अपने दीपक आप बनो तुम

आसक्ति अनंत बार मारती है

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          भिक्षु तिष्य के मुख पर प्रसन्नता छलक उठी। कभी वह अपने हाथों में पकड़ी हुई मुलायम- कोमल चादर को देखता, तो कभी अपनी बहन सुवर्णा की ओर। सुवर्णा ने कई महीने की कड़ी मेहनत के बाद यह चादर तैयार की थी। इसमें कई रंगों का अनूठा मेल था। कलात्मकता का अद्भुत संगम थी यह चादर। अपने एक हाथ में चादर पकड़े और दूसरे हाथ से उसे बार- बार सहला रहे तिष्य को वर्षा- वास के महीने याद आ गए। भिक्षु संघ के नियमों के अनुसार भिक्षुओं को वर्षा के तीन- चार महीने एक ही स्थान पर रहकर साधना करनी होती थी। वर्षा- वास के बाद भिक्षु जब अपनी प्रव्रज्या हेतु पुनः निकलते तो लोग उन्हें भेंट देते। भेंट भी क्या? थोड़ी सी भेंट लेने की ही उन्हें आज्ञा थी।

      शास्ता के आदेश के अनुसार वे केवल तीन वस्त्र ही रख सकते थे, इससे ज्यादा नहीं। यदि कोई चादर भेंट करता, तो पुरानी चादर छोड़नी पड़ती। इसी तरह यदि कोई भिक्षा पात्र भेंट करता तो पुराना भिक्षा पात्र छोड़ना पड़ता। पिछली वर्षा वास के दिनों के बाद भिक्षु तिष्य जब गाँव से चलने लगे, तो उन्हें एक ग्राम निवासी ने एक चादर भेंट की। यह चादर मोटे सूत की थी। मोटे सूत की मोटी सी चादर ऊपर से छूने में काफी खुरदरी। बड़े बेमन से तिष्य ने उसे अपने हाथों में लिया था। भिक्षु संघ के नियमों के अनुसार वह कुछ कह नहीं सकते थे। तथागत ने नियम ही कुछ ऐसे बनाए थे। इन नियमों के अनुसार भिक्षु को आज्ञा नहीं थी कि उसे जो दिया जाय, उसमें वह शिकायत करे, किसी तरह की कोई कमी निकाले।

लेकिन साधना पथ की प्रधान बाधा चतुराई है। यह चतुराई कोई न कोई तरीका निकाल ही लेती है। तिष्य ने भी अपनी चतुराई से चालाकी भरा मार्ग खोज निकाला। उसी गांव में उसकी बहन सुवर्णा रहती थी। तिष्य को जब यह चादर भेंट की गयी थी, तो पास में वह भी खड़ी थी। सम्भवतः वह अपने भाई को विदा करने आयी थी। भिक्षु तिष्य ने बिना कुछ कहे बड़े ही उदास मन से सुवर्णा के हाथ में वह मोटी चादर थमा दी। वाणी से कुछ न कहने के बावजूद तिष्य के चेहरे की घनी उदासी ने सब कुछ कह दिया था। तिष्य के मनोभावों को एक पल में ही समझकर सुवर्णा ने संकेत से ही उन्हें आश्वासन दिया कि वह थोड़े ही दिनों में उन्हें एक अच्छी सी सुन्दर चादर दे देगी।

       इस आश्वासन से तिष्य की उदासी छटने लगी। सुवर्णा उस चादर को लेकर अपने घर आ गयी। उसने पहले तो उस मोटे सूत वाले चादर को तेज चाकू से पतला- पतला चीर दिया। फिर उसे ओखल में कूटा और धुना। बाद में उससे पतले सूत वाली यह सुन्दर- सुकोमल चादर तैयार की। इस बीच भिक्षु तिष्य बड़ी आतुरता से इस चादर की प्रतीक्षा करते रहे। मन ही मन उन्होंने अपनी कामनाओं और कल्पनाओं को न जाने कितनी बार कितनी तरह बुना। ऐसी होगी सुवर्णा द्वारा बनाई गई चादर। अरे नहीं, वह चादर कुछ वैसी होगी। फिर उसे ओढ़कर इस तरह से चलूँगा, उस तरह से चलूँगा।

       आज वह घड़ी भी आ गयी, जब सुवर्णा ने अपनी महीनों की मेहनत से तैयार की गयी चादर उनके हाथों में थमा दी। उनका मन- मयूर नाच उठा। चादर मिलने के बाद उनकी कल्पनाओं ने कई रंग बदले, फिर वह धीरे- धीरे सघन होकर मनोकाश पर छा गयी। कल्पनाओं के सघन घन में अहंकार की दामिनी भी रह- रहकर दमकने लगी। अब भिक्षु तिष्य यह सोच रहे थे कि ऐसा सुन्दर चीवर तो स्वयं भगवान् तथागत के पास भी नहीं है। अब जब कल मैं चादर ओढ़कर निकलूँगा तो सब को पता चलेगा कि भिक्षु संघ में ऐसा सुन्दर चादर मेरे सिवा किसी दूसरे के पास नहीं है।

        रात होने को आयी थी। इसलिए उस समय तो वह चादर ओढ़ना बेकार था। तिष्य सोच रहे थे कि यदि इस समय इसे ओढ़ भी ले तो अंधेरे में इसे देखेगा भी कौन? और सारा मजा तो दिखाने में है। यही सब सोचते हुए उन्होंने बड़े जतन से, बड़ा ही लाड़- प्यार करके वह चादर अरगनी पर टांग दी। और सोने के लिए बिस्तर पर लेट गए। पर ढंग की नींद भी कहाँ थी। नींद में भी उस वस्त्र के सम्बन्ध में तरह- तरह के स्वप्नं चलते रहे। कब सुबह हो, कब चादर ओढ़कर सबको दिखाऊँ। यही वासना उनके आस- पास मंडराती रही। उस रात उनकी यह वासना भले ही अपूर्ण रही हो, पर उसी रात उनकी आयु पूर्ण हो गयी। रात में ही उनका देहान्त हो गया। उस चादर के प्रति उनकी तृष्णा इतनी बलवती थी कि तिष्य मर कर चीलर हो गए और उसी चादर में छुप कर बैठ गए।

        दूसरे दिन संघ के भिक्षुओं ने उनके मृत शरीर को जलाकर नियमानुसार उस चादर को आपस में बांटने के लिए उठाया। भगवान् तथागत ने भिक्षु संघ के लिए यह नियम बनाया था कि जब कोई भिक्षु मर जाय तो उसकी वस्तुएँ परस्पर बांट ली जाय। जिनके पास न हो, उन्हें दे दी जाय। भिक्षुओं द्वारा उस चादर को छूते ही वह चीलर (कपड़े में रहने वाला कीड़ा) तो पागल हो उठा। वह चीलर और कोई नहीं भिक्षु तिष्य का ही नया जन्म था। अरे हमारी वस्तु तुम सब क्यों लूट ले रहे हो, यह कह- कहकर वह इधर- उधर दौड़ने- चिल्लाने लगा।

        उस चीलर की इस चीख- पुकार को भगवान् बुद्ध के सिवा और किसी ने भी न सुना। भगवान् ने उसकी यह चीख- पुकार सुनी और वह हँसे। हँसते हुए उन्होंने आनन्द से कहा- कि भिक्षुओं से कह दो कि तिष्य की चादर को वहीं की वहीं रहने दें। सातवें दिन वह चीलर मर गया। चीलर की भला आयु ही कितनी। जब तिष्य ही मर गए तो बेचारा चीलर कितने दिन जिएगा। सातवें दिन चीलर के मरने पर भगवान् ने भिक्षुओं से तिष्य की चादर को आपस में बांट लेने को कहा।

         भगवान् के इस तरह के आदेश से भिक्षु थोड़ा चकित थे। उन्होंने जिज्ञासु भाव से भगवान् से एक सप्ताह पहले रुक जाने और फिर आज अचानक उस चादर को बांटने की आज्ञा का कारण पूछा। उत्तर में भगवान् ने हँसते हुए भिक्षु तिष्य के चीलर होने और उसके दुबारा मरने की बात कही। अब तो भिक्षुओं का आश्चर्य और भी बढ़ गया। सबके सब भिक्षु सोच में पड़ गए। भला यह कैसा नियति का विधान। भिक्षु तिष्य को मरने के बाद चीलर होना पड़ा।

भिक्षुओं का समाधान करते हुए भगवान् बोले, कामी अनन्त बार मरता है। जितनी कामना, उतनी बार मृत्यु। क्योंकि जितनी बार कामना, उतने ही बार जन्म। जीवात्मा की हर कामना एक जन्म बन जाती है। साथ ही हर कामना एक मृत्यु भी बन जाती है। यह कहते हुए भगवान् ने भिक्षुओं को यह धम्मगाथा सुनायी-

अयसामलं समुट्ठितं तदुट्ठाय तमेव खादति।
एवं अतिघोनचारिनं सानिकम्यानि नयन्ति दुग्गति॥


  जैसे लोहे में लगने वाली जंग, उससे उत्पन्न होकर उसी को खाती है, ठीक वैसे ही साधनात्मक अनुशासन का उल्लंघन करने वाले मनुष्य के कर्म उसे दुर्गति को पहुँचाते हैं।

इस धम्म गाथा को सुनकर भिक्षुगण सचेत हो गए। आसक्ति हो या फिर ईर्ष्या, द्वेष से भरी- पूरी अहंता। सभी कुछ साधना पथ के जोखिम हैं। इनसे दूर रहने पर ही साधक का कल्याण है। ऐसा आत्म चिन्तन करते हुए भिक्षुओं ने तथागत को प्रणाम किया और ध्यान के लिए चले गए।




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