अपने ऊपर विश्वास कीजिए।

April 1953

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(श्री राल्फ वाल्डो एमर्सन)

अपने निजी विचार पर भरोसा करना और जो बात अपने दिल में ठीक जमती है उसको सब लोगों के लिए सही समझना- बस यही ‘प्रज्ञा’ है।

हम मूसा, प्लेटो और मिल्टन की सबसे बड़ी विशेषता यही मानते हैं कि उन्होंने पुस्तकों और पुरानी परम्पराओं पर ध्यान नहीं दिया, और उन्होंने और लोगों के स्वर में स्वर न मिलाकर अपने दिमाग की ही बात कही।

मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा से मिलने वाले प्रकाश की किरण को पहचानने और देखने का अभ्यास करना चाहिये। किन्तु अक्सर होता यह है कि वह अपने विचार को गौर किये बिना ही इस कारण खत्म कर देता है क्योंकि वह उसका अपना होता है। प्रज्ञावान के प्रत्येक काम में हम अपने उन्हीं विचारों की छाया देख सकते हैं, जिन्हें हम खत्म कर देते हैं, वे हमारे पास पराई विभूति बन कर लौटते हैं। महान कलात्मक वस्तुओं के बारे में हमारे लिये इससे बढ़कर और कोई सबक नहीं हो सकता।

हर व्यक्ति के शिक्षा-काल में ऐसा मौका जरूर आता है जबकि वह मानने लगता है कि स्पर्धा करना अज्ञान है, अनुकरण आत्मघात है, उसे अपने ही भरोसे पर अच्छा या बुरा जैसा भी बन पड़े अपना भाग अदा करना चाहिये, और इस विस्तृत भूमण्डल के धन धान्य पूर्ण होते हुए भी उसका पेट भरने लायक मुट्ठी भर अनाज भी उसे तभी हासिल हो सकता है जबकि वह अपने खेत में अपना पसीना बहाये। जो शक्ति उसके अन्दर विद्यमान है वह प्रक्रिया रूप से बिल्कुल नई है, और वह क्या कर सकती है उसे उसके सिवाय दूसरा कोई नहीं जानता, और वह स्वयं भी उसे तभी जान पाता है जबकि वह कोशिश कर देखे।

अपने ऊपर विश्वास रखे, यह विश्वास ही वह अटूट तार है जिसके सहारे हृदय स्पन्दित होता है। प्रेम ने तुम्हारे लिये जो स्थान, समकालीन लोगों को समाज और घटनाओं का संयोग लिख दिया है उसे स्वीकार करो। महापुरुषों ने सदैव ऐसा ही किया है, उन्होंने अपने जमाने के प्रज्ञावानों के सामने अपने को शिशुवत् ही समझा है, उन्होंने अपनी अनुभूति को व्यक्त भी किया है कि उनके हृदय में सर्वशक्ति मान विराजमान है जो उन्हीं के हाथों से अपने काम करता है और उसके समस्त क्रियाकलापों में छाया रहता है।

हम मानव हैं, हमें अपने उस अदृश्य भविष्य को पूरे भरोसे के साथ स्वीकार करना चाहिये- बच्चे या अपाहिज बनकर किसी कौने में दुबकते हुए नहीं। क्रान्ति के समय कायरों की तरह भाग कर जान बचाते हुए नहीं, बल्कि उस सर्वशक्तिमान के आदेश को शिरोधार्य करके अशाँति व अंधकार को चीरते हुये मार्गदर्शक, मुक्ति दाता और परोपकारी बन कर स्वीकार करना चाहिये।

एकाकी होकर जो आवाज सुनाई देती है वह दुनिया के गोरखधन्धे में फँसकर मन्द और अस्पष्ट हो जाती है। समाज सर्वत्र ही अपने प्रत्येक सदस्य के मानव के विरुद्ध षड़यन्त्र किये हुए हैं। समाज एक ऐसी जोइण्ट स्टाक कम्पनी है जिसके सदस्य हर एक भागीदार का पेट अधिक अच्छी तरह भरने के लिये, यह तय कर लेते हैं कि लाभ उठाने वाला अपनी आजादी और संस्कृति का स्वामित्व सौंप दे। जिस गुण का अधिकतम आदर है वह है सहमति। आत्म-विश्वास से तो उसे खास चिढ़ है। समाज वस्तु-स्थिति और निर्माताओं के बजाय नामों और रूढ़ियों पर अधिक ध्यान देता है।

जो कोई भी हो यदि वह मनुष्य होगा तो लकीर पीटने वाला नहीं हो सकता। सबसे बड़ी चीज अपने मन की पवित्रता ही है।

उन पुराणी परम्पराओं का अनुकरण करने में जो तुम्हारे लिए बिलकुल असामयिक हो चुकी है, आपत्ति यही है कि उससे तुम्हारी शक्ति का अपव्यय होता है। उससे तुम्हारा समय बर्बाद होता है और तुम्हारे चरित्र का तेज नष्ट हो जाता है।

यदि तुम एक निर्जीव चर्वे को चलाते हो, एक मृतप्राय बाइबिल-सोसाइटी को चन्दा देते हो, एक बड़ी पार्टी को सरकार बनाने या सरकार का विरोध करने के लिए वोट देते हो, तो मैं इन सभी स्थितियों में ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता कि तुम्हारा व्यक्तित्व क्या है और निश्चय ही तुम्हारे असली जीवन में से इतनी शक्ति बेकार चली जाती है।

हर आदमी को यह समझ लेना चाहिए कि यह सहमति का रास्ता कितना बेहूदा है। यदि मैं तुम्हारे पन्थ को जान लूँ तो मैं तुम्हारे युक्ति क्रम का पहले से ही अन्दाजा लगा सकता हूँ। मैं एक धर्म-प्रचारक को अपने पन्थ की किसी धार्मिक प्रक्रिया की पूर्ण उपादेयता बतलाते हुए सुनता हूँ। क्या मुझे यह पता नहीं है कि उसने सिर्फ एक ही ओर दृष्टि डालने की कसम खा रखी थी और उसका वह स्वीकृत रास्ता एक मनुष्य के रूप में न होकर गिरजे के पादरी की हैसियत से ही है?

कुछ भी हो अधिकाँश लोग तो अपनी आँखें एक या दूसरे रंग की पट्टी बाँध रखते हैं और अपना बन्धन किसी मत या सम्प्रदाय से जोड़ रखा है। उससे सहमति रखकर चलना हर दशा में गलत नहीं होता, किन्तु उसके द्वारा प्रतिपादित हरेक सत्य विशुद्ध सत्य भी नहीं होता। उसका बतलाया हुआ दो असली दो, और चार असली चार, नहीं होता, इसलिए उनका हरेक शब्द हमें परेशान कर देता है।

एक दूसरी चीज जो हमें आत्म विश्वास से दूर-दूर भगाती है, वह है हमारा अतीत की संगति पर बल देना- अपने पिछले कार्यों या वचनों के लिए हमारी आदर-बुद्धि।

किन्तु आप अपने दिमाग को भूतकाल में क्यों उलझाते हो? अपनी पुरानी याददाश्त पर इतना भरोसा क्यों करते हो- शायद इस भय से कि आपको अमुक सार्वजनिक स्थान में कहे गये अपने वचन से पीछे फिरना पड़ेगा? मान लो कि आपको अपनी बात का खण्डन करना पड़ता है, तो उसकी चिन्ता क्या है?

क्षुद्र हृदय वालों पर अतीत से संगति रखने का भूत सवार रहता है, क्षुद्र राजनीतिज्ञ, दार्शनिक और धर्मोपदेशक उसे बड़ा महत्व देते हैं। किंतु महापुरुष को उस संगति से कोई सरोकार नहीं रहता। वह तो उसे दीवार पर पड़ने वाली अपनी छाया जैसा ही समझता है। आप आज जो कुछ सोचते हैं उसी को बाहर प्रकट करें और जो कल सोचें उसे कल मुँह से निकालें, चाहे वह आपकी आज कही हुई बात से बिलकुल ही उलटा क्यों न हो।

ओह, इससे तो आपके बारे में गलतफहमी होना बहुत सम्भव है? पाइथागोरस को लोगों ने गलत समझा, और सुकरात, ईसामसीह, लूथर, कौपर निकस, गैलीलियो और न्यूटन तथा प्रत्येक अन्य महापुरुष व विद्वान गलत समझा गया है।

मुझे आशा है कि इस जमाने में ‘सहमति’ और ‘संगति’ शब्दों की इतिश्री हो जायगी। अच्छा हो कि इन शब्दों का ऐलान करके भविष्य के लिये उन्हें मूर्खता सूचक करार दे दिया जाय। अब हमें और अधिक झुकना व अफसोस जाहिर करना बन्द कर देना चाहिये।

कोई बड़ा आदमी मेरे घर पर दावत खाने आ रहा है। मैं उसे खुश करना नहीं चाहता मेरी इच्छा है कि वह मुझे खुश करने की इच्छा करे। यह बात मैं मानव-मात्र का प्रतिनिधि होकर कहता हूँ उसे चाहे मैं नम्रता से कहूँ पर उसकी यथार्थता में उससे कमी नहीं होगी। हमें इस जमाने की आम चाल और क्षुद्र सन्तोष पर प्रहार करके उनका प्रतिकार करना चाहिए। हमें रीति रिवाजों, परम्पराओं और संस्थाओं की परवाह न करके इतिहास का यह तथ्य सामने रखना होगा कि मनुष्य काम करके ही महान विचारक और क्रियाशील बनता है- सच्चा इंसान किसी स्थान या समय से बँधा नहीं रहता, बल्कि वह स्वयं गतिविधियों का केन्द्र बन जाता है, संक्षेप में, जहाँ वह है वहीं जीवन की सहज स्वाभाविकता है।


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