साधक का सविता को अर्पण
साधक का सविता को अर्पण, शिष्यों का गुरु को समर्पण।
दीपक का ज्योति को, चातक का चंदा को,
गंगा का सागर को अर्पण।।
सबका समर्पण हो ऐसा, दीपक पतंगे के जैसा।
दूरी रहे ना जरा भी, बिन्दू और सिन्धु के जैसा॥
अर्जुन का कान्हा को, राधा कन्हैया को २ बार
वंशी का होठों को अर्पण॥
सच्चा हो अर्पण हमारा, गुरुवर हो सबका सहारा।
खो जायें गुरुवर में ऐसे, अर्पण लगे हमको प्यारा॥
सीपों का मोती को, हिमनद हिमालय को,२ बार
शिशुओं का माता को अर्पण॥
डोरी गुरु को थमायें, गुरुमय ही जीकर दिखायें।
बन जायें कठपुतली हम सब, उनका ही करतब दिखायें॥
भौंरों का सरसिज को, समिधा का अग्नि को,२ बार
बूंदो का बादल को अर्पण॥
गुरु में सभी डूब जायें, अस्तित्व अपना मिटायें।
मैं पन को गुरु में घुलायें, गुरु को ही पहचान पायें॥
दीपक पतंगे को, कंकर का शंकर को, २ बार
नैवेद्य प्रभु को समर्पण॥
मुक्तक- सवितामय गुरुदेव हमारे, सूरज उनका रूप है।
अन्धकार अज्ञान मिटाते, सद्गुरु ज्योति स्वरूप है॥