अपने दीपक आप बनो तुम

वीतराग रेवत की सन्निधि का चमत्कार

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   विवाह के बन्धन में बंधते- बंधते वह अचानक मोक्ष की राह पर चल पड़े। इस अचानक पर सभी को भारी अचरज हुआ। जिसने भी यह चमत्कार देखा ठगा सा रह गया। रिश्ते- नाते, घर- परिवार, मोह- ममता के धागे सबके सब टूट कर गिर गए। और आयुष्मान रेवत सघन वन में प्रवेश कर गए। यह चमत्कार एक सुरति ने, एक स्मृति ने कर दिखाया। रेवत, स्थविर सारिपुत्र के छोटे भाई थे। सारिपुत्र को भगवान् तथागत का अनुग्रह मिला था। वह बुद्ध के अग्रणी शिष्यों में थे। वह उन दुर्लभतम लोगों में थे, जिन्हें भगवान् ने कृपा करके बुद्धत्व का परम प्रसाद दिया था।

   रेवत जब विवाह के लिए जा रहे थे, तो बैंड- बाजों के बीच, सुहागिनों के मंगल गीतों के बीच, कन्याओं की कुहेलिकाओं के बीच, लावण्यमयी ललनाओं की लालिमा के बीच उन्हें अपने अग्रज की याद आ गयी। रास- रस के प्रसंग में उन्हें अपने भ्राता सारिपुत्र का स्मरण हो गया। सारिपुत्र की प्रीति, उनकी स्नेहभरी बातें, उनके द्वारा कहे गए प्रबोध वचन सभी कुछ याद हो आए। फिर तो जैसे राग के अंधेरे में विराग का सूरज चमक उठा। रेवत की बरात पहुँची ही जा रही थी विवाह मण्डप के पास जहाँ पुरोहित तैयार थे। स्वागत का व्यापक आयोजन था। रूप- लावण्य की छटा बिखरी थी। पर रेवत तो जैसे इन सबसे अलग अपने आप में खोए थे। वह अपने अन्तर्गगन में चमक उठे विराग के सूर्य में समाते जा रहे थे।

इस विराग के सूर्य की प्रभा में सारा आयोजन विलीन हो गया। सारा लौकिक सौन्दर्य भगवान् के प्रेम की अलौकिकता में खोने लगा। भ्राता सारिपुत्र द्वारा सुनाए गए भगवान् के प्रसंग सब पर भारी पड़े। रास- विलास, हास- परिहास का अंधियारा छंटने लगा, हटने लगा, मिटने लगा। और रेवत घोड़े से उतर कर वन की डगर पर चल पड़े। वैराग्य की महातपन में परिजनों की पुकारों के ओसकण कब- कहाँ सूखे पता ही न चला। उनकी चिन्तन- चेतना की कड़ियाँ तो तब टूटी, जब उन्हें जंगल में बुद्ध के भिक्षुओं का दर्शन हुआ। इस दर्शन ने उनके मन में प्रज्वलित हो रहे वैराग्य को नयी चमक दी। वैराग्य की इस अनोखी प्रभा से घिरे आयुष्मान रेवत ने उनसे प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।

    आयुष्मान रेवत अब चीवरधारी परिव्राजक रेवत हो गए। भिक्षुओं ने उनसे आग्रह किया कि वह उनके साथ तथागत के दर्शनों के लिए चलें। तथागत के स्मरण मात्र से ही रेवत पुलकित हो गए। उनके नेत्रों से अश्रु छलक उठे। इस प्रभु भक्ति के साथ उनके मन में एक अन्य पवित्र भाव जगा। इस भाव से भीगे हुए रेवत ने भिक्षुओं से कहा- हे भिक्षुओं! यह सच है कि भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध के दर्शनों की मुझे तीव्र अभिलाषा है। पर मैं सोचता हूँ कि पहले योग्य तो हो लूं, तब उन भगवान् के दर्शन को जाऊँ। पहले कुछ पात्रता तो हो मेरी। पहले आँख तो खोल लूं, जो देख सके उन्हें। पहले हृदय तो निखार लूं, जो झेल सके उन्हें। पहले भूमि तो तैयार कर लूं, ताकि वे भगवान् जब अपने बीज फेंके, तो बीज यूं ही न चले जाएँ। पहले इस योग्य तो हो लूं तब उनके दर्शनों को जाऊँ।

  रेवत के इन वचनों ने भिक्षुओं को हर्षित कर दिया। वे सब नमो बुद्धस्य का जाप करते हुए अपने गन्तव्य की ओर चल पड़े। जबकि रेवत वहीं पास के खदिर वन में अपनी एकान्त, ध्यान और मौनचर्या में संलग्र हो गए। उनकी साधना निरन्तर समग्र होती गयी। उन्होंने अपनी सारी शक्ति ध्यान में उड़ेल दी। सात वर्षों की समग्र साधना करके वह अर्हत्व को उपलब्ध हो गए। भगवत्ता उनके भीतर ही उमग आयी। तथागत को सार रूप में उन्होंने अपने भीतर ही पा लिया। इस भावदशा ने उन्हें एक मुश्किल में डाल दिया। पहले वे इसलिए नहीं गए थे कि बिना योग्य बने भगवान् से मिलने कैसे जाऊँ। और अब तो भगवान् स्वयं ही अन्तर्चेतना में आ विराजे। तो अब जाने की जरूरत ही न रही।

  इस मुश्किल में पड़े रेवत के भावाश्रु उन्हें भिगोने लगे। वह सोचने लगे कि पहले इस लिए नहीं गया कि पात्र हो जाऊँ। और अब जाऊँ क्या? क्योंकि जिसे देखने चला था, उसके दर्शन तो भीतर ही हो गए। जिस गुरु को बाहर खोजने चला था वह तो भीतर ही मिल गया। सो रेवत अपने आप में ही मग्र होकर जंगल में ही रहने लगे।

     इधर अन्तर्यामी भगवान् अपने भक्त की भावदशा से परिचित होकर स्वयं सारिपुत्र आदि स्थविरों के साथ वहाँ पहुँचे। वह जंगल बहुत भयंकर था। रास्ते उबड़- खाबड़ और कंटकाकीर्ण थे। जंगली पशुओं की छाती को कंपा देने वाली दहाड़ें भरी दोपहरी में भी सुनायी देती थी। लेकिन रेवत की साधना का प्रभाव कुछ ऐसा था कि भिक्षुओं को इसकी कोई खबर ही न मिली उन्हें न तो रास्तों का उबड़- खाबड़ होना पता चला और न जंगली जानवरों की दहाड़ें सुनायी पड़ी, न ही कांटों से भरा जंगल दिखाई पड़ा, उन्हें तो सब तरफ फूल ही फूल खिले दिखाई पड़ते थे। उन्हें तो सब तरफ जंगल की परम शान्ति ध्वनित होती मालूम पड़ रही थी।

रेवत ने ध्यान में भगवान् को आता हुआ देख उनके लिए सुन्दर आसन बनाया। घास- पात, फूल- कलियाँ जो भी उन्हें मिल सका, उसी से उन्होंने प्रभु का आसन सजा दिया। भगवान् उस खदिर वन में एक माह रहे। फिर वे रेवत को लेकर वापस लौटे। लौटते समय दो भिक्षुओं के कमण्डलु और भी कुछ सामान वहीं छूट गया। सो वे मार्ग से लौटकर उसे लेने आए। लौटकर उन्होंने जो देखा तो जैसे उनको अपनी आँखों पर भरोसा ही न आया। शायद किसी और को भी न आता। क्योंकि वह जंगल अति भयानक लग रहा था। जंगली पशुओं की दहाड़ें कानों को कंपा रही थी। रेवत का निवास भी कांटों से भरा था। वे तो भरोसा ही न कर सके। कि इतना बड़ा परिवर्तन, भला किस तरह घटित हो गया।

    श्रावस्ती लौटने पर महोपासिका विशाखा ने उनसे पूछा- इन दो भिक्षुओं से- आर्य रेवत का निवास कैसा था? मत पूछो उपासिके! वे भिक्षु बोले, मत पूछो। ऐसी खतरनाक जगह हमने कभी नहीं देखी। बस जैसे- तैसे बचकर आ गए। पता नहीं आर्य रेवत वहाँ किस तरह से रहते थे। इनकी यह बात सुनकर विशाखा ने और भिक्षुओं से भी यह बात की। उन्होंने कहा- आर्य रेवत का स्थान स्वर्ग से भी सुन्दर है। मानो ऋद्धि से बनाया गया हो। सुरम्य और सुन्दर स्थान तो हमने बहुतेरे देखे हैं। मगर परम तपस्वी रेवत जहाँ रह रहे थे, वैसा स्थान तो शायद देवताओं को भी सुलभ नहीं रहा होगा। इतनी शान्ति इतनी प्रगाढ़ शान्ति। ऐसा सन्नाटा। ऐसा अपूर्व संगीतमय वातावरण, इस धरती पर कोई दूसरा नहीं है।

        इन विपरीत मन्तव्यों ने विशाखा को चौंका दिया। वह चकित होने के साथ भ्रमित भी हुई। उसने सच्चाई भगवान् से जाननी चाही। तथागत के समीप पहुँचकर उसने कहा- प्रभु! आर्य रेवत के निवास स्थान के सम्बन्ध में पूछने पर आपके साथ गए हुए भिक्षुओं में कोई उसे नर्क जैसा और कोई उसे स्वर्ग जैसा बताते हैं। सत्य क्या है? विशाखा की इस बात पर भगवान् हँसे और बोले- उपासिके जब तक वहाँ रेवत का वास था, वह स्वर्ग जैसा था। क्योंकि जहाँ रेवत जैसे ध्यानी ब्राह्मण विहरते हैं वह स्थान स्वर्ग जैसा हो जाता है। लेकिन उसके हटते ही वह नर्क जैसा हो गया। जैसे दिया हटा दिया जाय और अंधेरा हो जाए, ऐसे ही। मेरा पुत्र रेवत अर्हत हो गया है, ब्राह्मण हो गया है। उसने ब्रह्म को जान लिया है।

और तब उन्होंने ये गाथाएँ कही-

आसा यस्य न विज्जन्ति अस्मिं लोके परम्हि च।
निरासयं विसं युत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
यस्सालयावज्जिन्वि अञाय अकथंकथी
अमतोगधं अनुप्पतं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥


इस लोक और परलोक के विषय में जिसकी आशाएँ नहीं रह गयी हैं। जो निराशय और असंग हो- उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जिसे आलय- तृष्णा नहीं है, जो जानकर वीत सन्देह हो गया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।

    और ऐसे ब्राह्मण जहाँ भी रहते हैं, वहाँ सारे चमत्कार स्वयं ही घटित होते हैं। भगवान् के इन वचनों से विशाखा परम प्रबोध को पा गयी।
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