तप द्वारा विश्वहित में संलग्न-पौहारी बाबा

April 1961

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(श्री. भारतीय योगी)

हमारे शास्त्रों में मानव-जीवन का सबसे उच्च उद्देश्य आत्मज्ञान बतलाया है। खाना-पीना सोना-जागना जीना-मरना तो सभी प्राणियों में स्वभावतः पाया जाता है। मनुष्य की विशेषतः यही है कि वह इस प्राकृतिक-जीवन में रहते हुये अन्तर-जीवन को भी विकसित करे। इसी के लिए भजन-पूजन साधन-उपासना आदि की अनेक प्रणालियाँ निकाली गई हैं, जिन के द्वारा मनुष्य को भौतिक जगत की संचालिका आत्मा शक्ति का ज्ञान हो सकता है और वह साधारण साँसारिक भोगों के संकीर्ण जीवन से ऊपर उठकर एक विशाल और उच्च जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करने में समर्थ होता है।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महापुरुषों ने विभिन्न प्रकार की बहुसंख्यक साधन प्रणालियाँ निर्धारित की है। इनमें सबसे प्रसिद्ध योग-साध नहीं बतलाया गया है, पर ‘योग’ की भी सोलह शाखायें हो गई हैं जो एक दूसरे से बहुत भिन्न जान पड़ती है। इनमें से कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग का नाम तो सर्वत्र प्रसिद्ध है, और गीता में भी इनका पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया है। एक ही स्थान पर तीन प्रकार की प्रणालियों का उपदेश होता देखकर अनेक व्यक्ति विवाद करने लगते हैं कि इनमें से किसको अधिक उत्तम अथवा उपयुक्त माना जाय? पर जो मनुष्य इस प्रकार के वादविवाद में न पड़कर सच्चे हृदय से किसी भी प्रणाली का अनुसरण करके उसे अपने जीवन में कार्य रूप में स्थान देने लगता है, उसे कुछ ही समय में अनुभव हो जाता है कि ये सब भेदभाव बाहरी हैं ओर समस्त प्रणालियों का वास्तविक लक्ष्य एक ही है। इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रखकर गीताकार ने कहा है-

कर्मणर्यकर्म यः प्श्येदकर्मणि चकर्म यः। स बुद्धिमान् मनुस्येषु सयुक्तः कृलन क्रमंकृत्॥4॥1॥

अर्थात् ‘जो कर्म में अकर्म (अर्थात् विश्रान्ति या शान्ति) का अनुभव करता है और अकर्म (अर्थात् शान्ति) में कर्म परायण बना रहता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वही योगी है और उसी ने सब कर्म किये हैं।”

पिछले सौ वर्षों में हमारे देश में जिन अनेक उच्चकोटि के महात्माओं का आविर्भाव हुआ है उनमें पौहारी बाबा इसी श्रेणी में थे। उन्होंने किसी विशेष प्रणाली का आग्रह न रखकर साधारण भाव से आत्म-साधन को ही अपना लक्ष्य बनाया। सबसे पहले उनके चाचा लक्ष्मी नारायण ही उनके गुरु बने और वे उनके आश्रम में रहकर विद्याभ्यास और धार्मिक नियमों का पालन करने लगे। फिर जहाँ सुविधा मिली शासकों का अध्ययन करते रहे और पन्द्रह-सोलह वर्ष की अवस्था में इन विषयों के विद्वान हो गये।

इसी समय सन्// 1913 में उनके चाचा का देहान्त हो गया, और उसके स्थान पर इनको मन्दिर और आश्रम की देख-भाल और पूजा-पाठ का भार ग्रहण करना पड़ा। वे कुछ समय तक इस कार्य को करते रहे, पर इससे आध्यात्म-मार्ग में विशेष प्रगति न होते देखकर उनका चित्त अशान्त रहने लगा। इससे एक वर्ष बाद वे अपने एक गुरु भाई को मन्दिर का भार देकर देश भ्रमण के लिये चल दिये। अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुये जब वे गिरनार पर्वत पर पहुँचे तो वहाँ एक सिद्ध योगी से इनकी भेंट हो गई। उसने इन्हें शिष्य बनाकर योग की शिक्षा दी। वहाँ से ये दक्षिण भारत के तीर्थों की यात्रा करके दो-तीन वर्ष बाद पुनः अपने आश्रम में वापस आ गये।

अब उनका साधन-कार्य विधिवत् होने लगा। सुबह से लेकर दस बजे तक का समय वे स्नान, संध्या और पूजा-पाठ में लगाते। जब वे गंगा के जल में खड़े होकर हाथ जोड़कर स्तोत्र पढ़ते तो यही जान पड़ता कि मानों देवगण अभी उनके सामने खड़े हो जायेंगे पूजा समाप्त करके योगाभ्यास में प्रवृत्त होते और चार-पाँच घंटा तक योग की विभिन्न क्रियाएँ करते रहते। इसके पश्चात् वे स्वयं रसोई बनाकर रामचन्द्र जी की मूर्ति के सम्मुख भोग लगाते। वे पाक विद्या में निपुण थे और योग के लिए उत्तमोत्तम पदार्थ बनाते थे, पर उन सब पदार्थों को स्वयं न खाकर दीनजनों को या परिचित व्यक्तियों को बाँट देते थे और स्वयं बहुत साधारण भोजन बनाकर खाते थे। इस प्रकार कई वर्ष तक करने के पश्चात् उनको विचार आया कि इस प्रकार कई घंटे रसोई बनाने में व्यर्थ चले जाते हैं, इसलिए वह नियम धीरे-धीरे कम करना चाहिए। तब वे चाहे जब भोजन न बनाकर थोड़े से विल्वपत्र दूध के साथ उबाल कर खा जाते। या पचास-साठ मिर्च पीसकर पानी के साथ पी जाते। किसी दिन पूर्ण उपवास ही कर डालते। इस प्रकार उनका भोजन घटते-घटते नाम मात्र को रह गया।

कुछ समय पश्चात् उन्होंने आश्रम में एक गुफा बनवाई और उसमें बैठकर समाधि-योग करने लगे। अब वे कई-कई दिन तक गुफा से बाहर नहीं निकलते थे और न किसी तरह का भोजन लेते थे। इससे लोगों में उनका नाम ‘पौहारी बाबा’ (पवन का आहार करने वाला) प्रसिद्ध हो गया। उन्होंने अपनी कुटी से भी बाहर निकलना बंद कर दिया था। बाहर के स्थानों से जो स्त्री-पुरुष उनके दर्शनों के लिये आते उनके एकादशी का दिन नियत कर दिया था। इस प्रकार वे साँसारिक कार्यों से यथा संभव दूर रहकर अपना समय साधना में ही व्यतीत करने लगे।

पर इसका यह अर्थ नहीं कि पौहारी बाबा प्राचीन ढंग के एक भजनानन्दी साधु ही थे और उनको लोक कल्याण, समाज-सेवा आदि विषयों का कोई ज्ञान न था। सुप्रसिद्ध देशभक्त संन्यासी स्वामी विवेकानंद जी इन पौहारी बाबा के निकट कई महीने तक रहे थे, और उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर अमरीका में भाषण देते हुये यह कहा था कि मैंने भारतवर्ष में गुरुदेव राम कृष्ण परमहंस के पश्चात् किसी अन्य महापुरुष में महान आध्यात्मिक शक्ति और ज्ञान के दर्शन किये तो वे पौहारी बाबा ही थे।” पर उन्होंने लोक सेवा का कोई बढ़ा कार्य सार्वजनिक रूप से नहीं उठाया तो इसका कारण यही था कि वे नम्रतावश अपने का उस योग्य नहीं मानते थे। एकबार बातचीत करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने उनसे कहा कि “आप संसार को धर्म मार्ग दिखलाने के लिये अपनी गुफा से बाहर क्यों नहीं निकलते?” इस पर उन्होंने उस दुष्ट मनुष्य का दृष्टान्त सुनाया जिसने अपनी नाक काटे जाने पर उसी को साधना का अंग बतलाया था और धीरे-धीरे एक नकटा-सम्प्रदाय की स्थापना ही कर दी थी! उन्होंने हँसने हुये स्वामी जी से कहा कि क्या आप चाहते है कि मैं भी ऐसा ही कोई नकटा-सम्प्रदाय स्थापित कर जाऊँ? पर जब इसके बाद भी स्वामी जी उनसे सार्वजनिक जीवन में भाग लेने का आग्रह करते रहे तो उन्होंने गम्भीरता पूर्वक कहा-तुम्हारी क्या ऐसी धारण है कि केवल स्थूल शरीर द्वारा ही दूसरों की सहायता की जा सकती है? क्या शरीर के क्रियाशील हुए बिना केवल मन से दूसरे लोगों की सहायता नहीं की जा सकती?”

एक दूसरे अवसर पर जब उनसे प्रश्न किया गया कि “श्रेष्ठ ज्ञानी और सिद्ध योगी होते हुये भी आप मूर्ति पूजा ओर होम आदि क्यों करते हैं? ये कर्म तो साधना के आरम्भिक अंग ही माने जाते हैं।” तब उन्होंने कहा-क्या प्रत्येक कर्म अपने कल्याण की दृष्टि से ही किया जाता है? ज्ञानी मनुष्य भी बहुत से साधारण कृत्य दूसरों को उपदेश देने और उन्हें धर्म-मार्ग पर स्थिर रखने के उद्देश्य से किया करते है।”

इस प्रकार पौहारी बाबा अपने ढंग पर लोकोपकार और सेवाधर्म के पथिक थे। आश्रम के कार्यों की कुछ देख-रेख और बुद्धि करते हुये भी उससे पूर्णतः निस्पृह रहते थे और उनमें उसके प्रति किसी प्रकार की ममता-मोह का भाव न था। एक बार एक एक वैष्णव साधू उनके पास आकर उनकी भर्त्सना करने लगा कि ‘तुम साधू और त्यागी होकर भी आश्रम की माया में क्यों फँसे हुये हो? तुमने वैराग्य धारण करके इतनी बड़ी सम्पत्ति और सामग्री क्यों इकट्ठी कर रखी है? इस सबको मुझे देकर तुम अज्ञात रूप से कहीं चले जाओ।” पौहारी बाबा ने उसकी बात को तुरन्त स्वीकार कर लिया और अपनी कुटी की ताली चुपचाप उसे देकर रात के समय वहाँ से चल दिये। प्रातः काल जब शिष्यों तथा अन्य आश्रम वासियों ने बाबा को वहाँ न पाया तो बड़ा कोलाहल मचा ओर इस घटना का कारण उस साधू को समझकर उसे मारने-पीटने लगे। पर पौहारी बाबा का कहीं पता नहीं लगा। कई महीने बाद किसी जानकर व्यक्ति से उनकी खबर मिली और तब उनको बड़ी कठिनाई से समझा कर आश्रम में फिर से लाये।

एक बार कोई चोर उनके आश्रम में चोरी करने आया और जो कुछ मिला उसे गठरी में बाँध लिया। इतने में पौहारी बाबा जाग गये और यह देखकर चोर गठरी छोड़कर भागने लगा। ये भी गठरी लेकर चोर के पीछे दौड़े और बहुत दूर जाकर उससे क्षमा माँगी कि वे जग जाने से उसके काम में बाधक बने। वे बार-बार उससे यही प्रार्थना करते रहे कि “तुम इस सामान को ले जाओ ; यह तुम्हारा ही है।”

अपने जीवन के अन्तिम दस वर्षों में वे प्रायः एकान्त में ही रहे और इस बीच में शायद ही किसी ने उनको देख पाया हो। उनकी गुफा में दरवाजे के पीछे एक ठाक में थोड़ा आलू और मक्खन रख दिया जाता था और जब वे समाधि से उठकर ऊपर वाले कमरे में आते तो इन चीजों को ले लेते थे। कभी वे पाँच-पाँच सात-सात दिन तक गुफा से बाहर नहीं निकलते थे और भोजन सामग्री जैसे की तैसी ही रखी रहती थी। वे प्रायः रात के समय ही गुफा से निकलते थे और उसी समय आवश्यकतानुसार गंगा के उस पार जाकर कुछ योग-क्रिया भी किया करते थे। एकबार अकस्मात् किसी के आ जाने से इस क्रिया में विघ्न पड़ गया जिससे उनकी तबियत बिगड़ गई। लोगों ने अनेक बार जानना चाहा कि उनको क्या कष्ट है पर उन्होंने कुछ बतलाया नहीं। वे जीवनमुक्त स्थिति में पहुँच जाने के कारण शरीर के रहने या न रहने का कोई महत्व नहीं समझते थे और इसके लिये स्वयं चिन्ता करना या किसी अन्य को कष्ट देना उन्हें स्वीकार न था। अन्त में संवत् 1955 के ज्येष्ठ मास की सामग्री को उन्होंने अपनी कुटी के भीतर हवन कुण्ड को प्रज्ज्वलित करके अन्य सामग्री के साथ अपनी देह की आहुति भी दे दी। कितने ही लोगों के देखते-देखते उनका प्रमाण ब्रह्मरंध्र को फोड़कर बाहर निकल गया। सर्वसाधारण ने इस घटना के विषय में तरह-तरह के अनुमान लगाये और कुछ ने इस कार्य को अनुचित भी बतलाया, पर उनके सुपरिचित स्वामी विवेकानन्द ने यही कहा कि “जब पौहारी बाबा ने यह जान लिया कि उनके जीवन का अन्तिम क्षण समीप आ गया है, तो उनकी मृत्यु के पश्चात् भी उनके कारण किसी को कष्ट न हो, इसलिए उन्होंने स्वस्थ शरीर और मन से आर्योचित रीति से अपना अन्तिम संस्कार भी स्वयं ही कर लिया।”

वास्तव में महापुरुषों के चरित्र की अनेक घटनाएँ गूढ़ अर्थ रखती है और उनका रहस्य न समझ सकने के कारण सामान्य जन उनकी विपरीत आलोचना करने लगते हैं। पौहारी बाबा ने आजन्म अपना यह सिद्धान्त रखा कि दूसरों की यथाशक्ति अधिक अधिक सेवा और भलाई करते रहना, पर अपने किसी प्रकार की सेवा किसी से न करना अपने आरम्भिक जीवन में उन्होंने पर्याप्त परिश्रम करके आश्रम को उन्नति करके उसे इस योग्य बनाया कि उससे अतिथियों और आस पास वाली की सेवा की जा सके, और इसके बाद धीरे-धीरे उसकी व्यवस्था दूसरों को देकर स्वयं पृथक् होते चले गये। अंत में पूर्ण निष्क्रम भाव का उदाहरण उपस्थित करते हुये वे आश्रम या उसकी सम्पत्ति के संबंध में एक शब्द भी बोल बिना विश्व-सत्ता में लीन हो गये।


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