बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बच्चों की उपेक्षा न कीजिये

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बहुत से बच्चे बड़े शर्मीले, डरे डरे और खामोश रहा करते हैं, किसी से कोई बात करते हैं और जी खोलकर हंसते खेलते हैं। घर पर भी चुपचाप एक कोने में दुबके रहते हैं। जहां बच्चे खेलते होते हैं वहां भी चुपचाप एक तरफ खड़े-खड़े देखा करते हैं। यदि उन्हें पास बुलाओ या बात करो तो खामोश खोई-खोई नजर से देखते रहेंगे, कोई जवाब देंगे और पास आयेंगे। ज्यादा कोई बात उनसे पूछी जाये तो रोने लगेंगे।

निःसन्देह, इस स्वभाव के बच्चे, बड़े करुणास्पद होते हैं, उनको देखकर बड़ी दया लगती है। हंसने, खेलने, बोलने और बात करने वाले बच्चे सबको भाते हैं। लेकिन गुमसुम रहने वाले बच्चे दया के पात्र होते हैं। बच्चे स्वभावतः चंचल और बातून हुआ करते हैं। आप एक बार उनसे बात करिये वे बीस बार आपसे बात करेंगे। आप थोड़ा परिचय कीजिये वे उस परिचय को घनिष्ठ बना लेंगे। उन्हें थोड़ा सा प्यार दीजिये, वे मित्र बन जायेंगे और आपको देखकर तत्काल प्रसन्न होने लगेंगे। फिर क्या बात है कि अपनी सहज प्रकृति के विपरीत बहुत से बच्चे चुपचाप, खोये खोये और डरे डरे से रहते हैं?

बच्चों की इस अस्वाभाविक प्रवृत्ति के जहां और भी बहुत से कारण हो सकते हैं, वहां एक विशेष कारण, माता-पिता द्वारा उनकी उपेक्षा एक इतना बड़ा अभिशाप है कि जिसके साथ यह बर्ता जाता है उसको दयनीय बना देता है। यदि किसी जड़ वस्तु की भी उपेक्षा की जाती है तो वह भी अपना स्वाभाविक सौंदर्य खो देती है, फिर बच्चे तो सप्राण और कोमल होते हैं। उनके मन मस्तिष्क पर हर बात का प्रभाव पड़ता है, और वे उसका दुःख सुख भी अनुभव करते हैं। अस्तु, बच्चों के सहज विकास और उनके सहज सौन्दर्य को सुरक्षित रखने के लिये आवश्यक है कि उनको किसी भांति उपेक्षा की जाये। उन्हें माता पिता और अभिभावकों का समुचित प्यार मिलना चाहिये। बच्चों के जो अन्य नैतिक अधिकार होते हैं, वे भी उन्हें प्राप्त होने चाहिये।

जो अभिभावक, बच्चों को समुचित प्यार नहीं देते या उनको बात बात पर उपेक्षा किया करते हैं, वे अन्दर से कठोर स्वभाव के होते हैं। उनके बच्चों का वांछित विकास नहीं हो पाता और वे समाज में अनुपयोगी पिछड़े हुये रह जाते हैं। खुलकर हंस बोल पाते हैं और पैर जमा कर किसी क्षेत्र में डट पाते हैं। वे प्रत्येक से डरे डरे और शर्माये से रहा करते हैं।

बहुत से अभिभावक अपने तक इतने सीमित होते हैं कि उन्हें बच्चों की ओर ध्यान देना बोझ लगता है। बच्चे उन्हें पुकारते रहते हैं, वे सुनते ही नहीं। वे कुछ बात पूछते हैं उसका उत्तर ही नहीं देते। यदि ज्यादा बोलते या पुकारते हैं तो रुखाई से पेश आते हैं, वे प्यार और स्नेह के लोभ से पास आते हैं तो भगा देते हैं। अभिभावकों का यह स्वभाव अच्छा नहीं होता है। यह बात सही है कि उनकी अपनी कुछ समस्यायें ऐसी होती हैं जो उनको और परेशान किये रख सकती हैं। इसका यह मतलब कभी नहीं है कि अपनी समस्याओं में इस सीमा तक खोया रहा जाये कि बच्चे उनके स्नेह अथवा देख रेख से वंचित हो जायें। ऐसा होने से धीरे धीरे बच्चे अभिभावकों से बात करना, उनके पास जाना अपना दुःख सुख कहना छोड़ देते हैं। वे अपने को अकेला और असहाय समझ कर अन्दर घुटते रहते हैं जिससे उनके अन्दर ही अन्दर एक कुंठा पैदा हो जाती है जो उन्हें खामोश और भयभीत बना देती है।

बहुत से अभिभावक खाते पीते समय बच्चों को पास नहीं आने देते और उन्हें पहले खिला  दिया जाता है। इससे बच्चे उनके साथ भोजन करने के सुख और गौरव से वंचित रह जाते हैं। खाते-पीते हैं और अकेलेपन के भाव से मन ही मन दुखी रहते हैं।

जो बच्चे घरों में होते हुये भी साथ में नहीं खिलाये जाते वे चुपचाप किसी कोने में खड़े अभिभावकों को खाते देखा करते हैं और कोई जरूरत होने पर भी डर से पास नहीं जाते। ऐसे बच्चों के मन में बहिष्कृत किये जाने का भाव पैदा हो जाता है और वे मन ही मन बड़े दीन-हीन हो जाते हैं।

खाने पीने की तरह उनके पहनने, ओढ़ने, पढ़ने, लिखने, कापी किताबों, स्कूल आने जाने आदि अन्य बातों पर भी ध्यान नहीं देते। उनके कपड़े गन्दे हैं, कमीज या कोट में बटन नहीं है, पायजामा ठीक नहीं बंधा है, आस्तीन खुली हैं, कापी खत्म हो गई हैं, किताब खो गई हैं, पेंसिल चाहिये ही निब या रोशनाई नहीं हैइनमें से किसी बात का पता उन्हें नहीं रहता। पता रहे भी कैसे स्वयं देखेंगे नहीं, कहने पर ध्यान नहीं देंगे।

ऐसी दशा में बच्चे निहायत ही गन्दे अस्त-व्यस्त और अपनी ओर से निरपेक्ष हो जाते हैं। वे आवश्यकता पूरी करने के लिये या तो किसी से चीजें मांगेंगे या चुरायेंगे। वे किताब से कापी और कापी से निब बदलेंगे। चीजों की कमी के कारण हर समय अध्यापक से डरते रहेंगे। पढ़ने में उनका जी नहीं लगेगा और कक्षा से भागे रहने का प्रयत्न करेंगे।

जिन बच्चों का ध्यान अभिभावक नहीं रखते उनकी परवाह अन्य लोग भी नहीं करते। अध्यापक उनकी चिंता नहीं करते और साथी उपहास किया करते हैं। घर में अभिभावकों की उदासीनता और बाहर दूसरों की उपेक्षा उन्हें बहुत ही दयनीय दशा में पहुंचा देती है।

उपेक्षित बच्चों के चेहरे पर एक ऐसी उदासी रहती है जिसे देखकर उनसे कोई बात करना पसन्द करता है और प्यार करना। वे जहां भी जाते हैं, उपेक्षित ही रहते हैं।

बच्चे जब तक पूरी तरह समझदार और अपनी परवाह आप करने योग्य हो जायें अभिभावकों को उनकी हर बात का ध्यान रखना चाहिये। उन्हें उनका प्यार मिलना चाहिये। आवश्यक निर्देश और प्रशिक्षण मिलना चाहिये और जरूरतों की पूर्ति होनी चाहिये।

उन्हें ठीक समय पर, जगाना, नहलाना, धुलाना, नाश्ता भोजन आदि सारी बातों में सहायता की जानी चाहिये। अपने साथ यदि भी खिलाया जाने का अवसर हो तो अवश्य ही उनके खाते वक्त माता अथवा अन्य किसी बड़े का साथ रहना आवश्यक है, जिससे प्रेम वे ठीक से भोजन करना सीख सकें और अपने को बहिष्कृत सा समझ सकें। स्कूल जाने की तैयारी में उनका हाथ बटाना चाहिये। यह देखना चाहिये कि उनके कपड़े गन्दे तो नहीं हैं, बटन ठीक से लगे हैं, पहनने में कोई अस्तव्यस्तता तो नहीं है। उनका बस्ता ठीक है, कापी किताबें खो तो नहीं गई हैं, खरिया या रोशनाई मंगानी तो नहीं या कलम की निब टूटी तो नहीं है।

इस तरह ये बातें तो इतनी मालूम होती हैं कि जैसे घन्टों बच्चों के साथ लगा रहना पड़ेगा किन्तु ऐसा नहीं है। यदि एक बार सब बातों की व्यवस्था ठीक से करदी जाये और नित्य नियम से इन पर नजर डाल ली जाये तो यह दस पांच मिनट से अधिक का काम नहीं है। और बच्चों को दस पांच मिनट या घंटा आध घंटा देना कोई निरर्थक बात नहीं है। कदाचित गृहस्थ जीवन में बच्चों की देख-रेख और ठीक से उनका निर्माण करने के लिये दिया जाने वाला समय सबसे अधिक सार्थक होता है। क्योंकि बच्चे के बनाने का अर्थ है एक सुदृढ़ पारिवारिक धुरी और अच्छे समाज का निर्माण करना।

जिन बच्चों को माता पिता का समुचित प्यार मिलता है, उनका हर दिशा में समुचित विकास भी होता है। माता-पिता की परवाह से वे स्वयं भी अपनी परवाह करना सीख जाते हैं। ठीक से रहना, बोलना बात करना, चलना-फिरना और व्यवहार करना जाने से बच्चे बड़े होकर समाज के सुन्दर घटक बनते हैं, और इसके विपरीत जो बच्चे उपेक्षा अथवा उदासीनता के शिकार होते हैं उनके सारे निरर्थक बन जाते हैं। उनमें एक ऐसी दयनीयता घर कर लेती है कि वे जीवन भर परमुखापेक्षी बनकर कोई उन्नति नहीं कर पाते हैं। जो अपनी और अपनी चीजों की परवाह करना नहीं जानते उनसे यह आशा करना कि दूसरों की परवाह कर सकेंगे एक व्यर्थ विडम्बना है। वे जहां रहेंगे, जहां काम करेंगे, अस्त व्यस्त रहेंगे, जहां काम करेंगे लापरवाही बरतेंगे, वे बातों में विश्रृंखल और व्यवहार में ऊटपटांग हो जायेंगे। उनके जीवन में एक ऐसी अनुशासनहीनता आयेगी जिससे वे, और तो और अपने लिये भी एक उलझन बन जायेंगे।

किसी भी बच्चे, को चाहे जितना अच्छा भोजन, कपड़े और अच्छी-अच्छी चीजें क्यों दी जायें, किन्तु तब तक उनका उपयोग उसके लिये सार्थक होगा, जब तक इस सब बातों के साथ उसे अभिभावकों का प्यार नहीं मिलता। उसका स्वास्थ्य बन पायेगा और वे ठीक पहनना-ओढ़ना या रहना-सहना सीख पायेंगे।

बच्चों के प्रति माता-पिता का समुचित प्यार और उनकी परवाह किया जाना बहुत से अभावों को यों ही पूरा कर देता है। बच्चों को प्यार से सूखी रोटी भी खिलाई जावेगी तो भी वह उनके स्वास्थ्य के लिये बहुत लाभदायक सिद्ध होगी। उनके मुख पर एक तेज और हृदय में एक संतोष रहेगा। उनको पहनाया हुआ मोटा और सस्ता कपड़ा भी उनकी शोभा बढ़ा देगा। प्यार एक ऐसी रसायन के समान है जिसको पाकर बच्चे केवल सन्तुष्ट ही रहते अपितु परिपुष्ट भी होते हैं। बहुत बार देखा जा सकता है कि प्यार और परवाह से वंचित धनवान् घरों के बच्चों का स्वास्थ्य और सौन्दर्य उतना आकर्षक नहीं होता जितना प्यार पाये हुये निर्धन घरों के बच्चों का। धनवान् घरों के बच्चे बहुत अच्छा पहनने ओढ़ने पर भी उतने अच्छे नहीं लगते जितने कि मोटे कपड़ों में निर्धन घरों के बच्चे।

जो बच्चे अभिभावकों के प्रेम से परितुष्ट रहते हैं उनका किसी अभाव में भी कोई विकास रुकने नहीं पाता। वे शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक तीनों दिशाओं में स्वच्छन्दता से बढ़ते जाते हैं। वे प्रसन्नता से स्कूल जाते हैं, जी लगाकर पढ़ते हैं और सबके साथ स्नेह पूर्ण सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। उन्हें सभी चाहते और प्यार करते हैं। किन्तु जो बच्चे सभी अभिभावकों के स्नेह से वंचित रहते हैं उनके मन में एक क्षोभ, असन्तोष और चिंता रहा करती है। पढ़ाई में उनका मन लगता है और साथियों से पटतर बैठती है। वे हर समय खिसियाये और झल्लाये रहते हैं।, जिससे बात बात पर चिढ़ते और झगड़ते हैं। मन में एक शून्यता रहने से उनके मस्तिष्क में भी एक तनाव रहता है जिससे उनकी एकाग्रता और स्मरण शक्ति का ह्रास हो जाता है। तो पढ़ाया हुआ पाठ उनकी समझ में आता है और वे उसे याद कर पाते हैं। उनकी यह कमी केवल पाठों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि जीवन के प्रत्येक पग पर बाधक होती है।

अस्तु, बच्चों को एक अच्छा नागरिक और सफल गृहस्थ बनाने के लिये प्यार और परवाह के साथ उनका पालन किया जाना चाहिये। बच्चों का केवल होना ही हो नहीं, बल्कि उनका होना ठीक अर्थों में तभी है जब वे एक अच्छे मनुष्य, सफल गृहस्थ और सुशील नागरिक बन सकें।

अनुपयोगी एवं अनुपयुक्त जनसंख्या की वृद्धि कोई प्रशंसनीय बात नहीं है। एक सुशील एवं सफल संतान अयुक्त सौ सन्तानों से कहीं बढ़कर है। जो अभिभावक अपने बच्चों को उत्तरदायित्वपूर्ण परवाह से नहीं पालते वे राष्ट्र का हित तो दूर, अहित ही करते हैं। और यदि राष्ट्रीयता को दूर की बात मान कर व्यक्तिगत बात ही ले ली जावे तब भी अस्त-व्यस्त, अदक्ष एवं अनुशासन हीन बच्चे क्या अपना भला कर पायेंगे? और क्या अपने माता पिता का? यदि अनुपयुक्तता से हानि होती तो आज समाज और संसार में दीखने वाली दुःखद बुराइयों की वृद्धि होती और अधिक सन्तानों वाले अभिभावक अधिक दुखी दीख कर अधिक से अधिक सुखी दीखते।

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