बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बच्चों का सुधार कैसे हो?

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बच्चों में पैदा होने वाली खराब आदतें, बुराइयों का कारण उनके पूर्वाग्रह, संस्कार, मूल प्रवृत्तियां तो हैं ही किन्तु इस सम्बन्ध में मां-बाप का गलत व्यवहार, अदूरदर्शिता, अज्ञान भी एक बहुत बड़ा कारण है। बहुत से मां-बाप अपने बच्चों के मचलने, जिद्द करने की शिकायत किया करते हैं। और इससे वे बड़ी परेशानी भी महसूस करते हैं। इसके पीछे घर में अशान्ति, क्लेश, मारपीट, झल्लाहट आदि के प्रसंग आये दिन घटते रहते हैं। बच्चों को इस गुस्ताखी के लिए दोषारोपण, ताड़ना, तिरस्कार, आदि का अवलम्बन किया जाता है। किन्तु विवेकपूर्वक देखा जाय तो बच्चों को जिद्दी और उद्दंड बनाने में अभिभावकों का ही बहुत बड़ा हाथ होता है। बच्चे तो उस नवजात कोमल पौधे की तरह हैं जिसे विधिवत् सींचकर, खाद देकर, काट-छांटकर माली सुसंस्कृत रूप देता है। माली की भूल, अज्ञान अथवा लापरवाही से सुन्दर दीखने वाले उद्यान भी बीहड़ जंगलों में परिणित हो जाते हैं। अच्छे भले दीखने वाले पौधे बेडौल और कुरूप लगते हैं।

अक्सर मां-बाप प्रारम्भ में अधिक लाड़-प्यार अथवा उदारतावश उचित अनुचित का ध्यान रखे बिना ही बच्चों की विभिन्न मांगों को पूर्ण करने लगते हैं। इतना ही नहीं कई मां-बाप तो गर्वपूर्वक कहते हैं ‘‘मैं नहीं चाहता मेरे बच्चे दुःखी रहें किसी तरह का अभाव महसूस करें।’’ जब बच्चे इस अत्यधिक उदारता के वातावरण में पनपने लगते हैं तो उनके मन और मस्तिष्क पर वैसा ही प्रभाव पड़ने लगता है। जिस स्तर पर मां बाप उनकी आवश्यकतायें पूर्ण करते हैं, वही बच्चों, का स्तर बन जाता है। किन्तु गृहस्थ जीवन में बढ़ती हुई जिम्मेदारियों, खर्चे, बदलती हुई परिस्थितियों अथवा आकर्षण कम होने पर बच्चों के साथ व्यवहार में भी परिवर्तन होने लगता है। पहले जितनी उदारता से बच्चों की आवश्यकता पूर्ति का ध्यान रखा जाता था वैसा बाद में नहीं रहता, किन्तु बच्चों का मानसिक स्तर पूर्व जैसा ही बना रहता है। जिस वातावरण में उनका पालन पोषण पहले हुआ उसी की आगे भी अपेक्षा रखते हैं। पूर्व अभ्यास अन्य आदतों से प्रेरित होकर बच्चे वैसी ही मांग भी करने लगते हैं। उधर मां बाप से उनकी मांग की पूर्ति नहीं होती। इस पर बच्चे रोते हैं, मचलते हैं, रूठने लगते हैं, चिल्लाते हैं। मुंह फुलाकर एक कोने में दुबक जाते हैं। तो मां-बाप द्वारा भी झल्लाहट, ताड़ना, मारपीट आदि शुरू हो जाती है। सारे घर में कुहराम मच जाता है। बच्चों को दोष दिया जाता है, उनकी आदतों की आलोचना की जाती है।

विचार विवेक से शून्य बालक कभी-कभी दूसरों की देखा-देखी भी कुछ अनावश्यक मांगें कर बैठते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों का ध्यान, प्यार दुलार और स्नेह से किसी दूसरे पहलू पर केन्द्रित कर देना चाहिये। उन्हें किसी खेल में लगा दिया जाय। समझदार बच्चों को समझा भी देना चाहिए। कई मां बाप जो ऐसी स्थिति में बच्चों को ताड़ना देते हैं, उनकी मांगें ठुकराते हैं उन्हें बुरा कहते हैं वे वस्तुतः अपने बच्चों में मचलने, जिद्द करने की आदत डालते हैं। बच्चों के साथ जिद्द करना उल्टा उन्हें अधिक जिद्दी और हठी बनाना है। किसी भी बात पर बच्चों का विरोध करने पर उन्हें उत्तेजना मिलती है और वे अधिकाधिक जिद्दी बन जाते हैं। यही खराब आदतें आगे चलकर अनुशासन हीनता, उद्दण्डता, झगड़ालू प्रवृत्ति, अशिष्टता, असभ्यता को जन्म देती है।

बच्चों में सहज स्वतन्त्रता का भाव अधिक होता है। उनकी स्वतन्त्रता में बाधा डालना, उनकी बातों का विरोध करना उनमें अधिक जिद्दी झगड़ालू एवं मचलने की वृत्ति को भड़काना है। बच्चों के सुधार का कोई भी नियम स्वयं बच्चों की सहमति प्राप्त करके लागू करना अधिक प्रभावकारी होता है। बच्चों की खराब आदतों को ठीक करने के लिए जबरदस्ती और हठपूर्ण प्रयत्न करना उसी तरह की भूल है जैसे कुपथ्य का आचरण करके रोग को ठीक करना। बच्चे यदि अपने ही अहित की बात पर भी मचलते हैं तो उन्हें मचलने दिया जाय। ठोकर लगने पर वे स्वतः ही वैसा नहीं करेंगे।

खराब आदतों के बच्चों के संग में रहकर भी बच्चे वैसी ही आदतें सीखने लग जाते हैं। अतः बच्चों को ऐसे संग से बचाना चाहिए। अत्यधिक लाड़ प्यार से भी बच्चे जिद्दी बन जाते हैं। अतः लाड़ प्यार भी मर्यादित और संयमित होना चाहिये।

चंचल, अधिक क्रियाशील बच्चों में फुर्ती तेजी, अधिक होती है। उनकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियां औसत दर्जे के बच्चों से अधिक काम करती हैं। बुद्धि एवं प्रतिमा भी ऐसे बच्चों में तीव्र होती है। ऐसे बच्चे तनिक भी शान्त नहीं रहते। धर पटक, तोड़−फोड़, मारना पीटना घर वालों को परेशान करना, अभिभावकों को खिजाना, ये इन क्रियाशील बच्चों की साधारण सी बातें हैं। यदि इन बच्चों का भली प्रकार निमार्ण किया जा सके, इनकी क्रियाशक्ति को रचनात्मक बनाया जा सके तो ये बच्चे जीवन में महान कार्यों का सम्पादन करते हैं, अन्य बच्चों से अधिक सफल होते हैं।

चंचल और क्रियाशील बच्चों की यह विशेषता होती है कि वे हर बात में अपनी ही मरजी को प्रमुख स्थान देते हैं। खाने, पीने, सोने, उठने, बैठने तक में भी ये बच्चे दूसरों की इच्छा पर आनाकानी करते हैं।

ऐसे बच्चों से जोर जबरदस्ती पूर्वक काम नहीं लेना चाहिए। चंचल बच्चों की अच्छी आदतों का सम्मान करते हुए उनसे घुल−मिल कर उन्हें अपने से सहमत कर फिर चाहे जैसा काम लिया जा सकता है। साथ ही उन्हें सन्तुष्ट बना इच्छानुसार मार्ग पर चलाया जा सकता है। बच्चों के पास किए जाने वाले व्यवहार में चालाकी, भेद-भाव रखा जाय। उसे ये तीव्र बुद्धि के बालक फौरन ही ताड़ लेते हैं और फिर अविश्वासी बन जाते हैं। फिर किसी सही बात को भी वे सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और उसे मानने को तैयार नहीं होते। वस्तुतः रहस्यमय, चालाकी और भेदभाव पूर्ण व्यवहार बच्चों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए।

बच्चों के निमार्ण में स्थान का प्रभाव भी बड़ा महत्वपूर्ण होता है। बच्चों के मानसिक स्तर पर स्थान का अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जो उनके व्यक्तित्व के निमार्ण क्रम को भी प्रभावित करता है। जिन बच्चों का प्राकृतिक स्वभाव बहुत से लोगों के बीच रहने का होता है उन्हें एकाकी और सुनसान स्थान में रखना ठीक नहीं। इससे उनमें कई मानसिक उलझनें, भय, सन्देह, शंका, विक्षिप्तता आदि पैदा हो जायेंगे। ऐसे बच्चों का मानसिक विकास और पुष्ट व्यक्तित्व का निर्माण सामूहिक रहन सहन में भली प्रकार हो सकता है।

चंचल एवं क्रियाशील बच्चों के लिए सबसे आवश्यक बात है उन्हें किसी किसी रचनात्मक कार्य, खेलकूद, भागदौड़ आदि में लगाये रखा जाय। जिन घर में बच्चों को किसी रचनात्मक कार्य में लगा दिया जाता है वे बच्चे जीवन में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं और वे औसत दर्जे के बच्चों से अधिक सफल होते हैं। और ठीक-ठीक शिक्षण, निर्माण होने पर ऐसे बच्चे औसतन बच्चों से अधिक, अपराधी और भयंकर भी बन जाते हैं।

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