अपूर्णता से पूर्णता की ओर

April 1961

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(श्री विद्या ब्रह्मचारी)

यह सब कुछ अपूर्ण हैं विश्व का कण-कण अपूर्णता से पूर्णता की ओर चल रहा है। प्रकृति अपूर्ण है इसलिए उसके परमाणु गतिशील चंचल होकर पूर्णता की खोज से दौड़ रहे है। मानव समाज अपूर्ण है। उसे जो कुछ मिला है उससे उसे अपना काम चलता नहीं दीखता, उसमें उसे सन्तोष नहीं। अपूर्णता में संतोष हो भी कैसे सकता है? इसलिए वह अधिक मात्रा में, अधिक उत्कृष्ट वस्तुएँ, परिस्थितियाँ प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है। आत्मा अपूर्ण है। वह परमात्मा का एक अणु मात्र ही तो है। इतने भर से उसे सन्तोष कैसे हो? वह अन्य सजातियों के साथ मिलकर एक बड़ी इयत्ता बनना चाहता है इसलिए दूसरों को प्रेम करना है। प्रेम के, आत्मीयता के आधार पर ही दूसरों को अपने में मिलाकर अधिक विस्तार की अनुभूति हो सकती है। आत्मा की भूख निरन्तर प्रेम की है। वह प्रेम चाहता है, अधिक विस्तार में, अधिक उच्चकोटि का प्रेम उपलब्ध किस प्रकार हो यही प्यास उसे निरन्तर लगी रहती है। और इस तृष्णा को बुझाने के लिए उससे जो कुछ बन पड़ता है वह निरन्तर करता रहता हैं।

उपनिषदों में परमात्मा को तीन भागों में विभक्त बताया है। एक जगत में, एक मानव समाज में, एक आत्मा में। उसे शान्तम्, शिवम्, अद्वैतम् कहा गया है। इसे प्राप्त करने के लिए ही विश्वव्यापी प्रक्रिया चल रही हैं जगत में जो अशान्ति है चंचलता है, गतिशीलता है वह इसलिए है कि इस मंजिल को पार करे शान्ति रूपी प्रकाश उपलब्ध हो। सूर्य चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, अणु, परमाणु इसी तेजी से दौड़ लगा रहे है। यह कहाँ जाना चाहते है? इनकी यात्रा का लक्ष्य क्या है? निश्चय ही यह अशान्ति-शान्ति की तलाश में चल रही है, जब सृष्टि का लक्ष्य पूर्ण हो जाता है तो प्रत्येक अणु पिण्ड शान्त होकर परब्रह्म में लीन होकर अनंत शान्ति का अनुभव करने लगता हैं। प्रलय काल में यह जगत ऐसी ही शान्ति का अनुभव करता है।

मानव समाज का लक्ष्य विश्व है। शिव अर्थात् कल्याण। मानव समाज का-मानव मनोभूमि का गठन इस प्रकार का है कि इसमें अनेक अभाव, दोष, अमंगल, कष्ट एवं दुःख भरे दीखते है। हर मनुष्य अपनी किसी न किसी समस्या को लेकर दुखी और असन्तुष्ट हैं इन अभावों और असन्तोषी की निवृत्ति के लिए ही वह अपनी मति के अनुसार नाना प्रकार के प्रयत्न करता है। उसे सुख चाहिए अधिक मात्रा में अधिक अच्छा, अधिक टिकाऊ सुख की उपलब्धि के लिए समाज में असाधारण हलचल होती रहती है। उत्पादन, उपभोग, वितरण और विनाश की समस्यायें उलझी रहती है, उन्हें सुलझाने के लिए प्रिय और अप्रिय कर्म और अकर्म होते रहते हैं शिव के रूप में, कल्याण के रूप में, ईश्वरीय प्रकाश समाज में मौजूद है। उसे जब उपलब्ध कर लिया जाता हे तब स्वर्गीय परिस्थितियों का भान होता है, उन्हें पाकर मनुष्य अपने आपको देवता के रूप में अनुभव करता है।

आत्मा के लिए जो प्रकाश प्राप्त करने योग्य है वह है एकता का अद्वैत का। जो आत्मा जितना ही अपने पराये मेरे तेरे के फेर में है, दूसरों को अपने से जितना ही भिन्न मानता है वह उतना ही दुखी हैं उसे उतना ही दूसरों के प्रति भय और संदेह बना रहता है प्रेम का मिलन जितना-जितना बढ़ता जाता है उतने ही वह द्वैत समाप्त होने लगता है, जो अनेक प्रकार की आशंकाओं और उद्वेगों का मूल है। माँ और बेटे में जब आत्मीयता पैदा हो जाती है तो दोनों में से किसी को भय नहीं रहना कि दूसरा मेरा कोई अनिष्ट करेगा। वरन् एक का दुःख दूर कर दूसरे को प्रसन्नता होती है, हिम्मत बँधती है, सन्तोष और सुख प्राप्त होता है। पति यदि अपनी जेब में छुरी या पिस्तौल रखे हुए हो तो उसकी प्रेमिका को उससे जरा भी भय नहीं लगता। कसाई दिनभर जीवों की हत्या करते है पर उनके बच्चे हाथ में छुरा लिए रहने पर भी नहीं डरते। क्योंकि प्रेम का प्रकाश जहाँ फैलता है, वहाँ अविश्वास और भय का अन्धकार ठहर ही कहाँ सकता है।

प्रेम का नाम ही अद्वैत है। इसे ही भक्ति कहते है। ईश्वर को अवलम्ब बनाकर जो भक्ति की जाती है। वह उस ईश्वर तक सीमित नहीं रह सकती जो उपासना की सुविधा के लिए एक प्रतिमा या प्रतीक के रूप में कल्पित की गई थी। पहलवान मुगदर की सहायता से अपनी भुजाओं का बल बढ़ाता है। वह भुज बल जीवन के विस्तृत क्षेत्र में अनेकों प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसा नहीं है कि वह भुज बल केवल उठाने तक ही सीमित रहे। यदि कोई पहलवान भारी मुगदर तो उठा लेता हो पर उसकी भुजाएँ और कुछ पराक्रम करने में असमर्थ हों तो लोग उसे पहलवान नहीं कहेंगे वरन कोई जादूगर समझकर उस मुगदर उठाने वाले की क्रिया में कोई चालाकी होने का सन्देह करने लगेंगे। यही बात प्रेम के संबन्ध में भी है। ईश्वर भक्त अपने प्रेम भाव को बढ़ाने के अभ्यास के रूप में भक्ति की साधना करता है। इसमें जितनी ही सफलता मिलती जाती है उसी अनुपात से आत्मा का प्रेम प्रकाश प्राणि मात्र के ऊपर फैलना आरंभ हो जाता है। उसे सब कोई अपने प्रेमी ही दीखते है, प्रेमी ही नहीं-आत्मीय भी लगते है, फिर उसे सब कुछ अपना ही, अपने में ओत-प्रोत ही दीखने लगता है। यही अद्वैत भाव है वेदान्त सिद्धान्त में आध्यात्मिक पृष्ठ भूमि के आधार पर इसी आत्मीयता और एकता का शिक्षण किया गया हैं, मुक्ति का यही उपाय है। तुच्छता के संकीर्णता के, अनुदारता के, वासना और तृष्णा के, लोभ और मोह के, बन्धन जितने ही शिथिल होते जायेंगे उतनी ही मुक्ति समीप आती जायेगी द्वैत में ही बन्धन और अद्वैत में ही मुक्ति है प्रेम को परमात्मा कहा गया है- रसो वै सः। वह परमात्मा प्रेम स्वरूप है, अपने अन्तःकरण को यदि आत्मा स्वार्थ और मोह से ऊपर उठकर सच्चे प्रेम को अपना ले तो उसके लिए परमात्मा प्रत्यक्ष ही है। उसकी मुक्ति उसके साथ ही है।

जिस प्रकार द्वैत को घटा या मिटाकर आत्मा अद्वैत तत्त्व की प्रेमास्पद परमात्मा की-समीपता का असीम आनन्द इसी जीवन में अनुभव कर सकता है, और जीवन मुक्ति के सुख को प्रत्यक्ष कर सकता है, उसी प्रकार मनुष्य के लिए यह भी यह सरल हे कि वह स्वर्गीय भूमिका में विचरण करने वाले देवत्व से अपने आपको ओत-प्रोत अनुभव करे। दुःखों और अभावों से उत्पन्न होने वाली खिन्नता पर विजय प्राप्त करके ही जीवनयापन क्रम की परेशानी एवं नीरसता को हटाया जा सकता है।

हमें यह मानकर चलना होगा कि दुःख भी मानव जीवन का एक तथ्य है, उससे रहित होकर जी सकना किसी के लिए सम्भव नहीं वह अनिवार्य ही नहीं उपयोगी एवं आवश्यक भी है। सुख की ही तरह वह भी जीवन के विकास क्रम में सहायक होता है। केवल सुख ही सुख प्राप्त हो, तो वह उसकी उपयोगिता भी न समझ सकेगा और वह एक भार मात्र बनकर रह जायेगा पकवान एवं मिष्ठान का आनंद उसे आता हे जिसे रूखी-सूखी रोटियों से भी पाला पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति सदा मिठाई और पकवान ही खाता रहे तो उसके लिए उनमें क्या रस हो सकता है? गरीबी की अनुभूति के साथ धन लाभ का सुख सम्बन्धित है। यदि कोई बालक ऐसे घर में जन्मे जहाँ सोना चाँदी के ढेर जमा रहते हो तो उसे थोड़ा और धन लाभ होने पर क्या प्रसन्नता होगी? यदि धन प्राप्ति के सुख का आस्वादन करना हो तो गरीबी की परिस्थितियों में से गुजरना आवश्यक है।

सफलता में, विजय में, उन्नति में आनंद उपलब्ध हो सके, इसके लिए असफलता, पराजय, अवनति के झकझोरे आवश्यक है। स्वास्थ्य भी परमात्मा को कोई देन है इसे रोगी होने पर ही कोई व्यक्ति भली प्रकार समझ सकता है, अन्यथा एक बलवान आदमी तो अपने निरोग शरीर का कोई मूल्य क्या समझेगा? उसके लिए तो वह एक साधारण सी अनायास प्राप्त हुई तुच्छ सी चीज है। दुःख एक कसौटी है जिस पर कस कर सुखों के मूल्य को समझ सकना सम्भव होता है।

यदि हमारे हाथ में दुःख का पात्र न होता तो परमात्मा की दया भिक्षा हम किस में प्राप्त करते? अपूर्णता यदि न होती, अभाव यदि न रहते तो पराक्रम ओर पुरुषार्थ के जागृत होने का अवसर ही न आता और उसके बिना जीव की उन्नति का क्रम ही रुक जाता। इस विश्व में स्वर्गीय पदार्थों एवं परिस्थितियों की कमी नहीं पर वे प्राप्त उन्हीं को होती है जो उनका मूल्य कष्ट सहन करके चुकाने को तैयार होते है। साधना के द्वारा-तपस्या के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जाता है। विद्या पढ़ने, धन कमाने, बलवान बनने, सुसंस्कृत होने के लिए हर किसी को कष्टसाध्य उपायों का अवलम्बन करना होता है, जो इससे बचना चाहते है वे अपनी पात्रता को सिद्ध नहीं कर पाते और उन दिव्य उपहारों से वंचित रह जाते है जो केवल पराक्रमी विजेताओं के लिए ही सुरक्षित रखे रहते हैं।

अभावों और कष्टों को एक प्रेरक शक्ति एवं उद्दीपन अग्नि के रूप में अपने पुरुषार्थ के लिए उपस्थित हुई चुनौती के रूप में स्वीकार करने की अपेक्षा जो लोग निराश, खिन्न एवं व्यग्र हो जाते है, मानसिक सन्तुलन खो बैठते है और अपने आपको अभागा मानने लगते है वे दुःख के देवता का अपमान करते है। सुख बुखार के दैत्य की तरह है, जो जब उतरता है तो देह थकी माँदी-सी लगती हैं पर दुःख उस राजा की तरह है जो जहाँ ठहरता है वही कुछ न कुछ उपहार देकर जाता हैं संसार के जितने भी महापुरुष हुए है, जिनने भी इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम छोड़ा है, उनमें से हर एक की दुखों की अग्नि में तपना पड़ा है। योगी जन इसे स्वेच्छापूर्वक अंगीकार करते है। अपरिग्रह, तितीक्षा और तपस्या की अग्नि में वे अपने को तपा-तपाकर अधिक उज्ज्वल और प्रकाशवान बनाते चलते है। यदि वे इस मार्ग पर न चलें, विलासी और ऐश आराम का जीवन व्यतीत करें तो निश्चय ही उन्हें उन आध्यात्मिक लाभों से वंचित रहना पड़ेगा जो तपस्वी और योगियों को प्राप्त होते है।

ईश्वरीय प्रकाश की तीनों दिशाओं में हमें ग्रहण करना होगा। अद्वैत भावन का-प्रेम तत्त्व का विस्तार करके आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति होगी। समाज व्यापी अभावों और दुखों को, पराजयों और असफलताओं को, हानि लाभ, मान अपमान, राग द्वेष आदि द्वन्द्वों को एक कटु आवश्यकता के रूप में स्वीकार करना चाहिए उनसे खिन्न होने की अपेक्षा अपने मानसिक एवं बाह्य क्षेत्र में अधिक सावधान होने की प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए। यदि हम दुखों को भी सुख के समान ही जीवन का एक आवश्यक एवं उपयोगी तत्त्व मान लें और उससे मन को गिरने देने की भूल न करें तो हमारा सामाजिक जीवन स्वर्गीय आनंद से परिपूर्ण हो सकता है।

प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ अपनी अपूर्णता दूर करके पूर्णता प्राप्त करने के लिए तीर की तरह दौड़ा जाता है। ऐसी दशा में किसी पदार्थ की, यहाँ तक कि शरीर की भी एक स्थिति में एक आधिपत्य में रहने की आशा कैसे की जा सकती है? यह सभी कुछ दौड़ रहा है, यह सभी कुछ चंचल है। लक्ष्मी को चंचल कहा गया है। रूप, विवेक, धन, यश, ऐश्वर्य, सत्ता, बुद्धि, चातुर्य यह सभी चंचल लक्ष्मी के अंग है। परिवार में परिजन, मित्र और कुटुम्बी, स्त्री और पुत्र, स्वजन और संबंधी इनमें से किसका शरीर, किसका मन कब तक अपने को प्रिय लगने की, स्थिर रहने की स्थिति में रहेगा इसका कोई ठिकाना नहीं। फिर इस दौड़ती हुई रेल के पीछे गले में रस्सी बाँधकर घिसटते चलने से क्या लाभ?

इन तीनों तथ्यों को यदि समझ लिया जाए तो जगत में अशान्त-चंचल स्वभाव से परिचित होकर मोह बन्धनों से छूट सकना हमारे लिए सम्भव हो सकता है। दुखों के डर से जो नारकीय यातनाएँ उठानी पड़ती हैं उन्हें स्वर्गीय परिस्थिति में बदला जा सकता है। द्वैत भावना से उत्पन्न परायेपन कर अज्ञान जो जीव को ईर्ष्या, द्वेष एवं पाप, ताप से जलता रहता है उससे भी निवृत्ति हो सकती हैं।

ईश्वरीय प्रकाश शान्त, शिवम् और अद्वैत है। यदि हम चाहें तो उसे प्राप्त कर सकते हैं और मानव जीवन को धन्य बना सकते है


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