ईश्वर और उसकी प्रार्थना

April 1953

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(महात्मा गान्धी)

ईश्वर और उनके नियम भिन्न नहीं है। कर्म किसी को छोड़ता नहीं, न ईश्वर किसी को छोड़ता है। दोनों एक वस्तु है। एक विचार हमें कठोर बनाता है दूसरा नम्र! संसार में कोई न कोई अपूर्व चेतनामय शक्ति काम कर रही है, उसे आप चाहे जिस नाम से पुकारें, लेकिन वह हमारे प्रत्येक काम में हस्तक्षेप तो किया ही करती है। हमारा प्रत्येक विचार कर्म है। कर्म का फल होता है। फल ईश्वरीय नियम के आधीन है। यानी हमारे प्रत्येक काम में ईश्वर उसका नियम हस्तक्षेप किया ही करता है। फिर भले ही हम इसको जानते हों या अनजान हों। स्वीकार करें का अस्वीकार।

लेकिन में बुद्धिवाद द्वारा ईश्वर पर श्रद्धा उत्पन्न नहीं कर सकता। मैंने थोड़े तर्क का उपयोग किया है, इसका किसी पर प्रभाव पड़े तो ठीक है। मैं अपने लेखों द्वारा दूसरों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं कर सकता, मैं कबूल करता हूँ कि मेरा अनुभव अकेले मुझे ही मदद कर सकता है जिन्हें शंका हो वे सत्संग की खोज करें और खोज करने में पुरुषार्थ है वह सब को भले मिले।

मैं यह नहीं मानता कि बौद्ध और जैन लोग अज्ञेयवादी या नास्तिक हैं। वे अज्ञेयवादी हरगिज नहीं हो सकते। जो लोग आत्मा को शरीर से भिन्न मानते हैं और शरीर के नष्ट हो जाने पर भी उसकी स्वतंत्र हस्ती रहना स्वीकार करते हैं वे नास्तिक नहीं कहे जा सकते। हम सब ईश्वर की जुदी-जुदी व्याख्यायें करते हैं। हम सब ईश्वर की व्याख्यायें अपनी मरजी के मुताबिक करें तो उतनी ही व्याख्यायें होंगी जितने कि स्त्री या पुरुष होंगे लेकिन इन जुदी-जुदी व्याख्याओं के मूल में भी एक किस्म की अभ्रांत सा दृश्य होगा, क्योंकि मूल तो सब का एक ही है। ईश्वर तो वह अनिर्वचनीय (लाकलाम) वस्तु है कि जिसका हम सब अनुभव करते हैं लेकिन हम सब जिसे जानते नहीं। बेशक चार्ल्स ब्रेडला ने अपने को नास्तिक कहा है, लेकिन बहुतेरे ईसाइयों ने उन्हें ऐसा नहीं माना है। मुख से अपने को ईसाई कहने वाले बहुत से लोगों को मुकाबले में उन्हें ब्रेडला में अपने तई अधिक समानता मालूम हुई थी। भारत से उस भले मित्र की अन्त्येष्टि क्रिया के समय मौजूद रहने का मुझे भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उस समय हमने बहुत से पादरियों को वहाँ देखा। उनके जनाजे के साथ कुछ मुसलमान और बहुतेरे हिन्दू भी थे। वे सब ईश्वर के मानने वाले थे। ब्रेडला ने वैसे ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार किया था जैसा कि वे जानते थे कि उसका वर्णन किया जाता है। उस समय जो शास्त्रीय विचार थे उसके तथा आचार और विचार के भयंकर भेद के खिलाफ उनका पाँडित्य पूर्ण और तेज विरोध था। मेरा ईश्वर ही मेरा सत्य और प्रेम है। नीति और सदाचार ईश्वर है। निर्भयता ईश्वर है। ईश्वर जीवन और प्रकाश का एक मूल है। और साफ भी इन सब से परे है। ईश्वर अन्तरात्मा ही है। वह नास्तिकों की नास्तिकता भी है। क्योंकि वह अपने अमर्यादित प्रेम से उन्हें भी जिन्दा रहने देता है। वह हृदय को देखने वाला है। वह बुद्धि और वाणी से परे है। हम स्वयं जितना अपने को जानते हैं उससे कहीं अधिक वह हमें और हमारे दिलों को जानता है जैसे कहते हैं वैसा ही वह हमें नहीं समझता। क्योंकि वह जानता है कि जो हम जबान से कहते हैं अक्सर वही हमारा भाव नहीं होता। और यह कुछ लोग तो जानकर करते हैं तो कुछ अनजान में। ईश्वर उन लोगों के लिये एक व्यक्ति ही है जो उसे व्यक्ति रूप में हाजिर देखना चाहते हैं। जो उसका स्पर्श करना चाहते हैं उनके लिए वह शरीर धारणा करता है। वह पवित्र से पवित्र तत्व है। जिन्हें उसमें श्रद्धा है उन्हीं के लिए उसका अस्तित्व है। सब लोगों के लिए वह सभी चीज है। वह हम में व्याप्त है और फिर भी हमसे परे है।

क्योंकि वह हमें पश्चाताप करने के लिए मौका देता है। दुनिया में सबसे बड़ा प्रजातंत्र-वादी वही है, क्योंकि वह बुरे-भले को पसन्द करने के लिये हमें स्वतंत्र छोड़ देता है। वह सबसे बड़ा जालिम है, क्योंकि वह अक्सर हमारे मुँह तक आये हुए कोर को छीन लेता है और इच्छा स्वतंत्र की ओट में हमें इतना कम छूट देता है कि हमारी मजबूरी के कारण उससे सिर्फ उसी को आनन्द मिलता है। यह सब हिन्दू-धर्म के अनुसार उसकी लीला है, उसकी माया है, हम कुछ नहीं हैं, सिर्फ वही है और अगर हम हों तो हमें सदा उसके गुणों का गान करना चाहिए और उसकी इच्छा के अनुसार चलना चाहिये। आईये, उसकी वंशी के नाद पर हम नाचें। सब अच्छा ही होगा।

करोड़ों हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, और दूसरे लोग रोजाना अपने स्रष्टा की भक्ति करने के लिए निश्चित किये हुए समय में क्या करते हैं। मुझे तो यह मालूम होता है कि वह तो सृष्टा के साथ एक होने को हृदय की उत्कटेच्छा को प्रकट करना है और उसके आशीर्वाद के लिये याचना करते हैं। इसमें मन की वृत्ति और भावों का ही महत्व होता है शब्दों का नहीं। अक्सर पुराने जमाने से जो शब्द रचना चली आती है उसका भी असर होता है। जो मातृभाषा में उसका अनुवाद करने पर सर्वथा नष्ट हो जाता है। गुजराती में गायत्री का अनुवाद कर उसका पाठ करने पर उसका वह असर न होगा जो कि असल गायत्री में होता है। राम शब्द के उच्चारण से लाखों करोड़ों हिन्दुओं पर फोरन असर होगा और ‘गौड’ शब्द का अर्थ समझने पर भी उसका उन पर कोई असर न होगा। चिरकाल के उपयोग से और उनके उपयोग के साथ संयोजित पवित्रता से शब्दों की शक्ति प्राप्त होती है। इसलिए सबसे अधिक प्रचलित मंत्र और श्लोकों की संस्कृत भाषा रखने के लिए बहुत सी दलीलें दी जा सकती हैं। परन्तु उनका अर्थ अच्छी तरह समझ लेना चाहिये यह बात तो बिना कहे ही मान ली जानी चाहिये ऐसी भक्ति युक्त क्रियायें किस समय करनी चाहिये इसका कोई नियम नहीं हो सकता है। इसका आधार जुदी-जुदी व्यक्तियों के आधार पर होता है। मनुष्य के जीवन में ये लक्ष्य बड़े ही कीमती होते हैं। ये क्रियाएँ हमें नम्र और शान्त बनाने के लिए होती हैं और उससे हम इस बात का अनुभव कर सकते हैं। उसकी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता है और हम तो ‘उस प्रजापति के हाथ में मिट्टी के पिंड हैं।’ ये लक्ष्य ऐसे हैं कि इसमें मनुष्य अपने भूतकाल का निरीक्षण करता है, अपनी दुर्बलता को स्वीकार करता है और क्षमा याचना करते हुए अच्छा कार्य करने की शक्ति के लिए प्रार्थना करता है। कुछ लोगों को इसके लिये एक मिनट भी बस होता है तो कुछ लोगों को 24 घंटे भी काफी नहीं हो सकते हैं।

उन लोगों के लिये जो ईश्वर के अस्तित्व को अपने में अनुभव करते हैं केवल मेहनत और मजदूरी करना भी प्रार्थना हो सकती है। उनका जीवन ही सतत् प्रार्थना और भक्ति के कार्यों में बना होता है। परन्तु वे लोग जो केवल पाप कर्म ही करते हैं प्रार्थना में जितना भी समय लगावेंगे उतना कम होगा। यदि उन में धैर्य और श्रद्धा होगी और पवित्र बनने की इच्छा होगी वे तब तक प्रार्थना करेंगे जब तक कि उन्हें अपने में ईश्वर की पवित्र उपस्थिति का निर्णयात्मक अनुभव न होगा।

यह कहना कि मैं ईश्वर को नहीं मानता, बड़ा आसान है। क्योंकि ईश्वर के बारे में चाहे जो कुछ कहा जाय- उसको ईश्वर बिना सजा दिये कहने देता है। वह तो हमारी कृतियों को देखता है। ईश्वर के बनाए हुए किसी भी कानून के खिलाफ काम करने से वह काम करने वाला सजा जरूर पाता है लेकिन वह सजा सजा के लिए नहीं होती, बल्कि उसे शुद्ध करने और अवश्य ही सुधारने की सिफत रखने वाली होती है। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो नहीं सकता और न उसके सिद्ध होने की जरूरत ही है। ईश्वर तो है ही। अगर वह दीख नहीं पड़ता तो यह हमारा दुर्भाग्य है। उसे अनुभव करने की शक्ति का अभाव एक रोग है और उसे हम किसी न किसी दिन दूर कर देंगे- वह हम चाहें या न चाहें।

प्रार्थना करना याचना करना नहीं है, वह तो आत्मा की पुकार है- वह अपनी त्रुटियों को नित्य स्वीकार करना है। हम में से बड़े से बड़े मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था, दुर्घटना इत्यादि के सामने अपनी तुच्छता का भान हर दम हुआ करता है। जब अपने मनसूबे लमहे भर में मिट्टी में मिलाये जा सकते हैं, जब अचानक या पल भर में हमारी खुद हस्ती मिटाई जा सकती है। जब ‘तुम्हारे मनसूबों’ का मूल्य ही क्या है?

लेकिन अगर हम यह कह सकें कि ‘हम तो ईश्वर के निमित्त तथा उसी की रचना अनुसार ही काम करते हैं’ तब हम अपने को मेरु की भाँति अचल मान सकते हैं। तब तो कुछ फसाद ही नहीं रह जाता। उस हालत में नाशवान कुछ भी नहीं है। तथा दृश्य जगत ही नाशवान् मालूम होगा। लेकिन केवल मृत्यु और विनाश सब असत मालूम होते हैं, क्योंकि मृत्यु या विनाश उस हालत में एक रूपांतर मात्र है-उसी प्रकार जिस प्रकार कि एक शिल्पी अपने चित्र को इससे उत्तम चित्र बनाने के हेतु नष्ट कर देता है और जिस प्रकार एक घड़ीसाज अच्छी कमानी लगाने के अभिप्राय से रद्दी को फेंक देता है।

सामुदायिक प्रार्थना बड़ी बलवती वस्तु है। जो काम हम प्रायः अकेले नहीं करते, उसे हम सबके साथ करते हैं। लड़कों को निश्चय की आवश्यकता नहीं। अगर वे महज अनुशासन के पालनार्थ ही सच्चे दिल से प्रार्थना में सम्मिलित हों, तो उनकी प्रफुल्लता का अनुभव होगा।


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