भगवदार्पणः गीता का प्रेरक आदर्श

April 1961

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(डाक्टर रामचरण महेन्द्र एम0ए0, पी0एच0डी0)

आत्मिक शुद्धि, आत्मिक शान्ति तथा लोकहित के लिए अपने आपको भगवदार्पण करना हिन्दू संस्कृति की एक बड़ी विशेषता रही है। जब तक मनुष्य अपने आपको क्षुद्र साँसारिक जीव मानता रहता है और स्वयं अपनी व्यक्तिगत शक्ति से ही किसी महान उद्देश्य की पूर्ति चाहता है, तब तक वह सफल नहीं होता। उसकी शक्तियाँ पंगु सी रह जाती है। वह महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने आप को दुर्बल और पापयुक्त पाता।

लेकिन इसके विपरीत जब वह सब ओर सहायता की आशा त्याग कर एक मात्र ईश्वर को ही आत्म-समर्पण कर देता है, तब वह मन में अमित शान्ति का अनुभव करता है और गुप्त दैवी शक्ति प्राप्त करता है। अपने आपको भगवदार्पण कर देने से कोई कैसा ही पापी क्यों न हो, भगवान की भक्ति के अद्भुत प्रभाव से, उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है और उसे शीघ्र ही परम शान्ति मिल जाती है किन्तु शर्त यही है कि यह आत्मार्पण विशुद्ध प्रेम भाव से होना चाहिए। अनन्य भाव से प्रेमपूर्वक अपने आपको ईश्वर में लय कर देने वाला दैवी शक्ति वाला हो जाता है और उसे सदा रहने वाली परम शान्ति प्राप्त होती है। जो संसार के अन्य आश्रयों को छोड़ नित्य निरन्तर निष्काम भाव भगवान को सब कुछ सौंप देता है, भगवान उसकी रक्षा ही नहीं करते, वरन उसका लौकिक एवं पारलौकिक भार भी सम्हालते है।

प्रभु को आत्मार्पण करते हुए मनुष्य अपनी समस्त मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्तियों को समेट कर भगवान के चरणों में रख देता है। तब मानव की पुरानी प्रवृत्तियाँ जो साँसारिक भोगों में लिप्त थीं, एक नवीन दिशा की ओर, नीचे से ऊँचाई की ओर, साँसारिकता से देवत्व की ओर उठने लगती हैं। नए आत्मिक मनोरथों की पूर्ति के लिए नई स्वर-धारा फूटती है, भक्ति का हृदय ही जैसे गीतों के रूप में बहने लगता है। वृत्तियों को संयमित कीजिए और फिर अपने सब कार्य, अपनी शक्तियों तथा इच्छाओं को भगवान में समर्पित कर दीजिए। वही व्यक्ति लोक-कल्याण के कार्यों में पूर्ण सफल रहा है जिसने अपना सब कुछ भगवान को सौंप दिया हैं।

अपना सब कुछ ईश्वर को सौंप देना, ईश्वर का दासानुदास या अंग बन कर आत्मिक शक्ति एकत्र करना-आत्मशुद्धि की यह साधना हमारे देश में प्राचीन काल में चली आयी है। गीता में भगवान ने आत्म-शुद्धि का अनुष्ठान निम्न शब्दों में किया है -

तमेव शरणं गच्छ सर्वीवेन भारत। तत्प्रसादात्पराँ शान्ति स्थान प्राप्स्यासि शाश्वतम्॥

हे भारत! सब प्रकार से उस परमेश्वर की अन्य शरण को प्राप्त हो। उस परमात्मा की कृपा से ही परम शान्ति को और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा।

लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्याग कर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता, रहित होकर केवल एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान् के नाम गुणा, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना एवं भगवान का भजन स्मरण करते हुए ही उनकी आज्ञानुसार कर्तव्य तथा कर्मों का निस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह सब प्रकार से परमात्मा के अनन्यशरण होना है।

चेतना सर्वकर्माणि मपि सन्यस्य मत्परः बुँद्धियोग मुपाश्रित्य मच्चित्त सततं भव॥

सब कर्मों को मन से मुझ में अनन्य भाव से अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्व बुद्धि रूप निष्काम कर्मयोग को अवलम्बन करके निरन्तर मुझ में चित्त स्थिर करने वाला बन।

यस्य नहिं कृतो भावों बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥

जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं कर्ता हूँ, ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि साँसारिक पदार्थों में और सम्पूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।

जैसे अग्नि वायु और जल के द्वारा प्रारब्ध वश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आवे तो भी वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थ रहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती है, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाय, तो भी वास्तव में हिंसा नहीं है, क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तव्य अभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष पाप से नहीं बँधते हैं

हमारे पास अपना कुछ नहीं है। जो कुछ है ईश्वर का ही है। हम अपने लिए नहीं वरन् सब कुछ ईश्वरीय सेवा के भाव से हैं इस भावना से कार्य करने पर मनुष्य असंख्य शक्तियाँ प्राप्त करते है। इसी से कवि ने सत्य कहा है -

“मेरा मुझको कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोय तेरा मुझको सौंपते, क्या लागे है मोय।”

हे भगवान मेरा कुछ नहीं है। यह शरीर तुम्हारा है। यह तुम्हारे कार्यों, संसार और समाज की सेवा के लिए लगे और फिर आपकी सेवा से वापस पहुँच जाय, इसमें मेरा क्या लगता है यह आपको अर्पित हैं।

संसार में बड़े बड़े महात्मा, विद्वान, और विचारक हो गय है। मनुष्यों ने अपने जीवन ज्ञान विज्ञान की आराधना में समाप्त कर दिये है। लोग जीवन भर नाना विषयों की एक से एक विद्वत्ता पूर्ण पुस्तकें लिखते रहे है, किन्तु हम देखते है और उनमें से अधिकांश पुस्तकें नष्ट हो गई। बहुत से नष्ट होती जा रही है। जिन पुस्तकों के लेखकों ने केवल यशलिप्सा या विद्वता के दंभ की पूर्ति का लक्ष्य सामने रखकर साहित्य-साधना की थी, वे अन्धकार में क्षण भर के लिए प्रकाश करने वाली चिनगारी की तरह चमक कर बुझ गए। किन्तु जिन विद्वानों ने अपने को भगवदार्पण कर ईश्वरीय सत्ता से गुप्त दैवी बल ग्रहण कर साहित्य निर्माण किया उनमें गुप्त रूप से ऐसी महान् शक्ति का आविर्भाव हुआ कि वह ग्रन्थ युग-युग होने पर आज भी सर्वत्र पूजनीय, प्रेरक और जनता के गले का हार बने हुए हैं।

महाकवि मिल्टन ने अपनी तमाम काव्य शक्तियों को ईश्वर के अर्पण कर दिया। अपने आप को ईश्वर का एक अंग या हिस्सा मात्र मानकर ईश्वरीय प्रेरणा से ग्रन्थ निर्माण किये। इससे उनकी कविता में वह दैवी शक्ति एवं बल आया कि वह शाश्वत भावना स्पष्ट कर सकी और बड़ी लोकप्रिय हुई इसी प्रकार अपने अन्तिम दिनों में महाकवि वर्डसवर्थ ड़ड़ड़ड़ अध्यात्म में डूब गये और उनकी कविता उच्चतम आत्मज्ञान की परिचायिका बनी। वे चरम प्रसिद्धि प्राप्त कर सके। भारत में गोस्वामी तुलसीदास, भक्त प्रवर सूरदास, मीराबाई, कबीर, गुरुनानक इत्यादि अनेक सन्त महाकवियों ने अपना शक्तियों को ईश्वर के अर्पण कर दिया। जैसे लोग पुष्प अक्षत धूप इत्यादि अर्पित करते है, वैसे उन्होंने अपनी काव्य शक्तियों को ईश्वर को अर्पित कर दिया। इस आत्मार्पण से उनकी स्वार्थ भावना, यशोलिप्सा, प्रचार भावना, अहंभाव दूर हो गए। उनका विशुद्ध आत्म तत्त्व निखर उठा। इस ब्रह्म संस्पर्श से वे भक्ति, प्रेम, विनय, सेवा, करुणा, नीति, इत्यादि के ऐसे हृदय-स्पर्शी भजन, दोहे, गीत लिख सके, जो युग-युग व्यतीत हो जाने पर आज भी हमें नए उत्साह, आह्लाद, प्रेम और प्रेरणा से भर देते है। यह भक्ति साहित्य आत्मार्पण का श्रेष्ठ उदाहरण है।

जो अपने लिए न लिखकर ईश्वर के लिए लिखता है, ईश्वर का प्रतिनिधि होकर शब्द उच्चारण करता है, इस सम्पूर्ण विश्व में एकमात्र परमात्मा को ही प्रकट देखता है (पुरुष एवेद सर्वम्-ऋग्वेद 10।90।2) संसार को परमात्मा का ही प्रत्यक्ष स्वरूप मानकर इसकी सेवा भाव के लिए लिखता है, वह निश्चय ही स्थायी लोक रंजक साहित्य की सृष्टि करेगा इसी उद्देश्य के लिए ईशावास्योपनिषद् में लिखा गया है -

ओम् ईशावास्यामिदं सवं यत्किंच जगत्यां जगत्। तेन व्यक्तेन भुजिज्या मा गृधः कस्यविस्वद्धनम्॥

अर्थात् संसार में जो कुछ है, वह ईश्वर से व्याप्त है। सब ईश्वर का है और ईश्वरमय है। इस विश्व में परमात्मा ही अनेक रूपों में जन्म ले रहा हैं।


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