(श्री विट्ठलदास मोदी, सम्पादक-’आरोग्य’)
कभी मैंने बच्चों की एक पत्रिका में एक कहानी पढ़ी थी। वह यों हैः- ‘नीचे के एक हिस्से में कुछ सिपाही यात्रा कर रहे थे। एक दिन रात होने पर वे एक सूखे नाले के निकट ठहरे। रात को थक कर सो रहे थे तो अचानक उन्होंने ये शब्द सुने- “सूखे नाले की तह से मुट्ठी भर पत्थर उठा लो। ऐसा करने पर तुम्हें सुख भी होगा और दुःख भी।”
सिपाहियों ने वैसा ही किया और सवेरा होते होते वे अपनी यात्रा पर चल पड़े। दोपहर को जब उन्होंने भोजन के लिये यात्रा स्थगित की तो एक सिपाही ने अपनी जेब में से वह पत्थर निकाले सूर्य के प्रकाश में वह देखता क्या है कि वह पत्थर नहीं हीरे और लाल हैं। दूसरे सिपाहियों ने भी देखा उनकी जेबों में भी पत्थर नहीं हीरे और लाल ही थे।
तब उन्होंने सोचा कि जिसने यह कहा था कि नाले की तह से मुट्ठी भर पत्थर ले लो तो तुम्हें सुख भी होगा और दुःख भी, सत्य ही कहा था। उस समय तो वे इन शब्दों का अर्थ नहीं समझ सके थे पर अब अर्थ स्पष्ट हो गया था। वे खुश थे कि उन्हें हीरे-मोती मिले और दुःख था कि क्यों मुट्ठी भर ही लिया।’
ठीक ऐसा ही दुःख-सुख जीवन की अनेक चीजों के साथ जुड़ा होता है। मेरे अपने शिक्षा काल की बात है। कालेज में अध्ययन को सारी सुविधाएँ मुझे प्राप्त थीं, पर मैं उस समय कक्षा की किताबों के सूखे तह से हीरे-मोती चुनने के लिए प्रयत्नशील नहीं था। उनकी ओर मैं कम ध्यान देता और कहानियाँ लिखने, उपन्यास, कविताएँ पढ़ने हस्तलिखित पत्रिकाओं का सम्पादन करने, कृषि-सम्मेलनों में जाने, फुटबाल खेलने, कसरत करने और साथ पढ़ने वाले लड़कों के सम्बन्ध में चर्चा करने में अधिक रस लेता। कालेज जाने का मुख्य ध्येय शिक्षा प्राप्त करना-उसकी ओर से मैं उदासीन था। मेरा खयाल है कि कालेज में पढ़ने वाले युवकों में से प्रायः नब्बे प्रतिशत युवक अपना समय मेरी ही तरह गँवा देते हैं। फिर उनकी मुट्ठीभर शिक्षा उन्हें सुख और दुःख दोनों देती है। सुख तो यह है कि कुछ तो उन्होंने सीखा ही, और दुःख यह कि सारी सुविधाएँ रहते भी उन्होंने समय का सदुपयोग नहीं किया- पूरा लाभ नहीं उठाया।
लोग यही मैत्री स्थापित करने के सम्बन्ध में भी करते हैं। किशोरावस्था से जवानी तक जब हम बनते होते हैं हमें मैत्री स्थापित करने-मित्र रूपी हीरे-मोती जोड़ने के अनेक मौके मिलते हैं पर हम अपनी लापरवाही के कारण या जल्दबाजी में उन सुयोगों से लाभ नहीं उठाते। मेरा अपना ख्याल यह है कि अपने मन के बढ़िया आदमियों को खोजने और उनसे मैत्री स्थापित करने-जैसा अधिक कीमती कोई अन्य संग्रह कार्य नहीं है। मेरे इस कथन की सत्यता साबित तब होती है जब बुढ़ापा आता है। उस समय जीवन का अन्तिम मंजिल पर अफसोस करने पर हो भी क्या सकता है।
जो मैत्री स्थापित करना जानता है वह मित्रों की संख्या से कभी सन्तुष्ट नहीं होता। उसका वही असन्तोष उसका चिर सुख बनता है। श्री जगदीश प्रसाद जी की अपने शहर और प्रान्त के सैकड़ों ही लोगों से मैत्री है। वे एक पत्र के सम्पादक हैं, और अच्छे वक्ता। उनके ये कार्य-क्रम रोचक नहीं हैं पर मित्र बनाने की फ्रिक में हमेशा रहते हैं। मैंने एक दिन उनसे कहा- “जगदीश प्रसाद जी, आपने तो जीवन पथ पर मिले सभी रत्नों को चुन लिया है?”
उन्होंने थोड़े अफसोस के साथ उत्तर दिया-
“नहीं मित्र, ऐसे अनेक अच्छे व्यक्तियों को मैं अपना नहीं बना सका जिनसे मैत्री स्थापित कर सकना मेरे लिए सम्भव था।”
‘पर आपके जितने मित्र तो किसी के नहीं हैं।’
‘आपका यह कहना तो सत्य है पर मुझे कई ऐसे मित्र और मिल सकते थे जो मुझ गरीब के बुढ़ापे के इन दिनों को अपनी आत्मीयता की मधुरता से अधिक रसमय बना देते।’
मैंने उनसे उनके मैत्री स्थापित करने के रहस्य को पूछा, तो वे बोले -
‘जो अपने साथ के गरीब कुचले हुए लोगों को अपनी सहानुभूति, रक्षा और प्यार नहीं देता, उसे सच्चे मित्र कभी नहीं मिलते।’
अमेरिका की एक पत्रिका में एक पत्रकार ने कोई मोटर कम्पनी के मालिक श्री हेनरी फोर्ड से उनके अन्तिम दिनों में की गई अपनी एक मुलाकात का एक लम्बा बयान छपवाया था उसके कुछ आवश्यक अंश यहाँ आपको भेंट करता हूँ।
पत्रकार ने पूछा, आपको सभी सुख प्राप्त हैं, आपके पास धन भी है, यश भी आपने कम उपार्जन नहीं किया। बड़े-बड़े कार्य सम्पादन करने का आपको गौरव भी है पर क्या कोई ऐसी चीज नहीं जिसे आप समझते हैं कि आपको नहीं मिली?
‘यह आप ठीक ही कहते हैं कि मुझे धन भी मिला और यश भी, पर मुझे एक बहुत कीमती चीज नहीं मिली, वे हैं मित्र। यदि मुझे अपना जीवन फिर से शुरू करना पड़े तो मैं मित्रों की तलाश करूंगा। मेरे धन ने मुझे लोगों से दिल से मिलने नहीं दिया। और अब मैं महसूस करता हूँ कि मेरा कोई सच्चा मित्र नहीं है।’
मैं आज कुछ बढ़िया मित्रों के बदले में अपना सारा धन और मान देने को तैयार हूँ। सच्चे मित्रों की प्राप्ति से ऊँचा सुख दूसरा नहीं है। आप मुझे फिर कहने दीजिए कि अगर मुझे जीवन फिर से शुरू करने का मौका मिले तो पहला काम जो मैं करूंगा वह होगा- मित्रों की तलाश।
‘आप धन देकर मित्र नहीं पा सकते। मित्र पा सकते हैं अपने को देकर- वह मैंने नहीं किया। मैंने अपने चारों और लोहे की एक दीवार बना दी थी- या यों कहिये कि मेरे व्यापार और मेरे धन ने चारों और यह दीवार खड़ी कर दी थी जो मित्रों को मेरे पास तक आने से रोकती रही। वह मेरी गलती थी। यदि इसकी प्रतीति मेरी जवानी में मुझे हो जाती तो आज मेरा यह बुढ़ापा कितना सुखमय होता।’
पत्रकार ने पूछा, पर आपने तो मुझे पहले एक बार यह कहा था कि आपको आपके मित्रों ने जितनी सहायता दी किसी अन्य ने नहीं। और उस समय आपने अपनी बातों की पुष्टि के लिए अनेक ऐसी घटनाएँ भी सुनाई थी जिससे आपको कहीं सहायता मिली तो मित्रों से?
‘हाँ आप ठीक कह रहे हैं, पर मैंने उनकी उतनी सहायता नहीं की जितनी उन्होंने मेरी की। वहाँ से मेरी गलती शुरू हुई थी। उस समय मुझे उसका ज्ञान नहीं हुआ कि मुझे बुढ़ापे में ऐसे मित्रों की जरूरत होगी जो अपना दिल खोल कर मुझसे व्यक्तिगत समस्याओं, साहित्य, समाज और राजनीति पर बात कर सकें। जिनके पास समय का अभाव न हो, मुझसे दुराव-छुपाव न हो। मुझे मित्र तो मिले पर मैंने उन्हें अपने को बाहर-बाहर से ही छूने दिया, कभी मैंने उन्हें अपना नहीं बनाया, मैंने उन्हें अपना कुटुम्ब नहीं बनाया।’
सोचिए, हेनरा फोर्ड को इन बातों के पीछे कितना दर्द है!