अपने दीपक आप बनो तुम

सच्चा ब्राह्मण

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        सारिपुत्र के तप एवं ज्ञान की प्रभा से श्रावस्ती जनपद का कण- कण प्रकाशित हो रहा था। नगरवासी उनके गुणों की कथा कहते और सनते हुए नहीं अघाते थे। स्थविर सारिपुत्र उनके लिए मानवीय आदर्श की जीवन्त मूर्ति थे। उन्हीं से इन सभी नगरजनों ने जीवन के सत्य और मर्म को जाना था। नगरवासियों के लिए ये महाभिक्षु जीवन जीने की कला के आचार्य थे। नगरजनों में से किसी को भी जब भी कोई आशंका होती, वे उनके पास पहुँच जाते। उनकी निकटता में सहज ही उन सबको समाधान के सार्थक सूत्र मिल जाते।

सारिपुत्र के इन अनुदानों से श्रावस्ती के नगरजन कृतार्थ और कृतकृत्य थे। इस कृतकृत्ययता एवं कृतार्थता ने पुरवासियों के हृदय में सघन श्रद्धा का रूप ले लिया था। इसकी अभिव्यक्ति घर- आंगन, गली- चौबारों, नगर- वीथियों में जब- जब होती रहती थी। इस अभिव्यक्ति से जहाँ साधक एवं साधुजन प्रोत्साहन पाते थे। वहीं ईर्ष्यालु एवं कुटिल जनों के हृदय पीड़ित जो उठते थे।

       उस दिन सांझ के क्षणों में भी कुछ यही हुआ। श्रावस्ती की पंचग्र चौक पर बहुत से नगर जन एकत्र होकर सारिपुत्र की प्रतिभा, उनके तपस्वी जीवन की प्रशंसा कर रहे थे। वहीं पास में खड़ा एक बुद्ध विरोधी ब्राह्मण भी यह सुन रहा था। ज्यों- ज्यों प्रशंसा के स्वर उसके कानों में पड़ते त्यों- त्यों वह ईर्ष्या और क्रोध की आग में झुलसता जाता। उसके इस अन्तर्दाह से बेखबर किसी एक श्रद्धालु नगरजन ने कहा; हमारे आर्य ऐसे सहनशील हैं कि आक्रोश करने वालों या मारने वालों पर भी क्रोध नहीं करते हैं।

       इस बात से तो वह ब्राह्मण एकदम ही जल उठा। उसके अन्तर्दाह की लपटें तीव्र हो उठी। अपनी छटपटाहट भरी अकुलाहट में वह पूर्णतया विवेक शून्य हो गया। उससे चुप न रहा गया और विष बुझे स्वर में बोला, अरे तुम सब लोग बकवादी हो। भला ऐसा भी कहीं होता है। उन्हें कोई क्रोधित करना जानता ही न होगा। देखो मैं उन्हें क्रोधित करके दिखाता हूँ।

प्रत्युत्तर में नगरवासियों का जोरदार ठहाका गूँज उठा। इस ठहाके की गूँज से उस ब्राह्मण की क्रोधवह्नि और प्रबल हो उठी। उसने तेज स्वर में कहा कि तुम सब जिसे असम्भव समझते हो उसे मैं सम्भव करके दिखाऊँगा। नगरवासी उसके इस कथन पर हँसने लगे और उन्होंने कहा, यदि तुम उन्हें क्रोधित कर सकते हो, तो करो।

       एक प्रबल हुंकार के साथ इस चुनौती को स्वीकार करके वह ब्राह्मण वहाँ से चला गया। अब उसे बस उचित अवसर की तलाश थी। एक दिन दोपहर में उसे यह अवसर मिल गया- स्थविर सारिपुत्र उस समय भिक्षाटन के लिए जा रहे थे। तपती हुई दोपहर में वह नंगे पाँव चले जा रहे थे। उनकी देह पर केवल एक पीत चीवर भर था। उन परम तपस्वी को इस तरह से जाते हुए देख उस निर्मम ब्राह्मण ने पीछे से जाकर लात से पीठ पर जोर से मारा।
आघात प्रबल था। परन्तु स्थविर सारिपुत्र रंचभर भी विचलित न हुए। उन्होंने तो पीछे मुड़कर देखा भी नहीं। वे तो ध्यान में जागे हुए, ध्यान के दीए को सम्हाले चल रहे थे। सो वे वैसे ही चलते रहे। उस दुर्बुद्धि ब्राह्मण के आघात पर उन्हें रोष के स्थान पर प्रसन्नता ही अधिक हुई। इस प्रसन्नता का कारण था कि ऐसे में भी उनका मन स्थिर रहा। हालांकि साधारण तौर पर ऐसी दशा में मन का डांवाडोल हो उठना स्वाभाविक है। पर उनके साथ कुछ और ही हुआ। उनका मन निष्कम्प बना रहा और ध्यान की ज्योति और भी थिर हो उठी। उनके भीतर इस तरह से ताल का आघात करने वाले ब्राह्मण के प्रति आघात के सिवा और कुछ भी न था।

इस घटना से वह निष्ठुर ब्राह्मण भी भारी चकित हुआ। उसे इस तरह से अप्रत्याशित व्यवहार की बिलकुल भी उम्मीद न थी। उसकी अन्धता दूर हो गयी। सन्त की कृपा से उसे ज्ञान चक्षु मिले। वह सारिपुत्र के चरणों में गिर पड़ा। प्रायश्चित्त के भावों के साथ उसने भरे हृदय से क्षमा प्रार्थना की। और उन्हें घर ले जाकर भोजन कराया। अभी भी उसकी आँखें पश्चाताप के आँसुओं से भरी थी और वे आँसु उसके सारे कल्मष को बहाकर उसकी आत्मा को निर्मल कर रहे थे।

         इस तरह सारिपुत्र के माध्यम से उस ब्राह्मण के ऊपर भगवान् तथागत की कृपा की किरण पड़ी।

      परन्तु इस घटना की अनेकों प्रतिक्रियाएँ उठी। इनमें से कुछ तो नगरवासियों के अन्तर्हृदय में उपजी। तो कुछ भिक्षुसंघों के सदस्यों के मन में पनपी। संघ के कई भिक्षुओं कों  स्थविर सारिपुत्र का यह व्यवहार नहीं जँचा। उन्होंने भगवान् तथागत से शिकायत भरे स्वरों में कहा- हे प्रभु! आर्य सारिपुत्र ने यह अच्छा नहीं किया।

     क्या भन्ते? बुद्ध ने हलके से स्मित के साथ कहा। उत्तर में कुछ भिक्षुओं ने कहा- यही मारने वाले ब्राह्मण के घर पर जाकर उन्होंने भोजन जो किया। अब भला वह किसे बिना मारे छोड़ेगा। इस तरह तो वह भिक्षुओं को मारने की आदत बना लेगा। अब तो बस वह भिक्षुओं को मारता हुआ ही विचरण करेगा।

     भिक्षुओं के इस कथन पर शास्ता ने कहा; भिक्षुओं! ब्राह्मण को मारने वाला ब्राह्मण नहीं है। सारिपुत्र ने वही किया जो कि सच्चे ब्राह्मण के लिए उचित है। क्या तुम्हें यह पता नहीं है कि सारिपुत्र के ध्यानपूर्ण व्यवहार ने एक अन्धे आदमी को आँखें प्रदान कर दी हैं।

इसी के साथ उन्होंने उन भिक्षुओं को प्रबोध करने वाली ये गाथाएँ कहीं-
ब्राह्मणस्सेतदकिंञ्चि सेय्यो यदा निसेधो मनसो पियेहि
यतो यतो हिंसमनो निवत्तति ततो ततो सम्मति एव दुक्खं॥

जटाहिगोत्तेहिजत्त्वा हीति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चञ्च धम्मो च सो सुचीब्राह्मणो॥


अर्थात्- ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों को मन से हटा लेता है। जहाँ- जहाँ मन ङ्क्षहसा से निवृत्त होता है, वहाँ- वहाँ दुःख शान्त हो जाता है।

न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य और धर्म है, वहीं शुचि है, वही ब्राह्मण है।

      भगवान् तथागत अपनी इन गाथाओं को सुनाकर मौन हो गए। लेकिन उनके इस मौन में भी एक सन्देश मुखरित था- जो सुनने वाले साधकों के मनो को निर्मल बना रहा था।
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