अपने दीपक आप बनो तुम

पूर्णा चली पूर्णता की डगर पर

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     राजगृह की भूमि इन दिनों तथागत के चरण स्पर्श से पावन हो रही थी। भगवान् यहाँ एक आम्रकुञ्ज में विराज रहे थे। उनके साथ भिक्षु संघ के अनेकों सदस्य भी थे। जो नित्य प्रति अपने शास्ता के अमृत वचनों से धन्य होते थे। राजगृह के नगर जन भी भगवान् के सान्निध्य का लाभ लेने के लिए रोज आते थे। हालांकि इनकी संख्या रोज घटती- बढ़ती रहती थी। सांसारिक जीवन की अनेकों उलझनें, तरह- तरह की लालसाएँ उन्हें जब तक रोक लेती। आज भी अनेकों पग यहाँ तक नहीं पहुँच सके थे। वजह यह थी कि नगर में आज शरद पूर्णिमा के महोत्सव की धूम मची थी।

      युवक- युवतियों की अठखेलियों से नगर की वीथियाँ गूँज रही थी। शमा कुछ ऐसा था कि जैसे धरती पर नहीं आकाश में भी यह उत्सव मनाया जा रहा हो। निरभ्र नीलगगन में चन्द्रदेव की शोभायात्रा आज पुरी सज- धज के साथ निकल रही थी। वे भी तारक- तारिकाओं के समुदाय से घिरे थे। यही नहीं आज वे शरद पूर्णिमा के महोत्सव के अवसर पर मुक्त हाथों से अपने चाँदनी के कोष को लुटा हरे थे। उनके द्वारा बरसायी जा रही यह चाँदनी नगर की वीथियों में भी झर रही थी और प्रभु की उपस्थिति से धन्य हो रहे इस आम्रकुञ्ज में भी। नगर जन जहाँ आज की चाँदनी वृष्टि को अपने हास- विलास के लिए उत्प्रेरक मान रहे थे, वहीं भिक्षुओं के लिए इसका अर्थ भिन्न था। वे तो इसे बस निर्मल मन की अजस्र सम्पदा के रूप में देख रहे थे।

    पूर्णा भिक्षुओं की इस मनोदशा से अनजान थी। उसके जीवन के मानदण्ड उनसे अलग थे। वह जीवन को यश, ऐश्वर्य एवं भोग के रूप में परिभाषित करती थी। वह परम रूपवती तो थी ही। उसे अपने सौन्दर्य पर भारी घमण्ड भी था। इस सौन्दर्य को अधिक से अधिक निखारना ही उसके लिए परम पुरुषार्थ था। अपने नित्य नवीन शृंगार से सभी को चकित करते रहना उसके जीवन का सबसे बड़ा रोमांच था। आज तो उसने कुछ विशेष ही शृंगार रचा था। यौवन से दीप्त सौन्दर्य का साकार रूप बनी वह मदिर गति से अपने कक्ष में घूम रही थी। उसके आभूषणों की चमक रूप ज्वाला की लपट बनकर समूचे कक्ष में फैल रही थी। काम की कन्या सी कमनीय पूर्णा को आज अपने प्रिय की प्रतीक्षा थी। उसके सभी हाव- भाव यही सन्देश दे रहे थे।

      प्रतीक्षा से व्याकुल पूर्णा की दृष्टि उस आम्रकुञ्ज पर पड़ी, जहाँ भगवान् अपने भिक्षुओं के साथ विराज रहे थे। उसने देखा अनेक भिक्षु शानत बैठे हैं, अनेक भिक्षु खड़े हैं, अनेक भिक्षु चल- फिर रहे हैं। यह देखकर उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने सोचा इतनी रात गए ये भिक्षु भला क्या कर रहे हैं? क्यों जाग रहे हैं। उसने सोचा कि मैं तो अपने प्रिय की प्रतीक्षा में जाग रही हूँ। मेरे जागरण का कारण तो विरह की व्याकुलता है। लेकिन भला इन्हें किसकी प्रतीक्षा है। ये किसके विरह की व्याकुलता में जाग रहे हैं। ऐसा सोचते हुए वह एक कुटिल हंसी हंस दी। और अपने आप ही बोली, अरे सब भ्रष्ट हैं, ढोंगी हैं, पाखण्डी हैं। इन्हें भी अपने प्रमियों, प्रयेसियों की प्रतीक्षा होगी। अन्यथा आधी रात इस तरह से जागते रहने का क्या प्रयोजन है।

उसकी इस विडम्बनाग्रस्त मनःस्थिति से अवगत अन्तर्यामी भगवान् तथा दूसरे दिन सुबह उसके द्वार पर भिक्षाटन के लिए गए। वह तो बहुत चौंकी। एक पल को सोला कि भला यह यहाँ क्यों आ गया। पाखण्डियों का ही गुरु है, तो होना तो पाखण्डी ही चाहिए। मन में तो आया कि अभी भगा दें। लेकिन सामने खड़े इस शान्त मुद्रा व्यक्ति को भगा न सकी। वह इन्कार करना चाहकर भी इन्कार न कर सकी। पहले तो कुछ क्षणों तक चुप खड़ी रही। फिर उसने भगवान् को किसी तरह से भोजन कराया।

      भगवान् ने बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आदर भाव के साथ उसके द्वारा दिया गया भोजन ग्रहण किया। बाद में भोजनोपरान्त उन्होंने उससे कहा- पूर्णे, तू मेरे भिक्षुओं की निन्दा क्यों करती है। भगवान् के इस कथन पर वह अवाक् रह गयी। मन की अचकचाहट उसके चेहरे पर उभर आयी। उसे उनके वचनों पर भरोसा ही न आया। क्योंकि उसने यह बात किसी से न कही थी। वह बोली, भंते कैसी निन्दा। निन्दा तो मैं कभी नहीं करती। मैने कब की निन्दा? भगवान् मुस्कराते हुए बोले, रात की सोच, रात तूने क्या सोचा था?

      तथागत के इस कथन पर पूर्णा बहुत शरमिन्दा हुई। और फिर उसने सारी बात कह सुनायी। शास्ता ने उससे कहा- पूर्णे, तू अपने दुःख से नहीं सोयी थी, और मेरे भिक्षु अपने आनन्द के कारण जागते थे। तू विचारों- विकारों के कारण नहीं सोती थी, जबकि मेरे भिक्षु ध्यान कर रहे थे। वे निर्विकार होने के कारण नहीं सोए थे। पूर्णा ये बातें करते हुए तथागत का मुखमण्डल करूणा से दीप्त हो उठा। वह अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले- नींद और नींद में भेद है पूर्णे। इसी तरह से जागरण और जागरण में भी बड़ा भेद है। यह नया जागना सीख, पागल, पुराना जागना कुछ खास जागना नहीं है। सोए- सोए तो सब गंवाया ही गंवाया। अब कुछ कमा भी ले।

इसी के साथ उन्होंने यह धम्म गाथा कही-

सदा जागरमानानं अहोरत्तानुसिक्खिनं
निब्बानं अधिकयुत्तानं अत्थं गच्छति आसवा॥


जो सदा जागरूक रहते हैं और दिन रात सीखते रहते हैं तथा निर्वाण ही जिनका एकमात्र उद्देश्य है, उनके ही आश्रव नष्ट होते हैं।

   भगवान के मुख से इस धम्मगाथा को सुनकर पूर्णा जैसे गहरी नींद से जागी। उसकी आँखों से प्रायश्चित की वेदना और जिज्ञासा की आतुरता एक साथ छलक आयी। भावों की सघनता के कारण वह कुछ बोल तो नहीं पायी, पर अपलक नेत्रों से भगवान् को निहारती रह गयी। उसके इस परिवर्तन पर अपनी करूणा का जल ढारते हुए भगवान् अपने द्वारा कही गयी कथा का मर्म उजागर करते हुए बोले-

जागते वही हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं। और जिनका शिष्यत्व सम्पूर्ण है, वे सीखने से कभी चूकते नहीं। दिन हो कि रात, सुबह हो या सांझ, अपना हो या पराया, शत्रु हो या मित्र, कोई घृणा करे या प्रेम, कोई गाली दे या सम्मान, वे सीखते ही रहते हैं। जो हर चीज को अपने शिक्षणमें बदल देने की कला जानते हैं, वही निर्वाण को अपना लक्ष्य बना पाते हैं। शरीर और मन की सीमाओं से मुक्त होर सर्वव्यापक चेतना में लीन होने के लिए जो उत्सुक हैं। जो अपनी बूँद को सागर में गिरा देने के लिए उत्सुक हैं, ऐसा ही व्यक्ति अंधेरे के पार जाता है। प्रभु की इस वाणी को सुनकर पूर्णा पूर्णता की डगर पर चल पड़ी। उसके साथ और भी अनेकों पग इस ओर चलने के लिए उत्सुक हुए।
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