मंत्र बल से रोग निवारण

April 1953

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री सुरेशचन्द बेदालंकार, हटा)

मानसिक चिकित्सा का आधार संकल्प और आवेश है। जब तक प्रयोजक के मन में प्रबल तथा साधिकार इच्छा और उसका पुनः पुनः आवर्तन नहीं होगा तब तक वह मानसिक शक्ति के प्रयोग द्वारा दूसरे पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेगा। परन्तु इस मानसिक प्रयोग को शीघ्र तथा अधिक प्रभावशाली बनाने की जो क्रियायें की जाती हैं उनमें अभिमर्ष और मार्जन मुख्य हैं।

अभिमर्ष क्रिया को पाश्चात्य विद्वान ‘मेस्मरेजिम कहते हैं और अभिमर्ष क्रिया को ‘पास करना’ कहते हैं। अभिमर्ष उस हल्के स्पर्श का नाम है जो शरीर में सनसनाहट उत्पन्न कर देता है। इसके लिए प्रयोजक को अपने हाथ ढीले रखने चाहिए और अंगुलियों का स्पर्श अंग पर असर न डालने वाला होना चाहिए। यह ऐसा होना चाहिये कि अंगुलियों के आगे सरकने से रोगों के उस अंग में या बाहर भीतर त्वचा में एक संस्पर्श या सनसनाहट उत्पन्न हो। इसका मनुष्य के शरीर पर यह प्रभाव पड़ता है कि जिस अंग में सनसनाहट उत्पन्न होती है वहाँ के आन्तरिक तन्तुओं में विचित्र विद्युत की लहरों जैसी गति उत्पन्न हो जाती है और परिणामतः नाड़ियों की गति तीव्र हो जाती है। इसका न केवल अंग विशेष पर ही प्रभाव पड़ता है अपितु सारे शरीर पर उसका प्रभाव पड़ता है और रोगी अपने अन्दर विद्युत जैसी स्फुरणा अनुभव करता है। इस प्रकार इस क्रिया द्वारा शारीरिक रोग और मानसिक दोष दूर किये जा सकते हैं।

इस अभिमर्ष क्रिया द्वारा मानसिक रोग, स्वप्नदोष, पागलपन, हिस्टोरिया आदि रोगों में बहुत लाभ देखा गया है। स्वप्न दोष के अनेक रोगियों को तो हमने स्वयं इस क्रिया द्वारा लाभ पहुँचाया है। इसका प्रयोग जागृतावस्था की तरह स्वयं सुलाकर या अपने आप सो जाने पर किया जा सकता है। दोनों हालतों में उसमें स्वास्थ्य की भावना भरते हुए कहना चाहिए कि हे योगी, तू चिन्ता न कर मैं अपने हाथों द्वारा तेरे अन्तर से सब प्रकार के विकारों एवं दूषित विचारों को निकाल बाहर कर रहा हूँ और तुझमें भारी बल, वीर्य, स्वास्थ्य और सुख भरता हूँ।”

वेद में अभिमर्ष द्वारा चिकित्सा करने का विधान स्पष्ट रूप में पाया जाता है। वहाँ इसके द्वारा क्षय जैसे भयंकर रोगों को दूर करने का भी विधान है। वास्तव में मनुष्य रोगों की अपेक्षा रोग के भय से अधिक ग्रस्त हैं। हैजा, प्लेग, क्षय और साँपादि के काटने से जितने रोगी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। उनमें से बहुत कम को यह रोग होते हैं- ऐसा डाक्टरों का कथन है। वास्तव में वे भय के कारण रोगी होते हैं। कहते हैं कि एक बार प्लेग किसी गाँव का खात्मा करके लौटी आ रही थी। रास्ते में उससे किसी ने पूछा कि कहो जी गाँव के कितने आदमियों को खाकर आर ही हो? प्लेग ने बड़े सरल भाव से कहा कि तीन और चार व्यक्तियों से ही मेरी तृप्ति हो गई थी, शेष तो सब मेरे ‘भय से ही इस लोक से चल बसे हैं।’ ठीक यही बात दूसरे रोगों के विषय में भी कही जा सकती है। ऐसी दशा में यदि किसी की मानसिक शक्ति को अपने दृढ़ संकल्प और अभिमर्ष क्रिया द्वारा शक्तिशाली बना दें तो वह निश्चित रूप से रोगों का मुकाबला कर सकेगा और स्वस्थ हो सकेगा। अभिमर्ष क्रिया का वर्णन निम्न मंत्र में है-

अयं में हस्तो भगवान्नयं में भगवत्तरः। अयं में विश्वभेषजोऽयं शिवाभि मर्शन।

हस्ताभ्याँ दशशाखाभ्याँ जिह्वावाचः पुरोगवी। अनामयितुलुर्या हस्ताभ्याँ ताभ्याँत्वाभिमृशामसि।

हे मेरे प्रिय रोगी, मेरा यह हाथ बड़ा यशस्वी और फलदायक है और यह दूसरा तो उससे भी अधिक बलवान है। दूसरे तुम्हारे समस्त रोग शान्त हो जायेंगे, तुम्हें सुख और शान्ति मिलेगी। मैं ऐसे ही हाथों से तुझे अभिमर्ष करता हूँ- छूता हूँ। तू निश्चित रूप से स्वस्थ हो जायगा।

यह तो हुई अभिमर्ष क्रिया। दूसरी वस्तु जिसका रोगी पर असर पड़ता है मार्जन या पुरश्चरण है। मनुष्यों के नित्य कर्मों में लिए संध्या का प्रार्थना के रूप में उपयोग किया जाता है उससे भी मार्जन मंत्र का विधान है। मार्जन का अर्थ है माँजना, शुद्ध करना। संध्या में मंत्र के अर्थों पर ध्यान देते हुए सिर आदि अंगों को माँजना या शुद्ध करना होता है। इस मार्जन द्वारा जहाँ मनुष्य अपना मन और अपनी आत्मा को शुद्ध करता है। वहाँ वह इसके द्वारा दूसरों को भी आराम पहुँचाया जा सकता है। यह साधारण जनता में झाड़ फूँक के नाम से कहा जाता है।

इस मार्जन, पुरश्चरण या झाड़ फूँक का जहाँ तक विज्ञान से सम्बन्ध है वहाँ तक तो यह ठीक है। पर जो विज्ञान सम्मत नहीं वह केवल ढोंग तथा मिथ्या है। मार्जन करने के साधन हैं वस्त्र, जल, कूर्च आदि। जब कोई व्यक्ति बेहोश हो जाता है मस्तिष्क में चक्कर आने लगते हैं या कोई विषैला जन्तु काट लेता है तब रोगी को ओझा, साधु या किसी झाड़-फूँक करने वालों के पास ले जाते हैं, वह वहाँ पर पानी के छींटे देकर या गीला कपड़ा सिर आदि पर रखकर अथवा नीम या अन्य किसी वृक्ष की डाली या कूर्च से रोगी को होश में ले आता है। लोग इसे जादू या मंत्र विद्या मानते हैं। परन्तु यदि हम आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन करें तो हमें पता लगेगा कि ‘पानीयं क्षयनाशनं क्लभदर मूर्च्छापिपासदम्’ पानी में, मूच्छा, बेहोशी, थकावट आदि को दूर करने के गुण विद्यमान हैं। आजकल प्राकृतिक चिकित्सा तो लुई कूने द्वारा प्रतिपादित जल-चिकित्सा के व्यवहार द्वारा अनेक रोग ठीक करते हैं।

कूर्च द्वारा रोग दूर करना तो आजकल भी हमारे गाँवों में आम प्रथा है। वहाँ लोग नीमादि वृक्षों की डाली से झाड़-फूँक करते ही हैं। परन्तु बहुत पुराने समय में भी त्वचा के रोग और कृमियों के संसर्ग से उत्पन्न रोगों को दूर करने के लिए चमर मृग (चम्बरी गौ) की पूँछ की बाल मंजूरी का उपयोग करते थे। शरीर में पित्ती उछल आने पर जुलाहे के ताना संवारने वाले (ब्रश) से पुनः-पुनः अनुलोम स्पर्श से पित्ती दब जाती है। इसी प्रकार तृणादि द्वारा यकृत, प्लीहा जैसे रोग झाड़ने वाले और दूर करने वाले पाये जाते हैं। वैसे तो इन सब चीजों का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि रोगी की मानसिक शक्ति को दृढ़ करना और उसे विश्वास दिलाना कि तुम अब बिल्कुल स्वस्थ हो रहे हो।

जनता में यह धारणा भी पाई जाती है कि मंत्र विद्या द्वारा रोग पशु-पक्षियों, वनस्पतियों एवं इतर वस्तुओं पर उतारे जा सकते हैं। मंत्र-विद्या के ज्ञाता, साधु, महात्मा ऐसा करते देखे भी जाते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि प्रभु को यह विचित्र सृष्टि पारस्परिक सहयोग से चल रही है। जो वस्तुऐ मल-मूत्रादि हमारे शरीर को हानि पहुँचाती हैं वह वृक्षादियों के लिए पोषक एवं वृक्षादि के दोष गोंद, छाल और मदादि हमारे लिए लाभदायक हैं। यही कारण है कि बहुत से वृक्ष हमारे दोषों को अपने ऊपर ले लेते हैं, क्योंकि वे उनके लिए लाभदायक होते हैं। सब अपने-अपने अनुकूल दोषों को ही ग्रहण करते हैं प्रतिकूल को नहीं। जैसे यक्ष्मा के रोगी के रोग को दूर करने के लिए देव-दारु का वृक्ष और बकरी तथा बन्दर अधिक उपयोगी हैं। वेद में पीलिया (कामला) रोग को दूसरों पर उतारने के विषय में एक मंत्र आया हैः-

शुकेषुतेहरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि। अथो हारिद्रबेषुते हरिमाणं निदध्यसि॥

हे रोगी, (ते) तुम्हारे (हरिमाणं) हलीमक या कामला रोग को (शुकेषु) तो तों तथा (रोपथाकासु) सदा रोहणा करने वाली हरी-भरी दूब के पौधों में (दध्मति) धरते हैं। और (ते) तुम्हारे (हरिनाणाम्) कामला रोग को (हरिद्रवेषु) दारुहल्दी के वृक्षों पर (निदध्मसि) निहित करते हैं।

वास्तव में कामला रोग के रोगी के पास तोते रखने, उसे हरी-भरी दूब में टहलाने एवं उसका रस पिलाने तथा दारु हल्दी के वन में रखने से आश्चर्य जनक लाभ पहुँचता है और वह स्वस्थ हो सकता है। यही रोग का वृक्षों पर उतारना है।

इसी प्रकार निम्न मंत्र में उन्माद क्षयादि के रोगी को जंगलों एवं पर्वतों पर रखने का विधान है। मंत्र है-

मुँच शीर्षक्तया उस कास एतं परुष्पसराविवेशा यो अस्य। यो आपजा, वातजा यश्चशुव्यो वनस्पतीन्त्सचलाँ पर्वताँश्च।

अर्थात् उन्मादादि शिरो रोग, वार्तिक रोग, पैत्तिक एवं श्लेष्मिक रोग, जो रोगी के जोड़-जोड़ में घुसे हुए हैं उन्हें वनस्पतियों एवं पर्वतों का सेवन करने के द्वारा दूर करना चाहिए।

इस प्रकार मानसिक चिकित्सा के लिए अभिमर्ष और मार्जन यह दोनों क्रियायें अत्यन्त आवश्यक हैं और यदि हम इनका समझदारी और बुद्धिमत्ता पूर्वक उपयोग करें तो अधिकाँश रोगों में हमें सफलता मिल सकती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: