे वे लौकिक हों या परलौकिक, आत्म ज्ञान की सहायता से ही मिलते है। अज्ञानी अथवा अदूरदर्शी को अगर लौकिक लाभ हो भी जाता हे तो वह उसका कल्याण करने के बजाय अकल्याणकारी ही सिद्ध होता है। वास्तविक सुख और शान्ति का लाभ तो तभी मिलना संभव है जब हम ईश्वर की कृपा से अपने हृदय को आलोकित करके इसीलिये इस मंत्र में कहा गया है कि जब मनुष्य का हृदय आत्म-ज्ञान रूपी प्रकाश (बल से भर जाता है तब इन्द्र (परमात्मा) अन्धकार को मिटाकर दूध देने वाली गायों (गुप्त शक्तियों और कल्याणकारी सामग्रियों) को उपासकों को प्रदान करते हैं। यह ख्याल करना कि आत्म-ज्ञान तो केवल गृह त्यागियों, साधुओं, संन्यासियों से सम्बन्ध रखने वाली चीज है, एक बहुत बड़ी गलती है। गीता में भगवान ने कहा है कि ‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते”। संसार में ज्ञान से बढ़कर पवित्र वस्तु और कोई नहीं है और सच्चा सुख, लाभ, कल्याण पवित्र और शुद्ध अवस्था में ही संभव है। अपवित्र अशुद्ध, गन्दे विचारों वाला व्यक्ति अगर भोग विलास की सामग्री को पाकर अपने को सुखी भी समझ ले, तो वह सुख परिणाम में और भी बड़े दुःख, कष्ट का कारण सिद्ध होगा। ऐसा व्यक्ति किसी उपाय से धन-सम्पत्ति पा जाने पर भी तरह-तरह के दुर्व्यसनों का शिकार हो जाएगा जिससे कालान्तर में उस सम्पत्ति से ही नहीं वरन् अपने शरीर और स्वास्थ्य से भी हाथ धो बैठेगा। अथवा वह अनुचित लोभः लालच, धन लिप्सा में ग्रसित होकर सदैव अधिकाधिक धन की तृष्णा में फँसा रहेगा और उस धन से किसी प्रकार का सुख, आनन्द प्राप्त करने के बजाय उसकी रक्षा, नष्ट हो जाने की चिन्ता में ही समस्त जीवन व्यतीत कर देगा। यह भी न हो तो सम्भव है कि वह धन और वैभव के कारण अहंकार से ऐसा मत्त हो जाय कि दूसरे लोगों को नगण्य समझने लगे, उनके साथ दुर्व्यवहार करने लगे, अन्याय और अत्याचार पर उतारू हो जाय और इस प्रकार बदनाम होकर अन्य लोगों को अपना शत्रु, अहित चिन्तक बना ले। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि केवल धन, वैभव या सामग्री प्राप्त हो जाने से ही मनुष्य कदापि सुखी नहीं हो सकता। उसके लिये आवश्यक है कि हृदय के ऊपर दुर्गुणों का जो आवरण पड़ा है उसे दूर करके ईश्वरीय ज्ञान और सद्गुणों द्वारा उसके अन्धकार को दूर किया जाय और आत्म-ज्ञान के प्रकाश में आगे बढ़ा जाय।

दुनियाँ में ऐसे व्यक्तियों की संख्या भी कम नहीं है जो ज्ञान की आवश्यकता और महत्ता को तो स्वीकार करते है, पर उसके लिये परमात्मा का आश्रय लेना अथवा प्रार्थना करना अनावश्यक समझते है। परिश्रमी शिक्षा से प्रभावित और नास्तिकता की तरफ झुके हुए व्यक्ति प्रायः कहा करते है कि आधुनिक विज्ञान ने ईश्वर की आवश्यकता को ही मिटा दिया है। ऐसे लोगों को अपने ज्ञान पर विशेष अहंकार होता है और वे समझते है कि हम यंत्रों द्वारा संसार में प्रत्येक काम को सिद्ध कर सकते है। इसमें सन्देह नहीं कि आज विज्ञान ने बहुसंख्यक मानवीय कार्यों की यंत्रों द्वारा और भी उत्तमता पूर्वक पूरा करके दिखा दिया हे और चन्द्रमा, मंगल आदि दूसरे लोकों तक पहुँचने की कल्पना को भी संभव कर दिया है, पर इनसे मनुष्यों का कल्याण होता दृष्टिगोचर नहीं होता। उल्टा इन आविष्कारों से विनाश की महा भयंकर संभावना पैदा हो गई है। ईश्वरीय ज्ञान एवं आत्म ज्ञान की विशेषता यही है कि उससे अशुभ नहीं वरन् शुभ परिणाम ही उत्पन्न होते है।


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