अपने दीपक आप बनो तुम

प्रभु प्रेम की कसौटी, उनका ध्यान

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     सूर्यदेव ने अपना रथ पश्चिम दिशा की ओर मोड़ लिया था। आकाश में उभरती हुई लालिमा एक छोर पर सिमटने लगी थी। प्रकृति में सूर्यदेव के थोड़े समय बाद अस्ताचल में जाकर विश्राम करने के संकेत स्पष्ट होने लगे थे। चारों ओर पक्षियों में यही चर्चा थी। वे अपनी भाषा में यही चर्चा करते हुए अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे। इन पखेरुओं जैसा ही कुछ हाल बुद्ध संघ के भिक्षुओं का था। वे भी अपने शास्ता के परिनिर्वाण की चर्चा करने में लगे थे। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि ऐसे में क्या करें? बस चिन्ता, वेदना और विषाद की लहरें उसके मन को अनवरत भिगो रही थीं।

        यह स्थिति तब से थी, जब एक दिन वैशाली में विहार करते हुए भगवान ने भिक्षुओं से कहा- ‘भिक्षुओं, सावधान! मैं आज से चार माह बाद परिनिवृत्त हो जाऊँगा। मेरी घड़ी करीब आ रही है। मेरी विदा का क्षण निकट आ रहा है। इसलिए जो करने योग्य हो, करो। अब देर करने के लिए समय नहीं है।’ तथागत के ये वचन गर्म लू के झोंकों की भांति संघ के समस्त भिक्षुओं के अन्तःकरण को झकझोरने लगे। जिसने जहाँ भी यह खबर सुनी, वही विह्वल हो गया।

       सभी भिक्षुओं में बड़ा भय उत्पन्न हो गया। सारा भिक्षु संघ महाविषाद में डूब गया। कुछ ऐसा लगा, जैसे अचानक अमावस हो गयी। भिक्षु रोने लगे, छाती पीटने लगे। विषाद में डूबे इधर- उधर बिलखने लगे। भिक्षुओं के झुण्ड- झुण्ड यहाँ- वहाँ इकट्ठे होकर रोते हुए सोचते, अब क्या होगा! अब क्या करेंगे! कई तरह की चिताएँ उनको सता रही थी। कइयों को चिन्ता थी कि शास्ता के बाद संघ की व्यवस्था कैसे चलेगी? कई ऐसे थे जो सोच रहे थे कि परिनिर्वाण के बाद भगवान का उत्तराधिकार किसे मिलेगा?

        कुछ ऐसे भी थे, जिनकी चिन्ताएँ थोड़े अलग किस्म की थीं। वे भगवान की देह के श्रद्धा- पूजा के मोह में थे। महाबुद्ध की महिमामय देह थोड़े दिनों बाद नहीं रहेगी, यह सोचकर वे विकल हो उठे। अपनी इस विकलता में वे भगवान की देह से जुड़ी चीजें जैसे- पुराने चीवर, कमण्डल आदि अपने लिए समेटने लगे। इस समेटा- बटोरी में उनमें आपस में थोड़ा सा मनमुटाव की नौबत भी आ गयी। इस चिन्ताकुल भिक्षुओं में कइयों ने अपने भविष्य की चिन्ता खाए जा रही थी। भिक्षु संघ में कई तरह की चिन्ताएँ अंकुरित हो रही थी। इनके रूप और प्रकार भले ही सब के लिए अलग- अलग हों पर प्रायः सभी को काई न कोई चिन्ता पाश जकड़े था।

       लेकिन, भिक्षु तिष्य स्थविर की स्थिति इन सभी से काफी कुछ अलग थी। भगवान के भावी परिनिर्वाण की खबर सुनने के बाद वे न तो रोए, न ही उन्होंने किसी से कुछ कहा। शास्ता की पुरानी- नयी चीजों को भी बटोरने की उन्होंने कोई चेष्टा नहीं की। वे बस मौन हो गए। उन्हें इस तरह अचानक चुप हुआ देख दूसरे भिक्षुओं ने उनसे पूछने की कोशिश की, आपुस, आपको क्या हो गया है? क्या भगवान के जाने की बात से आपको इतना सदमा पहुँचा है? क्या आपकी वाणी खो गयी है? आप रोते क्यों नहीं? आप बोलते क्यों नहीं? तिष्य स्थविर को इस तरह चुप हुआ देख भिक्षुओं को डर भी लगा कि कहीं यह पागल तो नहीं हो गए?

       भिक्षुओं का ऐसा सोचना बहुत गलत भी नहीं था। आघात ही ऐसा था कि कोई संवेदनशील हृदय सहन न कर पाए। ऐसे में पागल होना भी सम्भव था। जिनके चरणों में सारा जीवन समर्पित किया हो, उनके जाने की घड़ी आ गयी। जिनके सहारे अब तक जीवन की सारी आशाएँ बांधी थी, उनके विदा होने का क्षण आ गया। यह कठिनतम स्थिति थी। ऐसी स्थिति में भिक्षुओं की शंकाएँ स्वाभाविक थी। लेकिन, तिष्य जो चुप हुए, सो चुप ही हो गए। वे भिक्षुओं की किसी भी शंका का कोई जवाब नहीं दे रहे थे। उनके जीवन में एकदम सन्नाटा हो गया था। वह एकदम मौन- शान्त और एकान्त थे।

         भगवान के परिनिर्वाण की चिन्ता से चिन्तित भिक्षु थोड़ा और भी हैरान- परेशान हुए। अपने सद्व्यवहार के कारण तिष्य स्थविर सभी का प्रिय था। वह सहजरूप से सेवा परायण, मिलनसार, हंसमुख एवं मृदुभाषी था। उसकी अचानक चुप्पी सभी को खल रही थी। लेकिन कोई भी इस चुप्पी का समुचित कारण खोजने में असमर्थ था। पहले ही से चिन्तित भिक्षु इस एक नयी चिन्ता के दंश से विकल हो उठे। स्वयं इसके समाधान में असफल रहने पर उन्होंने भगवान के श्री चरणों में इस समस्या को निवेदित करने की बात सोची।

अन्ततः यह बात भगवान के पास पहुँच ही गयी कि भिक्षु तिष्य स्थविर को अचानक कुछ हो गया है। इन दिनों उन्होंने अपने आपको बिलकुल बन्द कर लिया है। जैसे कछुआ समेट लेता है अपने को और अपने भीतर हो जाता है, कुछ ऐसे ही उन्होंने अपने आप को अपने भीतर समेट लिया है। तिष्य स्थविर की सारी स्थिति का बयान करते हुए भिक्षुओं ने उन्हें अपनी शंकाएँ भी जता डालीं- यह कहीं, किसी तरह के पागलपन का लक्षण तो नहीं है? कहीं आपके निकट भविष्य में परिनिवृत्त होने की बात का आघात इतना तो गहन नहीं पड़ा कि उनकी स्मृति खो गयी है, वाणी विलीन हो गयी है।

         भिक्षुओं की इन सारी बातों को सुनकर भगवान एक पल को आत्मनिमग्र हुए। पर अगले ही पल वह मुस्करा दिए। उन्होंने तिष्य स्थविर को अपने पास बुलाया। भिक्षु तिष्य स्थविर ने भगवान के समीप आकर उनके चरणों में माथा नवाया और मौन भाव से एक ओर बैठ गए। भगवान ने ङ्क्षवहस कर उनसे पूछा- वत्स! ये भिक्षु तुम्हारी स्थिति में बारे में जानना चाहते हैं। इनके सन्तोष के लिए तुम इन्हें अपनी भावदशा कहो। जैसी आज्ञा प्रभु! तिष्य बोले और उन्होंने कहना शुरू किया- आप चार माह बाद परिनिवृत्त होंगे, मैंने जब ऐसा सुना तो मैंने सोचा कि मैं तो अभी अवीतराग हूँ। आपके रहते हुए ही अर्हत्व पा लेना चाहिए। यही सोचकर मैं ध्यान में ही अपनी समस्त शक्ति उड़ेलने लगा हूँ।

       यह कहते हुए तिष्य संयमित वाणी से बोले- आपने भिक्षुओं को यही आदेश दिया था, जो करने योग्य है, करो। देर मत करो। भगवन्! मैं आपके आदेश को यथासाध्य पालन करने की कोशिश कर रहा हूँ। अब आपसे आशीर्वाद मांगता हूँ कि मेरा संकल्प पूरा हो। आपके जाने से पहले तिष्य स्थविर विदा हो जाना चाहिए। आँसू भरी आँखों से तिष्य बोले- भगवन्! मैं अपने लिए मौत की मांग नहीं कर रहा हूँ। यह तिष्य स्थविर नाम का जो अहंकार है, यह विदा हो जाना चाहिए। मैं अपना प्राण पण लगा रहा हूँ, आपका आशीर्वाद चाहिए।

   तिष्य के इस कथन में शास्ता के प्रति प्रगाढ़ भक्ति थी। उन्हें भगवान की कृपा शक्ति पर विश्वास था। वह अपना हृदय भगवान के श्री चरणों में उड़ेलते हुए कह रहे थे- अब न बोलूँगा, न हिलूँगा, न डोलूँगा। क्योंकि सारी शक्ति इसी पर लगा देनी है। आपके वचन मुझे सदा स्मरण रहते हैं। आपने कहा था- भिक्षुओं सावधान हो जाओ और जो करने योग्य है करो। तो मुझे यही करने योग्य लगा कि ये चार महीने जीवन की क्रान्ति के लिए लगा दूँ, पूरा लगा दूँ। इस पार या उस पार। मैं आपके आदेश पालन में तनिक सी भी कमीं नहीं छोड़ना चाहता।

तिष्य के उद्गार सुनकर भगवान ने यह गाथा कही-
पविवेकं रसं पीत्वा रसं उपसमस्स च।
निद्दरो होति निष्पापो धम्मपीति रसं पिवं॥


एकान्त का रस पीकर, शान्ति का रस पीकर मनुष्य निडर होता है। और धर्म का प्रेमरस पीकर निष्पाप होता है।

     धम्मगाथा के भाव को प्रकाशित करते हुए भगवान बोले- एकान्त का अर्थ है, अपने भीतर डुबकी लो। कहीं दूर भागने का अर्थ एकान्त नहीं है। एकान्त का मतलब इतना ही है कि अब तक तुमने सम्बन्धों में बहुत ज्यादा ऊर्जा खपायी। उसे सम्बन्धों से मुक्त करो, आत्मलीन बनो। ऐसे एकान्त में ही शान्ति का रस घुला है। शून्यता की इस शान्ति रस को पीकर मनुष्य निडर होता है। फिर जीवन में कोई पीड़ा नहीं, कोई दुःख नहीं। जिसने इस भावदशा का स्वाद चखा, वहीं धर्म का प्रेमरस पीकर निष्पाप होता है। उसे ही धर्म का बोध होता है। वही निर्वाण की निष्पाप भावदशा को प्राप्त होता है।
 
     अपने द्वारा कही गयी धम्म गाथा के अर्थ को प्रकट कर भगवान कहने लगे- भिक्षओं, तिष्य इस धम्म गाथा को अपने जीवन में सार्थक कर रहा है। जो मुझ पर स्नेह करता है, उसे तिष्य के समान होना चाहिए। यही तो वह सत्य है, जो मैंने कहा था कि करो। रोने- धोने से क्या होगा? रो- धोकर तो जिदगियाँ बिता दी तुमने। चर्चा करने से क्या होगा? झुण्ड के झुण्ड बनाकर विचार करने से और विषाद करने से क्या होगा। तुम मुझे तो न रोक पाओगे। मेरा जाना निश्चित है। रो- रोकर तुम यह क्षण भी गंवा दोगे। आँसू किसी भी काम नहीं आएँगे।

        तिष्य स्थविर ने ठीक ही किया है। इसने मेरे प्रति अपने प्रेम को ध्यान बना लिया है। यह मेरी वास्तविक पूजा कर रहा है। अपनी वाणी के वेग कुछ पलों के लिए मन्द कर भगवान ने तिष्य की ओर कृपा पूर्ण दृष्टि से निहारा और पूर्ववत कहना शुरू किया- गन्धमाला आदि से पूजा करने वाले मेरी पूजा नहीं करते। वह वास्तविक पूजा नहीं है। जो ध्यान के फूल मेरे चरणों में रोज चढ़ाता है, वही मेरी पूजा करता है। ध्यान ही मेरे प्रति प्रेम की कसौटी है। रोओ मत ध्याओ। मेरी पुरानी जीर्ण वस्तुओं के मोह में मत बंधो, ध्याओ

इसी के साथ भगवान ने फिर से एक धम्मगाथा कही-
धीरज्ज् पञ्चञ्च बहुस्सुतंधोरय्हसीलं वतंवतमरियं
तादिसं सप्पुरिसं सुमेधं भजेथक्खत्तपथंचंदिमा॥


इस तिष्य को देखो, यह धीर है, प्राज्ञ है, बहुश्रुत है, शीलवान है, व्रतसम्पन्न है, आर्य है, बुद्धिमान है, इसका अनुगमन करो। रोओ- धोओ मत। इसके पीछे जाओ। इससे सीखो। जो इसे हुआ है, वही तुम अपने में होने दो।

      महाबुद्ध के इन वचनों को सुनकर भिक्षुओं की क्षुब्ध अर्न्चेतना शान्त होने लगी। उनकी चिन्ता में से चिन्तन के स्वर फूटने लगे। सभी ने देखा तिष्य स्थविर ने शान्त भाव वे उठकर भगवान को प्रणाम किया। उसे आशीष देते हुए तथागत की वाणी मुखरित हुई-

कोलाहल से काल की निद्रा नहीं टूटती
न धक्के मारने से समय का द्वार खुलता है।
ध्यान के व्यूह में जाओ
नीरवता और शान्ति को सिद्ध करो
ध्यान की गहनता और एकान्त
शक्ति के असली स्रोत है
भीड़ के कोलाहल से बचो
लक्ष्य को ध्यान के शर से विद्ध करो!

इस बुद्ध की वाणी में सभी के लिए प्रबोध था। सभी इस पर निदिध्यासन करते हुए अपने कुटीरों की ओर चल पड़े।

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