पंचशाल गांव के लोग आश्चर्यमिश्रित
उत्साह से अभिभूत थे। पहले तो जब उन्होंने भगवान् तथागत के आने
की बात सुनी तो, उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ। भला भगवान् इस छोटे
से पंचशाल गांव में! श्रावस्ती, मगध, कोशल, कोशाम्बी आदि राज्यों के नरेश जिनके लिए पलक पांवड़े
बिछाए रहते थे। जिनके एक दर्शन के लिए सम्पूर्ण भारत भूमि के
महाश्रेष्ठी अपना धनकोष लुटाने के लिए तैयार रहते थे। वे ही
भगवान् इस साधना विहीन गांव में आ रहे हैं। इस समाचार ने जैसे अचानक गांव वालों को भाग्यवान बना दिया। गांव के मुखिया सहित बूढ़े- बच्चे, युवक- युवतियां सभी भगवान् के स्वागत की तैयारियों में जुट गए।
देखते- देखते गांव
का कायाकल्प हो गया। आम्रपल्लव, आम्र मञ्जरी, कदली स्तम्भ एवं
रंग- बिरंगी पुष्प मालाओं द्वारा की गई सज्जा ने सब भाँति पंचशाल गांव को अनूठा बना दिया। गांव की समूची प्राकृतिक समृद्धि भगवान् तथागत के स्वागत के लिए उमड़ पड़ी। कन्याओं के मंगल गान से ग्रामवीथियां
गूँजने लगी। सबके सब अपनी हृदय भावनाओं का अर्घ्य भगवान् के
श्रीचरणों में चढ़ाने के लिए उत्सुक थे। इन भोले ग्रामीणों के भाव
संवेदनों को प्रभु अनुभव कर रहे थे, वे ठीक समय पर आनन्द, तिष्य स्थिविर, मौद्गलायन, सेवत्, रेवत आदि भिक्षुओं के साथ गांव
में पधारे। ग्रामीण जन स्थान- स्थान पर प्रभु का स्वागत करते
हुए उस मंच पर ले गए, जो उन्होंने विशेष तौर पर तथागत के लिए
बनाया था।
पल्लवों एवं पुष्पों से सज्जित मंच पर विराजमान हो तथागत ने
ग्रामीण जनों पर अपनी कृपा की अमृत वर्षा करते हुए मधुर उद्बोधन
दिया। इस उद्बोधन में दिशा बोध था। उद्बोधन के पश्चात् आनन्द ने
ग्रामवासियों से कहा, आप में से जो शास्ता से व्यक्तिगत ढंग से
मिलना चाहते हैं, वे एक- एक करके आ जाएँ। इस कथन को सुनकर
उत्सुक ग्रामीण जन पंक्तिबद्ध हो मंच की ओर बढ़ चले। भगवान् बुद्ध
ने उनमें से प्रत्येक की कुशल पूछी। खेती- बाड़ी और परिजनों के
समाचार जाने। जीवन के प्रकाश पूर्ण पथ पर चलने की प्रेरणा दी।
बुद्ध के आशीषों को पाकर सब के चेहरे पुष्प की भाँति खिल उठे।
मिलने के इस उपक्रम में सबसे अन्त में एक कन्या आगे बढ़ी। वह
जुलाहे की बेटी थी। अट्ठारह वर्ष की इस आयु में ही उसकी
विचारशीलता सभी को चकित कर देती थी। उसकी बुद्धिमत्ता से समवयस्क
ही नहीं गांव
के वृद्धजन भी हैरान हो जाते थे। उसने बुद्ध के पास पहुँच कर
बड़े ही अहोभाव और उल्लास के साथ उनके चरणों पर सिर रखा। उसे
देखकर तथागत मुस्कराए। उनकी यह मुस्कान बड़ी ही रहस्यमयी थी। इसमें
ज्ञान एवं प्रेम का अनोखा सम्मिश्रण था। अपनी अलौकिक मुस्कान के
साथ उन्होंने उससे पूछा- बेटी, कहाँ से आती हो? भंते नहीं जानती हूँ, उसने उत्तर दिया। बुद्ध ने एक और सवाल किया, बेटी- कहाँ जाओगी? भंते, नहीं जानती हूँ। फिर उसने अपना पुराना जवाब दुहराया। क्या नहीं जानती हो, बुद्ध ने पूछा। वह बोली भंते, जानती हूँ। जानती हो- बुद्ध ने पूछा। वह बोली, कहाँ भगवान्, जरा भी नहीं जानती हूँ।
ये अटपटी बातें सुनकर, गांव के वृद्ध उस पर जोर से बिगड़ पड़े। कुछ लोग कहने लगे यह चारूलता
वैसे तो बहुत ही विचारपूर्ण और बुद्धिमानी से भरी बातें करती
है। पर आज यह अचानक बहकी- बहकी बातें क्यों करने लगी है। भला यह
भी कोई ढंग है भगवान् से बातें करने का? यह भी कोई शिष्टाचार
है? वृद्धजनों ने उसे डाँटते हुए कहा- चारू, यह तू किस तरह से बात कर रही है? तू होश में तो है? मालूम है तूझे, तू किससे बात कर रही है?
डाँट- डपट करने वाले इन वृद्धजनों को भगवान् ने टोकते हुए
कहा, उसे डाँटने से पहले आप सब उसकी बातें सुने, जो वह कह रही
है, उसे गुने। फिर उस कन्या की ओर देखते हुए वह बोले, बेटी चारू, तू इनको समझा कि तूने क्या कहा?
इस पर उस कन्या ने कहा- जुलाहे के घर से आ रही हूँ, भगवान् यह तो आप जानते ही हैं। इस सच्चाई से हमारे गांव
के लोग भी वाकिफ हैं। लेकिन मेरी जीवात्मा कहाँ से आ रही है?
मेरा यह जीवन किन कर्मों के परिणाम स्वरूप जन्मा है? यह मैं भी
नहीं जानती हूँ। मैं यहाँ से वापस जुलाहे के घर जाऊँगी, यह मैं
भी जानती हूँ और आप भी जानते हैं। गाँव के लोगों को यह बात
अच्छी तरह से मालूम है। लेकिन इस जीवन के अन्त में जब मृत्यु
होगी, तब मैं कहाँ जाऊँगी, मुझे कुछ पता नहीं है। इसीलिए मैंने
आपसे अभी कहा नहीं जानती हूँ।
शुरूआत
में जब आपने मुझसे पूछा, कि कहाँ से आ रही है, जुलाहे के घर
से? तो मैंने कहा, जानती हूँ। जब आपने पूछा कहाँ जा रही है? मैंने
सोचा कि पूछते हैं, कहाँ वापस जाएगी, जुलाहे के घर? तो मैंने
कहा, जानती हूँ। पर जब मैंने आपको मुस्कराते हुए देखा, आपकी आँखों
में निहारा तो मैंने सोचा, नहीं- नहीं, भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध ऐसे
साधारण प्रश्र
क्या खाक पूछेंगे। वह जरूर मुझसे पूछना चाहते हैं- तू कहाँ से
यानि कि किस लोक से आ रही है? तेरा जीवन स्रोत क्या है? तो
मैंने कहा- भगवान् मैं नहीं जानती हूँ। फिर जब मैंने सोचा कि जब
आप पूछते हैं कि कहाँ जाएगी, तो इसका तात्पर्य यह है कि मरने
के बाद कहाँ जाएगी, तो मैंने जवाब दिया, नहीं जानती।
हल्की हँसी के साथ बुद्ध ने कहा, तूने ठीक सोचा बेटी। तू
सचमुच ही विचारशील एवं बुद्धिमती है। इसी के साथ उन्होंने सभी
ग्रामवासियों को सुनाते हुए यह गाथा कही-
अधं भूतो अयं लोको तनुकेत्थ विपस्सति।
सकुंतो जालभुत्तो व अप्पो सग्गाय गच्छति॥
यह सारा लोक अंधा बना है। यहाँ देखने वाला कोई विरला है। जाल से मुक्त हुए पक्षी की भांति विरला ही स्वर्ग को जाता है।
इस गाथा को और अधिक स्पष्ट करते हुए तथागत ने कहा- बेटी, तेरे
पास आँख है, ध्यान की आँख, विवेक की आँख। इसी कारण तू देखने
में, समझने में समर्थ है। इन लोगों के पास आँख नहीं है। इसी कारण
ये तेरी बातें समझ नहीं सके। आँखवाला
जब कोई बात करता है, तो नेत्रविहीन लोगों को समझ में नहीं आती
है। आँख वाला कहता है- कैसा प्यारा इन्द्रधनुष, पर जिनके पास
आँखें नहीं है, वे उसे मूर्ख समझते हैं। इन सबके बीच एक तू ही
है, जो देखने में सक्षम है। अपने कर्मों के जाल से मुक्त हो तू
अवश्य अपने गन्तव्य को पहुँचेगी। भगवान् की इन बातों को सुनकर
अन्य ग्रामीण जन भी ध्यान के लिए उत्सुक व उत्साहित हुए। ताकि
वे भी तथागत के कृपाप्रसाद से नेत्रवान बन सकें।