भगवान् बुद्ध श्रेष्ठी अनाथपिण्डक के प्राणों में बसते थे। भगवान्
की भक्ति को ही वे अपना भाग्य मानते थे। उनकी चिन्तन- चेतना में
पल- पल अपने आराध्य के लिए कुछ नया कर गुजरने की कोंपलें फूटती थीं। ‘देकर भी करता मन- दे दूँ कुछ और अभी’- यही उनका जीवन दर्शन था। प्रभु की देशना के अनुसार उन्होंने सत्कर्म और सत्प्रवृत्ति के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। अनाथों का सच्चा सहारा बनकर उन्होंने अपने नाम को सार्थक कर दिया था। उनके सत्कार्यों की यशप्रभा से दिगन्त अलोकित
हो रहे थे। प्रतिष्ठा और सम्मान की तो जैसे बाढ़ थी उनके जीवन
में। फिर भी जीवन में कहीं कुछ ऐसा था जो रह- रह कर कसक
उठता था। भावनाओं में भरी टीस उन्हें रह- रहकर बेचैन कर देती थी।
सब सुखों के बीच दुःख का एक ही कंटक था- उनका पुत्र ‘काल’। काल की प्रवृत्तियाँ सामान्य धनिक पुत्रों की भाँति थी। भोग उसे भाते थे। सुख उसे लुभाता
था। धन का तो जैसे वह दीवाना था। थोड़े से पैसों के लिए वह
कोई भी जोखिम उठाने के लिए तैयार हो जाता था। काल की यह मनोदशा
अनाथपिण्डक को तनिक भी नहीं भाती थी। वह उसे अपने यश चन्द्र
के मध्य कलंक मानते थे। ‘काल’
को वशीभूत करने के लिए वह अनेकों उपाय करते थे। पर हर बार
उन्हें असफलता ही हाथ लगती थी। एक बार उन्होंने जेतवन में ठहरे
हुए भगवान् तथागत को अपनी वेदना सुनायी। अपने अनुगत भक्त की पीड़ा
के स्पर्श से भगवान् सोच में पड़ गए।
दो पलों के नीरव मौन के अनन्तर उन्होंने कहा- अनाथपिण्डक, पुत्र
की प्रवृत्तियों से तुम दुःखी न हो। उसकी कमजोरियों को ही उसके
रूपान्तरण का माध्यम बनाओ। तुम्हारे पुत्र ‘काल’ का बोधिकाल
अब निकट ही है। गूढ़ रहस्य में लिपटी प्रभु की इन बातों को
अनाथपिण्डक ढंग से समझ न सके। उनके नेत्रों में प्रश्न चिह्न
वैसे ही अमिट बने रहे। भगवान् ने उनकी मनोदशा को भाँपकर कहा- चिन्तित होने की जरूरत नहीं है। यदि ‘धन’
तुम्हारे पुत्र की कमजोरी है, तो इसे ही उसके भाव परिवर्तन का
माध्यम बनाओ। शास्ता का यह संकेत श्रेष्ठी अनाथपिण्डक की समझ में
आ गया।
वापस आने पर उन्होंने ‘काल’ को अपने समीप बुलाया। प्रीतिपूर्वक उसकी कुशल- क्षेम पूछने के बाद उन्होंने कहा- पुत्र!
मैं तुम्हें सौ स्वर्ण मुद्राएँ देना चाहता हूँ। पिता के इन
वचनों ने काल को चौंका दिया। वह सोचने लगा कि आखिर आज इन्हें
क्या हुआ है? कहाँ तो ये हमेशा मितव्ययिता का पाठ पढ़ाते थे। कहाँ
आज सौ स्वर्ण मुद्राएँ देने की बात कर रहे हैं। पुत्र को चकित
करते हुए अनाथपिण्डक ने आगे कहा- परन्तु तुझे भगवान् बुद्ध के
वचनों को सुनने जाना पड़ेगा। पिता के इस वाक्य ने काल को किंचित मायूस किया। परन्तु सौ स्वर्ण मुद्राओं का लोभ उस पर भारी पड़ा और वह तैयार हो गया।
अब तो भगवान् का संग उसका नित्यक्रम
बन गया। प्रतिदिन वह तथागत को सुनने जाने लगा। लेकिन अभी भी
उसके अन्तःकरण पर स्वर्ण मुद्राओं की चमक छायी थी। रोज घर लौटने
पर वह अपने पिता से कहता- कहाँ है मेरी सौ स्वर्ण मुद्राएँ?
पहले अपनी स्वर्णमुद्राएँ गिनवाता, बाद में भोजन करता। उसको बुद्ध के वचनों से कोई मतलब नहीं था। वह तो जब उन्हें सुनने बैठता था, तब भी अपनी स्वर्णमुद्राओं का हिसाब करता रहता था। इस तरह लगभग एक मास बीत गया। एक दिन अनाथपिण्डक ने उसे कहीं अधिक चौंकाते हुए कहा- पुत्र अब मैं तुम्हें हजार स्वर्णमुद्राएँ देना चाहता हूँ। तो क्या मुझे किसी और का भी उपदेश सुनने जाना होगा, काल ने पिता से पूछा। नहीं पुत्र! अनाथपिण्डक ने उसे आश्वस्त किया। बस तुम्हें प्रभु की वाणी को सुनकर याद करना होगा और मेरे सामने दोहराना होगा।
काल को यह काम बड़ा उलझन भरा लगा। पर स्वर्णमुद्राओं की संख्या भी तो दस गुना होने वाली थी। इतना बड़ा लालच भला वह कैसे छोड़ देता? उसने ‘हाँ’
कर दी। अगले दिन जब बुद्ध को सुनने गया तो उसे उनके वचनों को
बड़े ही ध्यान से सुनना पड़ा। क्योंकि अब तो सारी बातें याद
रखनी थी। याद रखने के लिए एक- एक बात पर ध्यान देना जरूरी था।
कई दिनों तक यह क्रम चलता रहा। बुद्ध के वचनों पर ज्यों- ज्यों
वह ध्यान जमाता त्यों- त्यों उसकी अन्तश्चेतना में स्वर्णमुद्राओं की चमक फीकी पड़ती जाती।
आखिर में एक दिन वह भी आया, जब उसकी चेतना भगवान् की कृपा
से आलोकित हो गयी। वह सदा- सदा के लिए सम्पूर्ण रूप से बुद्धत्व
में समा गया। उस सांझ
वह घर नहीं लौटा। पुत्र को कहीं कुछ हो तो नहीं गया। इस सोच
में घबराया हुआ अनाथपिण्डक भगवान् के पास आया। वहाँ पहुँचकर देखा
कि ‘काल’ एक ओर आँख बन्द किये बैठा है। पुत्र को झकझोरते हुए उसने कहा- अरे घर चल, हजार स्वर्णमुद्राएँ
तेरी प्रतीक्षा कर रही हैं। पिता के इन वचनों के उत्तर में
पुत्र ने कहा- अब उन्हें आप ही सम्हाल कर रखो। जो पहले मुद्राएँ
दी थी- उन्हें भी वापस ले लो। अब इन सबकी कोई जरूरत नहीं रह
गयी।
अनाथपिण्डक ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, पर उस पर कोई
असर नहीं हुआ। लालच के सारे तीर बेकार चले गए। श्रेष्ठी को यही
समझ में नहीं आ रहा था कि उसके पुत्र को क्या हो गया है। वह
भागे हुए शास्ता के पास गए और उनसे कहा- भगवान् यह क्या रहस्य
है? मैं वर्षों से आपको सुन रहा हूँ और मेरे पुत्र ने तो अभी
कुछ ही दिनों से आपको सुना है। और वह भी धन के लालच में सुना
है। स्वर्णमुद्राओं
के लोभ में सुना है। बुद्ध ने कहा- तो क्या हुआ- उसने सुना तो
है, किसी भी कारण सुना हो, मेरे वचनों की गहराई में पैठने की
उसने कोशिश की है, तुमने तो अब तक मुझे सुना ही नहीं है। अब तक
जो भी किया है तुमने- वह केवल अपने यश विस्तार के लिए किया
है। अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए किया है।
जबकि तुम्हारे बेटे ने मेरे वचनों की गहराई में उतरने की
कोशिश की है और जिसने मुझे सुना है- वह तो मेरा हो गया।
तुम्हारा बेटा भी मेरा हो गया है। उसे अब तुम चक्रवर्ती की भी
सम्पत्ति दो, तो वह लौटने वाला नहीं है। तुम उसे देवलोक का
सम्राट बना दो, इन्द्र बना दो, तो भी वह लौटने वाला नहीं है। तुम
तीनों लोकों की सारी सम्पदा इसके चरणों में रख दो, तो भी यह
लौटने वाला नहीं है। इस पर अनाथपिण्डक ने कहा- भगवान् इसे हो
क्या गया है? तो बुद्ध ने कहा यह स्त्रोतापन्न हो गया है। यह ध्यान की सरिता में उतर गया है। इस घड़ी भगवान् ने यह धम्मगाथा कही-
पथव्या एक रज्जेन सग्गस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन सोतापत्ति फलं वरं॥
‘पृथ्वी का अकेला राजा होने से, यह स्वर्ग का गमन करने से अथवा सभी लोकों का अधिपति बनने से भी स्त्रोतापत्ति का फल श्रेष्ठ है।’
भगवान् की इन बातों को सुनकर अनाथपिण्डक को यह स्पष्ट हो गया
कि जीव का अपने मूल स्रोत में जा मिलने से श्रेष्ठ अन्य कुछ
भी नहीं है।