गायत्री संहिता

April 1953

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(फरवरी अंक से आगे)

एक वारं सकन्मालाँ न्यूनतो न्यूनमाजपन्। धीमान्मंत्र शतं नूनं नित्यमष्टोत्तरं जपेत्॥ 39 ॥

प्रतिदिन कम से कम एक माला 108 मंत्रों का अवश्य ही जप कर लेना चाहिए।

ब्राह्मे मुहूर्ते पाच्यास्यो मेरु दण्डं प्रतन्य हि। पद्मासनं समासीनः सन्ध्यावन्दन माचरेत् ॥ 40 ॥

ब्राह्म मुहूर्त में पूर्वाभिमुख होकर मेरुदण्ड को सीधा कर पद्मासन पर बैठ कर संध्यावन्दन करें।

दैन्यरुक्रछोक चिन्तानाँ पिरोधाक्रमणापदाम्। कार्यं गायत्र्यतुष्ठानं भयानाँ वारणाय च ॥ 41 ॥

दीनता, रोग, शोक, चिन्ता, विरोध, आक्रमण, आपत्तियाँ और भय इनके निवारण के लिए गायत्री का अनुष्ठान करना चाहिए।

जायते स्थितिरस्मात्सः भिलाषा मन ईप्सिताः। यतः सर्वेऽभिजायन्ते यथा कालं हि पूर्णताम्॥ 42॥

इस अनुष्ठान से वह स्थिति पैदा होती है जिससे समस्त मनोवाँछित अभिलाषाएँ यथासमय पूर्णता को प्राप्त होती हैं।

अनुष्ठानात्तु वै तस्माद्गुप्ताध्यात्मिक शक्ययः। चमत्कार मायालोके प्राप्यन्तेऽनेकधाबुधैः॥ 43॥

उस अनुष्ठान से साधकों को संसार में चमत्कार से पूर्ण अनेक प्रकार की गुप्त आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।

सपादलक्षमंत्राणाँ गायत्र्या जपनं तु वै। ध्यानेन विधिना चैवानुष्ठानं हि प्रचक्षते॥ 44॥

विधि एवं ध्यानपूर्वक गायत्री के सवा लाख मंत्रों का जप करना ही अनुष्ठान कहलाता है।

पंचम्याँ पूर्णिमायाँ वा चैकादश्याँ तथैव हि। अनुष्ठानस्य कर्तव्य आरम्भ, फल प्राप्तये॥ 45॥

पंचमी पूर्णमासी और एकादशी के दिन अनुष्ठान का प्रारम्भ करना शुभ होता है।

मासद्वयेऽविरामं तु चत्वारिशद्दिनेषुवा। पूरयेत्तदनुष्ठानं तुल्यसंख्यासु वैजपन्॥ 46॥

दो महीने में अथवा चालीस दिनों में बिना नागा किये तथा नित्य समान संख्याओं में जप करता हुआ उस अनुष्ठान को पूर्ण करे।

तस्या प्रतिमाँ सु संस्थाप्य प्रेम्णा शोभन आसने। गायत्र्यास्तेषु कर्तव्या सत्प्रतिष्ठा तुवाग्मिभिः॥ 47॥

प्रेम से सुन्दर और ऊँचे आसन पर गायत्री की प्रतिमा स्थापित करके उसकी भली प्रकार प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

तद्विधाय ततो दीप धूप नैवेद्य चन्दनैः। नमस्कृत्याक्षतेनापि तस्याः पूजनमाचरेत्॥ 48॥

इस प्रकार से गायत्री की स्थापना करके तदनन्तर उसे नमस्कार करके दीपक, धूप, नैवेद्य और चन्दन तथा अक्षत इन सबसे गायत्री का पूजन करे।

पूजनानन्तरं विज्ञः भक्तया तज्जप मारभेत्। जप काले तु मनः कार्य श्रद्धान्वितम चंचलम्॥ 49॥

बुद्धिमानों को चाहिए कि वह पूजा के अनन्तर भक्ति से उस गायत्री का जप आरम्भ करे। जप के समय मन को श्रद्धा से युक्त और स्थिर कर लेना चाहिए।

कार्यतो यदि चोत्तिष्ठेन्मध्य एव ततः पुनः। जल प्रक्षालनं कृत्वा शुद्धैरंगैरुपाविशेत्॥ 50॥

और यदि किसी काम से साधना समय के बीच में ही उठना पड़े तो फिर पानी से हाथ मुँह धोकर बैठें।

आद्यशक्तिर्वेदमाता गायत्री तु मदन्तरे। शक्ति कल्लोलसंदोहान् ज्ञानज्योतिश्चसंततम्॥ 51॥

उत्तरोत्तरमाकीर्य प्रेरयन्ती विराजते। इत्येवाविरतं ध्यायन् ध्यानमग्न स्तुताँ जपेत्॥ 52॥

आद्यशक्ति वेदों की माता स्वरूप गायत्री मेरे भीतर लगातार शक्ति की लहरों के समूह को और ज्ञान के प्रकाशों को उत्तरोत्तर फैलाकर प्रेरित करती हुई विद्यमान है, इस प्रकार से निरन्तर ध्यान करता हुआ ध्यान में निमग्न उसका जाप करें।


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