अपने दीपक आप बनो तुम

बुद्धत्व के सान्निध्य से जन्मा ब्राह्मणत्व

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     उसकी सरलता में सात्त्विक सम्मोहन था। जब वह हँसती तो बस यूं लगता जैसे कि बेला- चमेली के फूल झड़ रहे हों। उसकी यह हंसी हमेशा ही औरों का विषाद हरण कर लेती। धारोष्ण दूध से धुले पुखराज सी रंगत वाली उसकी देह सदा श्रमबिन्दुओं से सजी रहती। हर पल- हर क्षण श्रम करते रहना उसका स्वभाव था। परिवार- परिजन ही नहीं पुरजनों की भी सेवा को उसने अपनी साधना बना लिया था। अपने इन्हीं गुणों के कारण उसे भगवान् बुद्ध का कृपा प्रसाद मिला था। उसका अन्तस स्रोतापत्ति में डूब चुका था। हमेशा ही उसके अन्तःकरण में ‘नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स’ के स्वर उठते रहते। भगवान् की यह मधुर अर्चना किसी न किसी बहाने उसके हाठों से भी प्रकट होती रहती।

       उसका यह बुद्ध प्रेम जहाँ अनेकों की प्रेरणा का स्रोत था, वहीं उसकी घर वालों को फूटी आँख भी न सुहाता था। उसके पति उसे कुलटा, कुलच्छनी, कुलकलंकिनी और भी न जाने क्या- क्या कहा करते थे। पर वह हमेशा इन दुर्वचनों पर दुःखी होने के बजाय मुस्करा देती। क्योंकि उसके अन्तस में तो भगवान् का कृपा प्रसाद उमड़ता रहता था। उसकी इस सहनशीलता की चर्चा सारे राजगृह में थी। सभी यही कहते थे कि धनजाति पता नहीं किस तरह इतने अत्याचारों को सहन करती है। लेकिन इन सभी परिस्थितियों, व्यक्तियों एवं विचारों से अलग उसे अपने आराध्य की करूणा पर भरोसा था। कोई भले ही उसे ब्राह्मण कुल का कलंक कहे, पर उसे मालूम था कि वह सच्चे ब्राह्मणत्व की ओर अग्रसर है।

      एक दिन तो जैसे सारी हदें ही पार हो गयीं। उस दिन उसके घर में भोज था। काम- काज की भागा- दौड़ी में उसका पांव फिसल गया। भोज में सारे ब्राह्मण इकट्ठे थे। सारा परिवार जमा था। पति था, पति के सब भाई थे, रिश्तेदार थे। ऐसे में उसने गिरते ही तत्क्षण सम्हलने की कोशिश की। और उठते ही उसने आदत के मुताबिक ‘नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स’ कहते हुए तथागत का स्मरण किया। बुद्ध के इस स्मरण से तो जैसे समूचे परिजनों को आग लग गई। व्यंग करते हुए पति के छोटे भाई ने उससे पूछा क्या अर्थ है इस वाक्य का जो तुमने अभी- अभी कहा। उसने बड़ी सहजता से जवाब दिया- इसका अर्थ बस इतना ही है ‘नमस्कार हो उन भगवान् को, उन सम्यक् सम्बोधि प्राप्त को, उन अर्हत को’

      इसे सुनकर उसके पति देवाशीष ने उसे बहुत डांटाअरी नष्ट हो दुष्टा। जहाँ नहीं वहीं उस मुड़े श्रमण की प्रशंसा करती है। फिर वह अपने भाइयों की ओर देखकर कहा- जाओ तुम अभी उस श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ करो और उसे सदा- सदा के लिए समाप्त कर दो। अपने पति के इस कथन पर वह हंस दी और बोली- नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स। नमस्कार हो उन भगवान् को, नमस्कार हो उन अर्हत को, नमस्कार हो उन सम्यक् सम्बोधि प्राप्त को। जाओ ब्राह्मण शास्त्रार्थ करो। यद्यपि उन भगवान् के साथ शास्त्रार्थ करने में कौन समर्थ है। फिर भी तुम जाओ। इससे तुम्हारा कुछ लाभ ही होगा।

वह ब्राह्मण भारद्वाज क्रोध, अहंकार और विजय की महत्त्वाकांक्षा में जलता हुआ बुद्ध के पास पहुँचा। वह ऐसे था, जैसे साक्षात् ज्वर आया हो। उसका तन- मन सब कुछ जल रहा था। लपटें ही लपटें उठ रही थीं। लेकिन भगवान् तथागत की प्रशान्त छवि देखते ही जैसे शीतल वर्षा हो गयी। उनकी उपस्थिति में क्रोध बुझ गया। उनकी आँखों को देख, उसमें से झरती- बहती करूणा की छुअन को अनुभव कर उस व्यक्ति को जीतने की नहीं हारने की चाहत पैदा हो गयी। उसके मन- प्राण अकस्मात रूपान्तरित हो उठे। यह बुद्धत्व के सान्निध्य का सुफल था।

        उस ब्राह्मण भारद्वाज ने कुछ प्रश्र पूछे जरूर- मगर विवाद के लिए नहीं मुमुक्षा के लिए। उसे यह सत्य समझ में आ गया था कि विवाद से सिर्फ विषाद पैदा होता है। जबकि सच्ची जिज्ञासा मुमुक्षा को जन्म देती है। मुमुक्षा सधे तो बुद्धत्व प्रकट होता है। उसके साथ यही हुआ। भगवान् के उत्तरों को पाकर वह समाधान को उपलब्ध हो गया। उसे समाधि लग गयी। फिर घर नहीं लौटा। उसे घर लौटने की जरूरत भी न रही। अब तो वह बुद्ध का ही हो गया। बुद्ध में ही खो गया। उसी दिन प्रवजित हुआ और उसी दिन अर्हत्व को उपलब्ध हो गया।

       ऐसी घटनाएँ बहुत कम घटती हैं कि उसी दिन सन्यस्त हुआ और उसी दिन समाधिस्थ हो गया। उसी दिन मुमुक्षा जगी और उसी दिन बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया। यह तो जैसे असम्भव का सम्भव होना हुआ। जन्मों- जन्मों में भी बुद्धत्व फल जाय तो भी जल्दी फल गया। यह तो महाचमत्कार हुआ।
      
पर उसके भाई देवाशीष को इस पर प्रसन्नता के बदले भारी क्रोध आया। ज्यों ही उसे खबर लगी कि उसका छोटा भाई सन्यस्त हो गया, त्यों ही वह भगवान् को भाँति- भाँति की गालियाँ देता हुआ, असभ्य वचन बोलता हुआ वेणुवन में पहुँच गया। वहाँ भगवान् एक पीपल के महावृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर आसीन थे। उनके मुख मण्डल पर अपार शान्ति विराज रही थी। उनके रोम- रोम से प्रेम का निर्झर बह रहा था। उनके विशाल नेत्र तो जैसे करूणा का अजस्र स्रोत थे। उन्हें देखकर उसके क्रोध के दहकते अंगारे बुझ गए। कुछ इसी तरह जैसे जलते अंगारे जल में गिर कर बुझ जाते हैं।

      वहाँ उपस्थित भिक्षु भगवान् का यह चमत्कार देखकर चकित थे। वे आपस में कहने लगे- आवुसो! बुद्ध गुण में बड़ा चमत्कार है। ऐसे दुष्ट, अहंकारी, क्रोधी व्यक्ति भी शान्तचित्त हो, सन्यस्त हो गए हैं। और उन्होंने ब्राह्मण धर्म को छोड़ दिया है। भगवान् ने जब इन भिक्षुओं की बातें सुनी तो उन्होंने कहा- भिक्षुओं! भुल न करो। उन्होंने ब्राह्मण धर्म को नहीं छोड़ा है। वस्तुतः पहले वे ब्राह्मण नहीं थे और अब ब्राह्मण हुए हैं। तब बुद्ध ने ये धम्म गाथायें कहीं-

छेत्वा नन्दिं वरतञ्च सन्दामं सहनुक्कमं
उक्खित्तपलिधं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
अक्कोसं बधबन्धञ्च अदुट्ठो तितिक्खिति
खन्तिबलं बलानीकं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥


जिसने नद्धा, रस्सी, सांकल को काटकर खूटे को भी उखाड़ फेंका है, उस बुद्ध पुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।

        जो बिना दूषित चित्त हुए गाली, बध और बन्धन को सह लेता है, क्षमा बल ही जिसके बल का सेनापति है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।

       भगवान् के इन वचनों को उपस्थित भिक्षुओं के साथ देवाशीष एवं उसका भाई भी खड़ा सुन रहा था। उसकी आँखों में तथागत के इन वचनों को और भी अधिक स्पष्ट रीति से जानने की उत्सुकता थी। भक्त की इस जिज्ञासा की पूर्ति करते हुए भगवान् बोले- भिक्षुओं! नद्धा अर्थात् क्रोध, सांकल अर्थात् मोह, रस्सी अर्थात- लोभ और खूंटा अर्थात् काम, इन चारों को उखाड़ फेंकने वाला एवं पवित्र व क्षमाशील अन्तःकरण वाला व्यक्ति ही ब्राह्मण है। इस अनूठे ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हुए अपने पति एवं देवर के रूपान्तरण की कथा धनजाति ने भी सुनी। सब कुछ सुनकर उसने प्रभु की महिमा के प्रति नतमस्तक होते हुए कहा- ‘नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।’



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