स्वर्ण सूक्तियाँ

April 1953

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-धर्माचरण से दीर्घ आयु, उत्तम संतान तथा अक्षय धन की प्राप्ति होती है। इसी धर्म का निष्काम आचरण मोक्ष पद है सदाचार धर्म का मूल है, सत्य कर्म तथा सत्पुरुषों का आचरण ही सदाचार है।

-मनुष्य को उचित है कि धर्म से वेद शास्त्र का स्वाध्याय तथा गायत्री प्रणव (ॐ) का अर्थ, विचार जप पौर्णमास्य आदि हवन, पंच यज्ञ, न्याय से अपनी वर्णानुसार जीविका उपार्जन, निष्काम कर्म, परोपकार योगाभ्यास आदि उत्तम कर्मों से इस शरीर को ब्राह्मी स्थिति के योग्य बनावें।

-मनुष्य को उचित है कि वह तब तक कर्म का त्याग न करें, जब तक कर्म स्वयं न त्याग दे अर्थात् ईश्वर प्रेम में सुध-बुध न रहे। जब तक भूख प्यास शरीर के दुःख सुख का भान है तब तक कर्म, नाम स्मरण, आदि चलने अति आवश्यक हैं।

-सत्कर्मों से होने वाला आनंद ही सच्चा आनंद है और इसी आनंद के द्वारा हृदय की सद्वृत्तियों का विकास होता है और उत्तरोत्तर सत्कार्य करने के लिए मनुष्य अधिकाधिक प्रवृत्त होता है।

-जब तक जीव संज्ञा है, जब तक अपनी पृथकता का अनुभव है तथा दुख से छूटकर सुख पाने की इच्छा है तब तक जीवन को अपने धर्म का पालन करना ही चाहिए। जैसे भगवान का धर्म कृपा है वैसे ही जीव का धर्म-साधन है। वह साधन क्या है? भगवान कृपा पर विश्वास करो इतना ही पुरुषार्थ है।

-वास्तव में हमें जो आवश्यक है, उचित रूप से चाहिये वह हमें प्रभु अवश्य देते हैं तथा आगे भी जो आवश्यक होगी उसकी पूर्ति भी वे अवश्य करेंगे। जो हमें प्राप्त नहीं उसकी आवश्यकता भी हमें नहीं है हमारे लिए जो आवश्यक है, वह प्रभु न दें यह असम्भव है। क्योंकि उन जैसा स्वामी, रक्षक, हेतु रहित दयालु, भर्ता कोई नहीं है। केवल हमारी इच्छाएं किवाड़ बन कर हमें प्रभु के दान से वंचित कर रही है।

-जिनकी कामादि कामना दुख नहीं हुई है अर्थात् जिनका रज, तम, शाँत नहीं हुआ है उन कुयोगी पुरुषों को प्रभु का दर्शन दुर्लभ है। निष्पाप व्यक्ति, प्रभु में प्रीति रखने वाला अंतःकरण सकल वासनाओं को धीरे-धीरे त्याग देता है।

वर्ष-13 सम्पादक - आचार्य श्रीराम शर्मा अंक-4


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