मंगलमय महावीर

April 1953

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(सन्त श्री टी.एल. वास्वानी)

चैत्र का परम पावन महीना महावीर का स्मारक है। इस पुण्य मास में वे आज से 25 शताब्दी पहले अवतीर्ण हुए। उन्होंने पटना के समीप एक स्थान को अपनी जन्म भूमि बनाया। अशोक और गोविन्द सिंह का भी स्मारक होने के कारण पटना पवित्र है।

परम्परा से उन महाभाग की जन्म-तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी मानी जाती है। यह दिन- महावीर की वर्ष गाँठ का दिन-युवकों के कैलेण्डर में स्मरणीय है। युवकों को याद रहे, यह तिथि अनेक महावीरों की जननी है।

यद्यपि भारत दरिद्र है, फिर भी वह श्री- सम्पन्न है। उसकी यह श्री उसके मनुष्यों में है। उसके करोड़ों मनुष्य, यदि कुछ करने का संकल्प करें, तो क्या नहीं कर सकते? और प्रत्येक शताब्दी में भारत ने ऐसे कितने महापुरुष पैदा नहीं किये, जो आत्मा की शक्ति में महान थे? क्योंकि वह, जिनकी कीर्ति का प्रसाद यह चैत्र शुक्ल 13 कर रही है, हमारे इतिहास का एक मात्र महावीर नहीं हुआ है, अन्य महावीर भी हुए हैं। वे हुए हैं अन्य युग में। वे आत्मिक क्षेत्र के योद्धा थे। उन्होंने भारत भूमि को पुण्य भूमि बना दिया और उसे आध्यात्मिक आदर्शवाद की श्री से सम्पन्न कर दिया।

ये महावीर- अर्थात् महान विजयी- ही इतिहास के सच्चे महापुरुष हैं। ये उद्धतता और हिंसा के नहीं, किन्तु निरभिमानता और प्रेम के महावीर थे।

रूस के महान ऋषि टाल्स्टाय ने इस राग को बार-बार अलाप है कि ‘जिस प्रकार अग्नि, अग्नि का शमन नहीं कर सकता।” कहा जाता है कि इस पर ईसा के इस प्रवचन की कि ‘पाप का प्रतिकार मत करो’ छाप है, परन्तु ईसा से भी पाँच शताब्दी पहले अहिंसा की यह शिक्षा भारत के दो आत्मज्ञों और ऋषियों- बुद्ध और महावीर द्वारा उपदिष्ट और आचरति हो चुकी थी। जैन लोग भगवान, ईश्वर, महाभाग इत्यादि कह कर महावीर को पूजते हैं।

वे उन्हें तीर्थंकर भी कहते हैं। मैं जिसका अर्थ करता हूँ “सिद्ध पुरुष”। महावीर का स्मरण उन्हें चौबीसवें तीर्थंकर मानकर किया जाता है। उनके प्रथम तीर्थंकर का नाम ऋषभनाथ अथवा आदि नाथ है, जो अयोध्या में जन्में और कैलास पर्वत पर महत्तम आत्मज्ञान (कैवल्य) के अधिकारी हुए। वे उस धर्म के सबसे प्रथम प्रवर्त्तक थे, जिसे इतिहासों में जैन धर्म कहा है। महावीर जैन धर्म के प्रवर्तकों की लम्बी सूची में 24 वे हैं। उन्होंने बौद्ध धर्म से भी प्राचीनतम इस जैन धर्म की पुन घोषणा की, और उसका पुनर्निर्माण किया।

महावीर के विषय में मैंने जो कुछ जाना है, उससे मुझ पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा है। उनका जीवन अद्वितीय सौंदर्य से परिपूर्ण था। बुद्ध के त्याग का, बुद्ध के तप का और बुद्ध के मानव-प्रेम का स्मरण दिलाते हैं।

वे ईसा से 599 वर्ष पूर्व बिहार- प्राँत के एक शहर में जन्में थे। उनके पिता ‘सिद्धार्थ’ एक क्षत्रिय राजा थे। उनकी जननी ‘त्रिराला’- प्रिय-कारिणी बज्जियों के प्रजातंत्र के मुखिया चेटक की पुत्री थी। महावीर अन्य लड़कों के समान पाठशाला में भेजे जाते थे, परन्तु जान पड़ा कि उन्हें शिक्षक की आवश्यकता नहीं है। उनके हृदय में वह ज्ञान विद्यमान था, जिसे कोई भी विद्यालय प्रदान नहीं कर सकता। बुद्ध के समान ही वे इस जगत को त्याग देने के लिए व्याकुल हो उठते हैं। अट्ठाईस वर्ष की अवस्था पर्यन्त वे कुटुम्ब में ही रहते हैं। अब उनके माता-पिता गुजर जाते हैं और उन्हें संन्यास के प्रवाह में प्रवेश करने के लिए अन्तःप्रेरणा होती है। तब वे अपने ज्येष्ठ भाई के समीप अनुमति के लिए जाते हैं। उनके भाई कहते हैं- ‘घाव अभी हरे हैं, ठहरो’ वे दो वर्ष और ठहर जाते हैं। अब वे तीस वर्ष के हैं। ईसा के समान अब उन्हें अन्तः प्रेरणा होती है कि सब कुछ छोड़कर सेवा के सुमार्ग में प्रवेश करना चाहिए। बुद्ध के समान वे अपनी सब सम्पत्ति दरिद्रता का दान कर देते हैं। कुटुम्ब को त्यागने के दिन वे अपना सारा राज्य अपने भाइयों को और सारी सम्पत्ति गरीबों को दे देते हैं। फिर वे तपश्चर्या और ध्यान का जीवन व्यतीत करते हैं। बुद्ध को 6 वर्ष की साधना के बाद प्रकाश के दर्शन हुए थे। महावीर को यह ज्योति 12 वर्ष के अन्तर्ध्यान और तपस्या के बाद दीखती है ऋजुकूला नदी के किनारे जम्मक ग्राम में वे परम-आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। ग्रन्थों की भाषा में अब वे तीर्थंकर, सिद्ध, सर्वज्ञ अथवा महावीर हो जाते हैं। वे अब उस अवस्था को प्राप्त करते हैं, जिसे उपनिषदों में कैवल्य-दृष्टा की अवस्था कहा है। जैन ग्रन्थों के अनुसार अब उनका नाम ‘केवली’ हो जाता है।

तब वे बुद्ध के समान धर्म प्रचार के लिए एक महान मिशन लेकर लोगों के ज्ञान का उपदेश देने को निकलते हैं। तीस वर्ष तक वे यहाँ से वहाँ घूमते फिरते हैं। बंगाल और बिहार में वे सच्चे सुख की “ सुघात ” का सदुपदेश देते हैं। अपने सन्देश को जंगली जातियों तक भी ले जाते हैं, और इसमें वे उनके क्रूर व्यवहारों की परवाह नहीं करते। वे अपने मिशन में स्रवश और हिमालय तक जाते हैं। अनेक पीड़ को और पीड़ाओं के बीच में वे कितने गम्भीर और शान्त बने रहते हैं, और इस गम्भीरता तथा शान्ति में कितना सौंदर्य है।

वे गुरु हैं और व्यवस्थापक भी। उनके ग्यारह प्रधान शिष्य हैं। चार सौ से ऊपर मुनि और अनेक श्रावक उनके धर्म को धारण करते हैं। ब्राह्मण और अब्राह्मण दोनों ही उनके समाज में शामिल होते हैं। उनका विश्वास वर्ण और जाति में नहीं है। ये दिवाली के दिन ऐवापरी (बिहार) में 72 वर्ष की आयु में ईसा से 527 वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त करते हैं।

इन महावीर का-जैनियों के इस महापुरुष का चरित्र कितना सुन्दर है! वे धनवान क्षत्रिय कुल में जन्म लेते हैं और ग्रह को त्याग देते हैं। वे अपना धन दरिद्रों में दान कर देते हैं, और विरक्त होकर जंगल में अन्तर्ध्यान और तपस्या के लिए चले जाते हैं। कुछ लोग उन्हें वहाँ ताड़ना देते हैं, परन्तु वे शान्त और मौन रहते हैं।

तपस्या की अवधि समाप्त होने पर वे बाहर आते हैं। वे अपने सिद्धान्त की शिक्षा देने के लिए जगह जगह घूमते हैं, और बहुत से लोग उनका मजाक उड़ाते हैं, सभाओं में वे उन्हें तंग करते हैं, उनका अपमान करते हैं, परन्तु वे प्रशान्त और मौन बने रहते हैं।

उनका एक शिष्य उन्हें त्याग देता है और उनके विरुद्ध लोगों में मिथ्या प्रवाद फैलाता है, पर फिर भी वे शान्त तथा मौन रहते हैं।

वे एक महावीर- एक विजेता- एक महापुरुष हो जाते हैं, क्योंकि वे शान्ति की शक्ति का विकास करते हैं।

निःसन्देह ही उनके जीवन ने उनके भक्तों पर गहरा प्रवाह डाला। उन्होंने उनके सन्देश को सब तरह फैलाया। कहा जाता है कि “पायरो” नामक यूनानी विचारक ने जिमिनोसाफिस्टों के चरणों में दर्शन शास्त्र सीखा। मालूम होता है कि वे जिमिनोसोफिस्ट लोग जैन योगी थे, जैसा कि उनकी यह नाम निर्देश करता है।

बचपन में उनका नाम ‘वीर’ रक्खा गया। उस समय वे ‘वर्द्धमान’ भी कहलाते थे, परन्तु आगे चलकर वे ‘महावीर’ कहलाये। महावीर शब्द का मूल अर्थ महान योद्धा है। कहा जाता है कि एक दिन जबकि वे अपने मित्रों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे, उन्होंने एक बड़े काल सर्प को उसके फन पर पैर रख कर बड़े गौरव से वश में किया और तभी से उन्हें यह विशेषण मिला। मुझे यह कथा एक रूपक मालूम पड़ती है, क्योंकि महावीर ने सचमुच ‘कषाय’ रूपी सर्प को वश में किया था। वे दर-असल एक महान वीर महान विजेता थे। उन्होंने रोग और द्वेष को जीत लिया था। उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य चैतन्य था। वह जीवन परम शक्ति का था। ‘पीत वर्ण’ और ‘सिंह’ ये दो उनके प्रिय चिन्ह हैं। आधुनिक भारत को भी महान वीरों की आवश्यकता है। सिर्फ धन या ज्ञान बहुत कम उपयोगी है। आवश्यकता है ऐसे पुरुषार्थी पुरुषों की, जो अपने हृदय से डर को निर्वासित कर स्वातन्त्र्य की सेवा करें। महावीर की वीरता उनके जीवन और उपदेशों में प्रतिबिंबित है। यह जीवन अद्वितीय आत्म-विजय का है। उनका उपदेश भी वीरतापूर्ण है। ‘सब जीवों को अपने समान समझो और किसी को कष्ट न पहुँचाओ।’ इन शब्दों में अहिंसा के द्विगुण सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। एक स्पष्ट है और दूसरा गूढ़। इनमें ‘स्पष्ट’ स्पष्ट ऐक्य के सिद्धान्तों का अनुकरण करता है अर्थात् अपने को सबमें देखो, और ‘गूढ़’ उसमें से विकसित होता है, अर्थात्- किसी की हिंसा मत करो। सबमें अपने आपका दर्शन करने का अर्थ ही किसी को कष्ट देने से ही रुकना है। अहिंसा सब जीवनों में अद्वैत के आभास से ही विकसित होती है।


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