अपने दीपक आप बनो तुम

निंदा छोड़ो-ध्यान सीखो

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        श्रेष्ठी अतुल श्रावस्ती के महाधनपति थे। उनके नाम की हुण्डियाँ पूरे देश में चलती थीं। विश्व के अनेक बन्दरगाहों पर उनके व्यापारिक जलयान खड़े रहते थे। दुनिया भर के प्रतिष्ठित व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में श्रेष्ठी अतुल के नाम की धाक थी। सभी उनके व्यापार प्रबन्धन के कायल थे। उन्हें लेकर अनेकों किम्वदंतियाँ देश भर के नगर जनपदों के साथ देशान्तरों में फैली थी। धन अर्जन के साथ श्रेष्ठी अतुल की अभिरूचि धर्म अर्जन में भी थी। हालांकि इस क्षेत्र में वे अभी तक अकुशल थे। फिर भी गाहे- बगाहे इसके लिए कोशिशें करते रहते थे। कभी- कभी यहाँ भी वह अपनी व्यापारिक तकनीकें अपनाने से नहीं चूकते थे। सोच यही थी कि शायद इस तरह व्यापार की भाँति धर्म में भी सफलता मिल जाय।

इसी वजह से वह भगवान् तथागत के धम्म संघ को भरपूर दान देते थे। समय- समय पर अपने जनपद के अनेक लोगों के साथ भगवान् के दर्शनों के लिए पहुँचते थे। किसी के पूछने पर बताते थे कि इस तरह से तथागत के यश का विस्तार होगा। उनके संघ का प्रचार होगा। साल में कम से कम चार उनकी इस तरह की यात्राएँ होती थीं। हालांकि जितनी बार वे जाते थे, उतनी ही बार वह संघ की निन्दा, भिक्षुओं पर कटूक्ति भरे व्यंग करने से नहीं चूकते थे। बड़ी अनोखी भावदशा थी उनकी- बुद्ध संघ में जाना भी और संघ की निन्दा भी करना। हाँ, इतना जरूर था कि उनके मन में कहीं बुद्ध के प्रति प्रीति का अंकुर भी था।

          इस सबार भी वह पाँच सौ व्यक्तियों के साथ भगवान् के संघ में धर्म श्रवण के लिए आए थे। इन पाँच सौ व्यक्तियों में देश भर के गणमान्य नागरिक एवं प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। कई विदेशी जन भी इस बार उनके साथ थे। इन सबके साथ संघ में आते ही उन्होंने भिक्षुओं से कहा- कि इन सभी को अविलम्ब तथागत से भेंट करनी है। तुरन्त ही इसकी व्यवस्था की जाय। भिक्षुओं ने उनकी बात ध्यान से सुनकर विनम्र स्वर में कहा- भन्ते! पहले आप महास्थविर रेवत से मिल लें। उनकी देशना सुनें। इसके बाद यदि वह उचित समझेंगे तो शास्ता से मिलने की व्यवस्था हो जाएगी।

         भिक्षुओं के इस उत्तर से श्रेष्ठी अतुल बुरी तरह से झुंझला उठे। उन्होंने लगभग गरजते हुए कहा- तुम लोग शायद मुझे जानते नहीं। अन्यथा ऐसी हिम्मत व हिमाकत न करते। खैर चलो, देखें तो सही ये महास्थविर रेवत आखिर हैं कौन? इसी तरह झल्लाते और झुंझलाते हुए श्रेष्ठी अतुल अपनी पूरी मण्डली के साथ स्थविर रेवत के पास पहुँच गए। एक बड़े सभागार में उन सभी को बिठाया गया। स्थविर रेवत भी वहाँ एक आसन पर बैठे थे। उन्होंने इन सभी को देखा, देखकर भावभरा नमन किया, पर कुछ बोले नहीं। थोड़ी देर तक तक सभागार में सन्नाटा छाया रहा।

         लेकिन इस सन्नाटे में श्रेष्ठी अतुल के अन्तर्मन में भारी शोरगुल मच गया। उनकी झुंझलाहट और भी बढ़ गयी। उन्होंने सभी को उठने का संकेत दिया और स्वयं भी उठ खड़े हुए। स्थविर रेवत को छोड़कर ये सभी द्वार से बाहर निकल गए। द्वार से निकलते ही इनकी भेंट स्थविर सारिपुत्र से हो गयी। उन्होंने इन्हें मधुर वचनों से शान्त करने का प्रयास किया। अनेक दृष्टान्तों से उनको समझाया। परन्तु अतुल और उनके मित्रों का क्रोध बढ़ता गया। आखिरकार हारकर स्थविर रेवत ने इन सबको आनन्द के पास भेज दिया। आनन्द स्वभाव से परम शान्त थे। भगवान् तथागत के चरणों में उनकी अविरल भक्ति थी। उन्होंने भी इन सबको समझाने की, शान्त करने की भरसक कोशिश की। लेकिन बात बनी नहीं।

हार- थक कर वह इन सबको भगवान् के पास ले गए। भगवान् के पास पहुँचते ही श्रेष्ठी अतुल का गुस्सा फूट पड़ा। उन्होंने शिकायती लहजे में कहा- भगवान् आपके भिक्षुओं को बिलकुल भी समझ नहीं है। ये न तो आपको ठीक तरह से समझते हैं और न ही इन्होंने मुझे ढंग से समझा। श्रेष्ठी की इन बातों पर तथागत मुस्करा दिए। और इसी मन्द मुस्कान के साथ वह बोले- तुम भिक्षुओं को छोड़कर अपनी बात कहो श्रेष्ठी।

           ऐसा कहने पर उसने भगवान् से कहा- भन्ते! मैं इतनी प्रबल आशा से धर्म श्रवण के लिए आया था। लेकिन स्थविर रेवत कुछ बोले ही नहीं, चुपचाप बैठे रहे। भला यह भी कोई बात हुई। मैं अकेला भी नहीं, पाँच सौ लोगों को साथ लेकर आया था। हम सभी काफी दूर से आए थे। बड़ा नाम सुना था रेवत का कि ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। आपके बड़े शिष्य हैं। लेकिन यह क्या बात है कि हम सब बैठे रहे और वे चुपचाप बैठे रहे, कुछ नहीं बोले। मुझे तो उनका यह रवैया बिलकुल भी नहीं जमा।

          फिर हम सब सारिपुत्र के पास गए। सारिपुत्र बोले, लेकिन इतना बोले कि सब हमारे सिर पर से बह गया। वे जरूरत से ज्यादा ही बोले। उन्होंने न जाने कैसी अटपटी और उलझी हुई बातें कीं। कि हमारी पकड़ में तो कुछ भी नहीं आया। हम सबकी तो ऐसी हालत हो गयी कि बैठे- बैठे उबासी आने लगी। कईयों को तो उबकाई आने लगी कुछ की तो झपकी लग गयी। और कई तो सो गए। अब आप ही कहें किसी को इतना बोलना चाहिए क्या? इस तरह की सूक्ष्म एवं अटपटी बातें करनी चाहिए।

        अरे भई, बोलना है तो ऐसे बोलो जो कि हमारी समझ में आए। उन्होंने तो इतना ज्यादा कहा कि हमें जो थोड़ी- बहुत समझ थी, वह भी समाप्त हो गयी। यह सारिपुत्र तो बड़े बातूनी हैं, हमेशा बकवास भरी बक- बक करते रहते हैं। बड़ा अजब तमाशा रहा- एक सज्जन तो चुपचाप बैठे रहे, बोले ही नहीं। उनसे एक बूंद भी न मिली। और ये दूसरे सज्जनतो ऐसे बरसे मूलसलाधार कि जो हाथ में था, वह भी बह गया।

         फिर हम उन्हें सुनने के बाद आनन्द के पास गए। उन्होंने बहुत थोड़ा कहा। अत्यन्त सूत्र रूप में बोले, हम सबकी पकड़ में तो कुछ आया ही नहीं। अरे यह भी कुछ बात हुई। उन्हें इतना तो सोचना चाहिए कि कुछ फैलाकर कहें, समझाकर करें। कुछ दृष्टान्त कहें, कहते- कहते कुछ दोहराएँ भी ताकि हमारी समझ में आए। ये सूत्र तो बड़े कठिन होते हैं। हमारी समझ में आए भी तो कैसे? अब हार- थक कर हम आपके पास आएँ हैं। आपके इन तीनों शिष्यों पर हमें बहुत ही क्रोध है।

भगवान् ने श्रेष्ठी अतुल की बातें ध्यान से सुनी। और हँसते हुए उन्होंने ये धम्मगाथा कही-

योराणमेतं अतुल! नेतं अञ्जनमिव
निन्दन्ति तुष्हीमासीनं निन्दन्ति बहुमाणिनं
मितमाणिनम्पि निन्दन्ति नत्थि लोके अनिन्दतो॥


हे अतुल! यह पुरानी बात है यह कोई आज की बात नहीं है। कि लोग चुप बैठे हुए की निन्दा करते हैं, बहुत बोलने वाले की निन्दा करते हैं, मितभाषी की भी निन्दा करते हैं, लोक में अनिन्दित कोई भी नहीं है।

      इतना सुनाकर भगवान् प्रीतिपूर्ण वचनों से बोले- श्रेष्ठी अतुल, धन- उपार्जन और धर्म अर्जन की विधियाँ अलग हैं। धन सांसारिक और चतुराई भरे व्यवहार से मिलता है, जबकि धर्म ध्यान से जाना जाता है। निन्दा छोड़ो और ध्यान सीखो। इसी में तुम्हारा कल्याण है।
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