अपने दीपक आप बनो तुम

मोहजनित भ्रांति से प्रभु ने उबारा

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        भगवान् बुद्ध ने उस युवक की ओर बड़ी ही करुणापूर्ण मुस्कराहट के साथ देखा। वह युवक उनसे दीक्षा लेकर सन्यस्त होना चाहता था। हालाँकि वह संन्यास के मर्म और धर्म से अपरिचित था। आयु की दृष्टि से भी वह कच्चा था। उसके होठों के ऊपर युवावस्था जताने वाली रेखा भी ढंग से नहीं आ पायी थी। जीवन उसने अभी सही से जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था। माँ- पिता के अति मोह से वह बोझिल हो गया था। इकलौती संतान था, वह अपने माँ- बाप की। शायद इसी कारण वे उसे किसी भी तरह छोड़ते नहीं थे। एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। कहीं जाते तो भी एक ही साथ जाते थे।

माँ- पिता के इस अतिशय मोह ने घबरा दिया। अपनी इस घबड़ाहट में उसे एक ही बात सूझी कि किसी भी तरह इनसे पिण्ड छूट जाये। अपनी इस समस्या का उसे एक ही निदान समझ में आया कि बुद्ध- संघ में सन्यास ले लें। एक बार तो उसने माँ के सामने यह चाहत भी जता दी। इस पर तो वे रोने- चिल्लाने लगे, चीख- पुकार मचाने लगे। माँ- पिता दोनों ने ही उसे समझाया कि बेटा! यह बात ही मत उठाना। उनका मोह भारी था।

      लेकिन जितना ज्यादा उनका मोह बढ़ा, उतनी ही ज्यादा उसकी भागने की इच्छा बलवती होती गयी। यह गणित भी बड़ी सीधी- साफ, स्पष्ट है कि जितनी जोर से तुम किसी को पकड़ोगे, उतना ही वह तुमसे भागने लगेगा। आखिर एक रात वह चुपचाप घर से भाग गया और लुकते- छिपते आखिरकार वह वहाँ तक पहुँच गया, जहाँ पर भगवान् बुद्ध विराजते थे। वट वृक्ष की छाँव में कमलासन पर आसीन भगवान् से उसने सन्यास लेने की प्रार्थना कर डाली। उसकी इस प्रार्थना पर बुद्ध मुस्कराये। उनकी इस मुस्कान में उसके अतीत एवं आगत के अनेकों बिन्दु एक साथ उभरे। भविष्यत् की अनेकों झलकियाँ उन प्रभु की मुस्कान में एक साथ प्रकट होकर रहस्यमय ढंग से विलीन हो गयीं। पर प्रकट में भगवान् ने उसे सन्यास की दीक्षा दे दी।

       घबराए हुए माता- पिता ने उसकी भारी खोज- बीन की। सब जगह खोजा फिर उन्हें याद आया कि वह भिक्षु होने की कभी- कभी बात करता था, तो कहीं संन्यासी तो नहीं हो गया? इसी आशंका को लिए वे बुद्ध संघ में जा पहुँचे। थोड़ी परेशानी के बाद उन्हें उनका बेटा मिल गया। परन्तु अब वह चीवर धारी भिक्षु था। माँ ने तो उसे देखते ही रोना- धोना शुरू किया, छाती पीटी, कपड़े- फाड़े, बाल बिखेरे, लोटी जमीन पर। बाप भी कहाँ पीछे रहता, उसने भी अपने मोह को व्यक्त करने के लिए अनेकों हथकण्डे अपनाए। लेकिन बेटा भी जिद्दी था। उसने भी जिद ठान ली कि अब मैं यहाँ से जाऊँगा नहीं।

आखिर कोई और उपाय न देखकर बाप भी भिक्षु हो गया। बेटे को तो छोड़ पाना मुश्किल था, सो उसने भी सन्यास ले लिया। उसके साथ आयी उसकी पत्नी यानि कि उस युवक की माँ ने भी संन्यास ले लिया। ये तीनों ही फिर से इकट्ठे रहने लगे। अब यह संन्यास बड़ा अजीब हुआ। बेटे को संन्यास में कोई रस नहीं था, बस घर से ऊबा था। बाप को तो संन्यास से कुछ लेना- देना नहीं था, वह बेटे का साथ नहीं छोड़ सकता सो संन्यासी हो गया। रही माँ तो भला उसका मोह उसे किस तरह से छोड़ता तो वह भी भिक्षुणी बन गयी।

     इन तीनों का फिर से वही पुराना क्रम शुरु हो गया। वे साथ ही साथ डोलते, साथ ही साथ बैठते, साथ ही साथ भिक्षा माँगने को जाते, साथ ही साथ बैठकर गपशप मारते। उनका संन्यास और न संन्यास तो सब बराबर था। न ध्यान, न धर्म, न साधन, न कोई सिद्धि इससे इन्हें कुछ लेना- देना नहीं था। भगवान् के वचनों को सुनने की भी इन्हें कोई परवाह नहीं थी। जबकि उन्हें सुनने के लिए लोग हजारों मील से चलकर आते थे और ये तीनों अमृत स्रोत के पास रहते हुए भी मोह विष के पान में मग्न थे। बुद्ध वचनामृत से इन्हें कोई भी मतलब नहीं था।

     इनकी इस विचित्र चर्या को देखकर भिक्षु और भिक्षुणियाँ उनसे परेशान होने लगे। बात भी सच ही थी। यह कुछ अजीब सा ही जमघट हो गया था इन तीनों का। इन्होंने फिर से अपना एक परिवार बसा लिया था। आखिरकार भिक्षुओं ने यह बात शास्ता तक पहुँचायी। वे अन्तर्यामी प्रभु तो जैसे पहले से ही सब कुछ जानते थे। फिर भी उन्होंने इन तीनों को बुलाया। इस बुलाहट में तीनों हड़बड़ाहट हुए से आकर खड़े हो गये। उनके मुखमण्डल पर मोह जनित भ्रान्ति का कुहासा छाया हुआ था।

     स्थिति को जानते हुए प्रभु बोले- भिक्षुओं! यह तुमने किस तरह का संन्यास लिया है? इस प्रश्र का प्रत्येक अक्षर भगवान् की करुणा से ओतप्रोत था। इस करुणा से ये तीनों भी अछूते न रहे। इस स्पर्श की संवेदना से स्नात होकर युवक के पिता ने सत्य कहा- भगवन्! संन्यास से हमें कुछ भी लेना- देना नहीं था। मैं और मेरी पत्नी- बेटे के साथ रहना चाहते हैं। और बैटा है कि सदा ही हमसे भागता रहता है। यह भगोड़ा है, बचना चाहता है। मुझे डर है कि बुरे संग में पड़ जायेगा। सो हम तो इसे बचाने के लिए इसके पीछे- पीछे लगे रहते हैं।

बाप बूढ़ा था। संसार और सांसारिकता ही उसने जानी थी। सो वही बातें उसने प्रभु को बताना शुरु की- आप तो जानते ही हैं भगवान् कि यह जवानी कितनी खराब होती है। बस इसीलिए हम इसको सम्भालने के लिए साथ लगे रहते हैं। सच्चाई यही है कि न इसे संन्यास से कुछ लेना- देना है और न हमें कुछ लेना- देना है। हम तीनों एक साथ रह सकें, इसीलिए हमने संन्यास ले लिया है। हम अलग- अलग नहीं रह सकते।

      उसकी ये बातें सुनकर भगवान् के नेत्रों में करुणा सघन हो आयी। उन्होंने इन तीनों को अपने पास बुलाकर बिठाया और प्रेम से उनके माथे पर अपना वरद हस्त का स्पर्श करते हुए बोले- पुत्र!

अयोगे युञ्जमत्तानं योगस्मिञ्च अयोजयं
अत्थं हित्वा पियग्गाही पिहेतत्तानुयोगिनं॥


    अयोग्य कर्म में लगा हुआ, योग्य कर्म में न लगने वाला तथा श्रेय को छोड़कर प्रेय को ग्रहण करने वाला मनुष्य, आत्मानुयोगी पुरुष की स्पृछ करो।
इन वचनों का सार बताते हुए भगवान् तथागत बोले- जो तुम समझते हो वह मोहजनित भ्रान्ति से बढ़कर और कुछ नहीं है। सत्य को तुम मेरे नेत्रों से निहारो। बुद्ध पुरुषों के मार्ग पर चलने का साहस करो। तुम्हारा जीवन प्रकाशित हो जायेगा। प्रभु के इन वचनों ने उनके अन्तःकरण को प्रकाशित कर दिया। उनका पथ प्रकाशित हो उठा। वे धन्य हो गये।

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