भिक्षु दिव्यांशु
व्यवहार में विनम्र थे। उनकी वाणी की सौम्यता मिलने वालों को
सहज प्रभावित करती थी। संघ के अधिकाँश सदस्य उन्हें सरल- सीधे,
कर्मठ- कार्यकुशल मानते थे। दिव्यांशु
को अपनी इस छबि पर भारी मान था। मन ही मन वह इसे अपनी
उपलब्धि मानते थे। कई बार तो वह अन्य भिक्षुओं को यह भी जता
देते थे कि वह भगवान् तथागत के दूर के रिश्तेदार हैं। तथागत
का उन पर भारी भरोसा है। उनसे अधिक भगवान् का और कोई नजदीकी
नहीं है। इन सब बातों के आधार पर कइयों ने तो यह भी मान लिया
कि भविष्य में वही भिक्षु संघ का संचालन करेंगे। इस मान्यता को
यदा- कदा भिक्षु दिव्यांशु अपना समर्थन भी दे देते थे।
हालाँकि भिक्षु संघ के कई सदस्य इस तरह की बातों पर प्रायः हंस देते थे। क्योंकि उन्हें मालुम
था कि बुद्धत्व की परम्परा बोध के अधिकार पर यकीन करती है।
इसका व्यवस्था के संचालन जैसी क्षुद्रताओं से कोई लेना- देना नहीं
है। ऐसों में खेत- महाकाश्यप
आदि सम्बुद्ध भिक्षुओं का नाम लिया जाता था। भौतिक ऐश्वर्य से
विहीन किन्तु यौगिक ऐश्वर्य से भरपूर इन महा साधकों के यथार्थ
को देख पाने में सभी आँखें समर्थ नहीं थी। ज्यादातर तो दिव्यांशु को ही भावीकर्त्ता- धर्त्ता, संचालक एवं सब कुछ मान बैठे थे। इन मानने वालों को सृष्टि के नियम, विधान एवं पराप्रकृति की सूक्ष्मताओं के रहस्य का ज्ञान नहीं था।
जिन्हें बोध था, जो ज्ञानी थे, वे सत्य से सर्वांग परिचित थे। महाकाश्यप, खेत एवं महाभिक्षु मौद्गलायन को यह सत्य मालुम था कि ऊपरी तौर पर सरल, शिष्ट, शालीन, विनम्र एवं व्यवहार कुशल दिखने वाले भिक्षु दिव्यांशु आन्तरिक तौर पर अनेकों मनोग्रन्थियों से ग्रसित हैं। महात्वाकाँक्षाओं के वृश्चिक दंश उन्हें सतत्
पीड़ा देते हैं। पर निन्दा वृत्ति उनमें कूट- कूट कर भरी है। ये
षड्यंत्रों की कुटिल व्यूह रचने में काफी प्रवीण है। अपनी ही
जैसी वृत्ति वाले कई साथी भिक्षुओं का इन्हें भरपूर सहयोग
प्राप्त है। दूसरों के चरित्र हनन में इन्हें परम सुख मिलता है।
इस सुख की अनुभूति के लिए ये हर पल षड्यंत्र की सारी सीमाओं
को पार करने के लिए तैयार रहते हैं।
ऐसी कुटिलताओं
से उनका श्वास- श्वास भर गया था। वे तर्क में कुशल होने पर भी
ध्यान में अपरिचित थे। वे क्षुद्र में कुशल थे, पर विराट् में
उनकी अकुशलता थी। वह हर बात पर लोगों को हरा सकते थे, हर उपाय
से हरा सकते थे। लेकिन अभी खुद की जीत भीतर हुई न थी। शब्द के
धनी ये भिक्षु दिव्यांशु मौन में परम दरिद्र थे। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि भीतर मौन की दरिद्रता हो तो आदमी बड़ा बकवासी हो जाता है। वह अपनी क्षुद्रताओं को छिपाये भी कैसे। अपनी नग्रता
को भला किस तरह से छिपाये। बस शब्दों के वस्त्र ओढ़ लेता है।
शब्दों के आधार पर भूला रहता है कि मैंने मौन नहीं जाना।
और प्रायः ऐसा हो जाता है कि जब तक शब्द मौन से न आये, तब
तक व्यर्थ होता है। जब तक शब्द आन्तरिक शून्य से पगा हुआ न आये तब तक बेजान होता है। जब यही शब्द भीतर ही रसधार
से पग कर आता है, जब यह शून्य के गर्भ से उपजता है, तब इसमें
सार होता है। लेकिन लोग नासमझ हैं इस सत्य को समझते नहीं हैं।
वे व्यर्थ की बातों में आनन्द लेते हैं। किसी के घर जाकर कोई
कूड़ा- करकट डाले तो झगड़ा हो जाता है। लेकिन किसी के दिमाग में
कोई कितना ही कूड़ा- करकट डाले, कोई झगड़ा नहीं होता। उल्टे वह बड़े
प्रेम से सुनता है, वह कहता है कि और सुनाइये। भिक्षु दिव्यांशु
ऐसा करने में ऐसी ही बातों को सुनाने में परम प्रवीण थे।
हालाँकि वह तथागत के सामने अच्छे और सच्चे होने का ढोंग करना
नहीं भूलते थे।
एक दिन उनकी कुटिल प्रवृत्तियों ने नया षड़यंत्र
करने की ठानी हुआ यूँ कि उन दिनों संघ में एक नये भिक्षु का
प्रवेश हुआ था। बड़े ही निश्छल एवं निष्कपट साधक थे यह। भगवान्
उन्हें आत्मीय भाव से विशुद्धि कहकर बुलाते थे। बड़ा आन्तरिक स्नेह
था शास्ता का उन पर। तथागत का यह आन्तरिक प्रेम, वह भी अभी-
अभी भिक्षु बने विशुद्धि पर। यह दिव्यांशु
से सहन न हुआ। और उन्होंने विशुद्धि के चरित्र को कलुषित करने
की पूरी योजना बना डाली। स्वयं पर्दे की ओट में रहते हुए भी
उन्होंने षड़यंत्र के सारे सरंजाम जुटा दिये।
संघ की एक भिक्षुणी और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर उन्होंने
यह अपवाद फैला दिया कि भिक्षु विशुद्धि कितने कलुषित एवं
दुश्चरित्र हैं। आर्य विशुद्धि का सम्बन्ध कभी वह एक से जोड़ते
कभी दूसरे से। अपने आन्तरिक कलुष का जितना कीचड़ उनपर फेंक रहे थे। विशुद्धि निर्विकार भाव से सब कुछ सहन करते जा रहे थे। क्योंकि उन्हें भरोसा भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध अन्तर्यामी का है, जो परमज्ञानी है फिर किससे और कहाँ अपनी सफाई दे। उन्होंने अपना सब भार तथागत के चरणों में समर्पित कर दिया और अपने कर्त्तव्य कर्म में एकाग्र हो गये।
विवाद एवं प्रवाद
की यह लहरें शास्ता तक भी पहुँची। पहले तो वे मुस्कराये। पर
संघ के कुछ सदस्यों का मन रखने के लिए उन्होंने लौकिक ढंग से
पड़ताल की। पलभर में षड़यंत्र का भेद खुल गया। सारी स्थिति उजागर हो गयी। भगवान् तथागत ने भिक्षु दिव्यांशु को बुलवाया। आते ही उन्होंने अपनी सारी विनम्रता का प्रदर्शन करते हुए- भगवान् के सामने अपने निरापराध होने की कहानी सुना दी। उन्होंने शास्ता के सामने एक नया झूठ कह सुनाया। इस झूठ को सुनकर शारन्ता करुणापूर्ण हो उठे। उनके हृदय में इस भिक्षु के लिए सहज प्यार उफन पड़ा।
उन्होंने स्नेहमयी वाणी से उसे सन्मार्ग का पथ दिखाते हुए कहा- विजय मूल्यवान् नहीं है, प्रिय दिव्यांशु।
फिर सत्य को छोड़कर जो विजय मिले, वह तो हार से भी बदतर है।
सत्य ही एकमात्र मूल्य है और जहाँ सत्य है वहीं उसकी विजय है।
सत्य के साथ हार जाना भी विजय और सौभाग्य है और झूठ के साथ
जीत जाना भी दुर्भाग्य है। वत्स, ऐसा करके तू श्रमण नहीं होगा। क्योंकि जिसने सारी कुटिलताओं एवं महत्वाकाँक्षाओं को शमित कर दिया है, उसे ही मैं श्रमण
कहता हूँ। पहले तो महत्त्वाकाँक्षा ही ध्यान में बाध है। उसके
ऊपर इससे कुटिल प्रवृत्तियों का जुड़ जाना- यह तो बड़ी ही
विक्षिप्त स्थिति है- पुत्र।
ऐस कहते हुए भगवान् ने ये धम्म गाथाएँ कहीं-
न मुंडकेन समणो अब्ब तो अलिकं मणं
इच्छालाभ समापन्नो समणो किं भविस्सति॥
यो समेति पापानि अणु थूलानि सब्बसो।
समितत्ता हि पापानं समाणोति पवुच्चति॥
‘जो व्रत रहित और मिथ्याभाषी हैं, वह मुण्डित मात्र हुआ होने पर भी श्रमण नहीं होता। इच्छालाभ से भरा हुआ पुरुष क्या श्रमण होगा? जो छोटे- बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पापों के शमन के कारण ही श्रमण कहलाता है।’ - शास्ता के इन वचनों ने सभी भिक्षुओं के साधन की नयी राह दिखाई। उनके लिए ध्यान को परम मार्ग प्रशस्त किया।