बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बालक के निर्माण में माता का हाथ

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बालकों के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ माता का है क्योंकि उसी के रक्त मांस से बालक का शरीर बनता है। नौ महीने पेट में रखकर तथा अपने शरीर का रसदूध पिलाकर उसका पोषण करती है। कई वर्ष का होने तक वह अधिकांश समय माता के सान्निध्य में रहता है और उसी के साथ सोता है। इसलिए स्वभावतः उसके ऊपर सबसे बड़ा प्रभाव माता का होता है। माता के जैसे विचार और संस्कार होते हैं बालक प्रायः उसी ढांचे में ढलते हैं।

यों पिता के बिन्दु का भी थोड़ा महत्व है और बड़े होने पर शिक्षक का तथा बाह्य परिस्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है पर यह सब मिल कर भी उतना नहीं हो पाता जितना कि माता का प्रभाव पड़ता है। माता यदि विदुषी है, सुसंस्कार युक्त और उच्च अन्तः भूमि की है तो उसकी छाया सन्तान पर भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होगी। संसार में जितने महापुरुष हुए हैं उनके निर्माण में माता का बहुत बड़ा हाथ रहा है।

सुभद्रा ने बालक अभिमन्यु का निर्माण तब किया जब वह गर्भ अवस्था में था। वह चाहती थी कि उसका पुत्र भी अपने पिता अर्जुन के समान ही पराक्रमी एवं धनुर्धर हो। शिक्षा का सबसे उत्तम काल वह है जब बालक गर्भ में रहता है। उसे मालूम था कि आधी पढ़ाई बालक माता के गर्भ में पढ़ लेता है। फिर शेष जन्म भर में आधी शिक्षा पूरी कर पाता है इसलिए सुभद्रा ने अर्जुन से कहा गर्भस्थ बालक पर वीरता के तथा शस्त्र प्रवीणता के संस्कार देने के लिए आप मुझे नित्य उन विषयों की शिक्षा दिया कीजिए। माता के शरीर से ही गर्भस्थ बालक का शरीर और माता के मन से ही उसका मन बनता है सो आप इन दिनों मुझे जो भी उपदेश करेंगे उन सबको बालक ग्रहण कर लेगा।

अर्जुन को सुभद्रा की बात सर्वथा उचित लगी वह नित्य वीरता एवं शस्त्र विद्या सम्बन्धी उसे देने लगा। बालक अभिमन्यु ने उस सारे ज्ञान को अपने अन्तःकरण में धारण किया। चक्र व्यूह भेदन की विद्या भी उसने उसी अवस्था में अपने पिता से सीखी। चक्रव्यूह से युद्ध में सात चक्र भेदने पड़ते हैं। अभिमन्यु ने छः चक्रों का वेधन सीख पाया था इसलिये महाभारत में उन्होंने छः चक्र तो आसानी से वेध दिये पर जब सातवें के वेधने का समय आया तो उसकी जानकारी होने से लड़खड़ा गया और वहीं मारा गया। सातवें चक्र वेधन की शिक्षा गर्भ में ही उन्हें कम मिली थी क्योंकि अर्जुन जब चक्रव्यूह वेधन का उपदेश कर रहे थे तब छः चक्रों तक का विवरण सुनने के बाद सुभद्रा को नींद गई। अर्जुन ने भी कहना बंद कर दिया। इसके बाद अर्जुन अन्य आवश्यक कार्यों में लग जाने के कारण सातवें चक्र का भेदन बताना भूल गये। सुभद्रा भी फिर पूछ सकी। इस प्रकार वह प्रकरण अधूरा ही रह गया और उस जानकारी के अभाव में अभिमन्यु मारे गये।

राजा दुष्यन्त जब वन में घूम रहे थे तब उनने देखा कि एक बालक सिंहनी के दो बच्चे अपनी दोनों बगलों में दबाये हुए है। जब सिंहनी अपने बच्चों को छुड़ाने के लिए बालक पर गुर्राती है तो वह एक छड़ी लेकर उस सिंहनी को कुतिया की तरह पीट देता है और वह विवश होकर पीछे हट जाती है। इस प्रकार सिंहनी को बार बार अपने बच्चों को छुड़ाने के लिए आगे बढ़ना और बालक का बार-बार उसे पीछे हटा देना एक मनोरंजक दृश्य था। दुष्यन्त को उस बालक का मनोबल देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। पूछने पर मालूम हुआ कि यह शकुन्तला पुत्र भरत है। कण्व ऋषि के आश्रम में पालन होने से शकुन्तला ने अपने में आत्मबल एकत्रित किया और पति परित्यक्ता होने पर उसने पुनः कण्व आश्रम में ही निवास किया। उस वातावरण में रहने का प्रभाव माता पर पड़ा था। पुत्र ने माता और आश्रम का दुहरा लाभ उठाया। ऐसी दशा में यदि वह बालक सिंह शावकों में खेलने वाला बना तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

चित्तौड़ के राजकुमार अरिसिंह एक बार शिकार खेलने गये तो एक जंगली सूअर के पीछे घोड़ा दौड़ाया। दौड़ते दौड़ते शाम हो गई। घायल सूअर थककर एक झाड़ी में छुप रहा। राजकुमार भी बहुत थके हुए थे वे झाड़ी के पास पहुंचे और चाहते थे कि किसी प्रकार सूअर को बाहर निकाला जाय। पर घायल सुअर द्वारा आक्रमण करने का पूरा पूरा खतरा था इसलिए साथियों में से किसी की हिम्मत आगे बढ़ने को पड़ रही थी।

इस दृश्य को एक किसान लड़की अपने खेत की रखवाली करती हुई देख रही थी। वह आई उसने उन सब शिकारियों को एक ओर हटा दिया और एक लकड़ी हाथ में लेकर झाड़ी में घुस गई तथा सुअर को पीटती हुई बाहर निकाल लाई। राजकुमार इस कृषक लड़की के पराक्रम से बहुत प्रभावित हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए घर लौट आये।

कुछ दिन बार राजकुमार फिर उधर से निकले। देखा तो वह लड़की सिर पर दो खड़े पानी रखे और दोनों हाथों में दो बड़े बड़े बैलों के रस्से पकड़े जा रही है। राजकुमार को उससे कुछ छेड़खानी करने की सूझी। घोड़े को उससे सटाकर निकालने लगे ताकि उसके सिर पर रखी मटकी गिर जाय। कृषक लड़की राजकुमार की गुस्ताखी समझ गई। उसने बैल वाली एक रस्सी इस तरह फंदा बनाकर फेंकी कि घोड़े का पैर ही उसमें फंस गया और राजकुमार घोड़े समेत नीचे गिर पड़े। लड़की की वीरता पर मुग्ध होकर राजकुमार ने उसी से विवाह किया और उस लड़की के गर्भ से वीर हम्मीर का जन्म हुआ जिसकी गाथा इतिहास में प्रसिद्ध है।

कुन्ती ने अपने पुत्रों को तप बल से उत्पन्न किया था फलस्वरूप उनमें असाधारण दैवी शक्तियां मौजूद थीं। कर्ण को सूर्य की शक्ति से, अर्जुन को इन्द्र की शक्ति से, युधिष्ठिर को धर्म की शक्ति से, और भीम को पवन देवता की शक्ति से उत्पन्न किया था। फलस्वरूप उनमें तप तेज की कमी नहीं थी। शक्ति भले ही किसी देवता की रही हो पर उसका आकर्षण एवं धारण कुन्ती द्वारा ही हो सका। यदि वह वैसी तपस्विनी होती तो कदापि ऐसे बालक उत्पन्न होते। वे देवता कुन्ती से पहले भी थे और अब भी हैं पर वैसी धारणा शक्ति की नारियां होने से उस प्रकार के बालक भी उत्पन्न नहीं हो पा रहे हैं।

देवी अंजना ने वायु देवता को अभिमंत्रित करके पवन पुत्र हनुमान को जन्म दिया था। उनका पराक्रम सभी को विदित है। कौशिल्या ने पिछले जन्म में तप करके अपने गर्भ से भगवान् के जन्म लेने का वरदान प्राप्त किया था। उनके उच्च गुणों के कारण ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम में वे गुण आये।

इस प्रकार के अगणित उदाहरण प्राचीन काल के हैं। आधुनिक काल में भी ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिनकी महानता का बहुत कुछ श्रेय उनकी माताओं को ही है।

सन्त विनोबा अपनी आत्मिक प्रगति का कारण अपनी माता को मानते हैं। माता की चर्चा करते हुए उनने एक बार बताया था कि

मेरी मां कहती थी, मैं अगर पुरुष होती, तो दिखाती कि वैराग्य कैसा होता है। उसके दिल में छटपटाहट थी। लेकिन उसकी दिक्कत यह थी कि वह स्त्री थी। वह यह महसूस करती थी। फिर भी मैंने देखा कि वह भक्त थी। उसकी मुझ पर बहुत श्रद्धा थी। हर चीज में वह विन्याका शब्द ‘‘प्रामाण्य मानती थी। मुझे महसूस होता है कि आज भी वह मेरे साथ चल रही है। अगर मुझे मिलेगी, तो उसे भी मुक्ति मिलेगी। अगर मैं वापस दुनिया में आऊंगा, तो वह भी मेरे साथ आयेगी। मैं जहां भी जाऊंगा वह मेरे साथ आयेगी।’’

गांधी जी की माता परम साध्वी और धर्म निष्ठ महिला थीं। वे प्रतिदिन मन्दिर जातीं और बिना भजन पूजा के जल तक ग्रहण करती थीं। कठिन से कठिन व्रत रखती थीं। चातुर्मास का व्रत तो उनने आजन्म निवाहा। लोकमान्य तिलक की माता बड़ी तपस्विनी थीं। व्रत उपवासों से उनने अपना शरीर सुखा डाला था। जिन दिनों बालक तिलक गर्भ में थे उन दिनों उनने बड़े कठिन अनुष्ठान किये थे। वे कहा करती थीं कि मैंने सूर्य देवता की साधना करके इस बालक को प्राप्त किया है? यह सूर्य के समान ही तेजस्वी होगा। माता की बात सच निकली, लोक मान्य तिलक की प्रतिभा और महानता सचमुच सूर्य जैसी ही प्रकाशवान थी।

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