बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

क्या दण्ड से बच्चे सुधरते हैं?

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बच्चों को सुधारने, उनमें से बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए अन्य बातों की तरह दण्ड देने की भी एक प्रणाली चली रही है। सामान्यतया भूलों गलतियों पर, बच्चों की शैतानी पर अभिभावकगण उन्हें दण्ड देते हैं, पीटते हैं, उनकी आलोचना करते हैं। बच्चों ने कुछ गड़बड़ी की कि उन्हें ठोक-पीट दिया। अच्छे समझदार पढ़े लिखे, मां-बाप भी इसी का सहारा लेते देखे जाते हैं। हांलाकि दण्ड की व्यवस्था सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण प्रयोग है, नीतिकार ने सुधार के साम, दाम, दण्ड, भेद चार उपायों में दण्ड को भी स्थान दिया है। आवश्यकता पड़ने पर दण्ड दिया भी जाना चाहिए, लेकिन उसका प्रयोग दवा की खुराक की तरह ही किया जाना चाहिए। बिना सोचे समझे, अनावश्यक रूप से दिए जाने पर अपने दुष्परिणाम पैदा करता है।

दण्ड सुधार के लिए अन्तिम और महत्वपूर्ण समर्थ माध्यम है किन्तु इसका ठीक-ठीक प्रयोग करने पर हानि की ही अधिक संभावना रहती है और कई दुष्परिणाम पैदा हो जाते हैं। अनावश्यक, अव्यवहारिक दण्ड से सुधार होकर बच्चों के विकास, उन्नति, निर्माण में गड़बड़ी पैदा हो जाती है।

दण्ड के भय से मनुष्य के सौंदर्य-बोध की क्षमता, शक्ति नष्ट हो जाती है। बच्चों को बात-बात पर अपने अनन्य और निकटस्थ सूत्र मां-बाप से सजा मिलने लगती है तो संसार और इसके अन्य तत्वों का आकर्षण कम होने लगाता है। वे भयानक क्रूर लगने लगते हैं। बच्चों का मानसिक विकास नहीं होता, वे बड़ी उम्र पाकर भी बच्चों जैसे ही बने रहते हैं।

मां बाप के सुधारात्मक दण्ड प्रधान फौजी अनुशासन से बच्चे दण्ड से बचने के लिए अथवा भय के कारण झूठ चालाकी का आसरा लेते हैं। जिन बातों अथवा कारणों से बच्चे को सजा मिलती है उन्हें वे छिपाते हैं, झूठ बोल जाते हैं इस तरह धीरे-धीरे बच्चों में झूठ बोलने, चालाकी, फरेबबाजी की आदतें पड़ जाती हैं जो दिनोंदिन परिपाक होकर जीवन का अंग बन जाती हैं। मानव जीवन और संसार में बहुत बड़े-बड़े दुष्परिणाम, बुराइयां पैदा करने वाली इस झूठ चालाकी, फरेबबाजी की शुरुआत इस रूप में बहुत कुछ घर से ही होती है।

सुधार के लिए अन्य बातों को छोड़कर केवल प्रारम्भ से ही दण्ड का आसरा लेने पर, बच्चों को बार-बार पीटने सजा देने पर बच्चों के सुधार की सम्भावना बहुत कुछ नष्ट हो जाती है, क्योंकि बच्चा भी बार-बार पिटने से दण्ड का आदी हो जाता है। दण्ड एक समर्थ शक्ति शाली प्रयोग है इसका अवलम्बन तो अन्य सभी बातों में असफल होने पर ही निश्चित मात्रा में करना चाहिए। जिन बैलों को डण्डे मार-मार कर चलाया जाता है वे फिर डण्डे खाने के आदी हो जाते हैं। प्रारम्भ में एक-दो डण्डे खाकर जो तेज दौड़ते थे वे फिर बार-बार डण्डे पड़ने पर भी धीरे-धीरे चलते हैं। अपराध करने वाले कई व्यक्ति तरह-तरह से कई बार सजायें पाकर सजा के आदी हो जाते हैं। उन्हें कठोर सजा भी या अधिक दण्ड भी सामान्य-सी बात लगती है। बार-बार सजा पाकर भी वे अपनी अपराध प्रकृति का क्रम चालू रखते हैं। यही बात बच्चों पर भी लागू होती है। बच्चे भी बार-बार मिलने वाले दण्ड के आदी हो जाते हैं। उन पर दण्ड का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

मानव मन की सामान्य स्थितियों में यह विशेषता है कि उसमें दण्ड देने वाले, प्रकट रूप में अहित करने वाले, आलोचना अपमान करने वाले के प्रति विद्रोही प्रतिक्रिया पैदा हो जाती है। बच्चों के अंतर्मन में भी दण्ड देने वालों के प्रति विद्रोही भावनायें उठती हैं। इस विद्रोही भावना के अत्यन्त प्रबल हो जाने पर कई बच्चे अपने अभिभावकों पर आवेशवश घातक आक्रमण कर बैठते हैं और कटु वचन कहते सुने जाते हैं। समर्थ हो जाने पर इस तरह के बच्चे अपने मां बाप, अभिभावकों की कोई परवाह भी नहीं करते। उनकी दुर्दशा पीड़ा में भी ऐसे बच्चों का दिल नहीं पिघलता। बचपन के दण्ड और सजा की चोटें खा-खाकर बच्चों का हृदय कठोर, शुष्क, नीरस, भयानक बन जाता है। ऐसे बच्चे कटु शब्दों, व्यंग बाणों से अपने मां-बापों को व्यथा पहुंचाते हैं। अभिभावकगण अपने भाग्य और जमाने को दोष देकर रोते हैं किन्तु वे भूल जाते हैं कि इस क्रूरता और कठोरता की नींव बच्चों में उन्होंने स्वयं ही लगाई है। यह तो उसकी बाह्य प्रतिक्रिया मात्र है।

बच्चों का मानस बहुत ही कोमल संवेदनशील होता है। जीवन में होने वाली तनिक-सी घटना उनके मानस पर चित्रवत् अंकित हो जाती है। छोटी-छोटी बातों से ही उनकी भावनाओं को ठेस लग जाती है। इस पर सजा ताड़ना तो इस तरह प्रभाव डालती हैं जैसे पत्थर की चोट से कांच का बर्तन क्षत-विक्षत हो जाता है। दण्ड बच्चों की कोमल भावनाओं, हृदय, बाल सुलभ कल्पनाओं को कुचल देता है और उन्हें सदा के लिए अयोग्य, अपंग, अनुपजाऊ, निष्क्रिय बना देता है।

इसका यह अर्थ नहीं कि बच्चों को कभी सजा, दण्ड देना ही नहीं चाहिए। नीति शास्त्र के पण्डितों ने ताड़ना भी बच्चों के सुधार के लिए आवश्यक बताई है। किन्तु दण्ड देना एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक तथ्य है। किस सीमा तक बच्चों को सजा दी जाय, कैसी सजा कब कैसे दी जाय यह बातें जानना उसी तरह आवश्यक है जैसे किसी डॉक्टर का यह जानना कि रोगी को कौन-सी दवा कब-कब, कैसे, कितनी दी जाय? दण्ड के कारण उत्पन्न होने वाले उक्त दुष्परिणाम दण्ड नीति का दुरुपयोग करने पर ही मिलते हैं।

सुधार के लिए सर्वप्रथम यह देखा जाना आवश्यक है कि बिना दण्ड के अन्य बातों से सुधार की प्रेरणा दी जा सके तो उत्तम है। बच्चों को सुधारने में स्नेह-ममता का बहुत बड़ा स्थान है। एक बार महात्मा गांधी से बचपन में कोई भारी भूल हो गई, इस पर उनके पिता ने उस भूल को स्वयं ठीक कर लिया। गांधीजी को देखकर उनकी आंख में केवल आंसू गये। इसका ऐसा मूक प्रभाव पड़ा कि फिर गांधीजी ने कभी वैसा काम नहीं किया जिससे उनके पिता को ठेस लगेदुःख होवे।

जब बच्चों में अपराध प्रवृत्ति बहुत ही बल पकड़ ले और वह स्नेह सरलता से सुधरे उल्टा बिगाड़-क्रम ही चालू रहे तो फिर सजा का भी आश्रय लेना आवश्यक होता है। इस पर भी यह देखना आवश्यक है कि उसे शारीरिक सजा देना आवश्यक है या मानसिक। जहां तक बने प्रारम्भ में फटकार देने अथवा डर धमका देने से काम बन जाय तो ठीक है। इसके अतिरिक्त भूल को सुधारने के लिए उसे खेल या मनोरंजन का रूप देकर बच्चे से ही भूल सुधार कराने का प्रयास करना चाहिए। उदाहरणार्थ बच्चे सामान बिखेर देते हैं तो उन्हीं से उसे ठीक रखाया जाय। बच्चे कुछ तोड़ फोड़ देते हैं तो टूट फूट से होने वाली हानि को बताते हुए बच्चे को समझाना चाहिए। किसी भी तरह की सजा का आधार रचनात्मक हो दमनात्मक नहीं। चार-पांच साल के बच्चे को शारीरिक सजा भी दी जा सकती है किन्तु 7-8 साल बाद तो बच्चों को इस तरह का दण्ड कभी भी नहीं देना चाहिए। इस समय बच्चे का मानसिक विकास काफी हो चुकता है और वह अपने मान-अपमान को समझने लगता है। विद्रोही भावनायें, विपरीत प्रतिक्रिया इसी समय पैदा होने लग जाती है।

बच्चों की अच्छाइयों की भी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करनी चाहिए। उत्साह बढ़ाने, अच्छे काम करने के लिए पुरस्कार देना बच्चों का विश्वास प्राप्त करना है। इस तरह बच्चों को सुधारात्मक निर्देश देकर उन्हें अच्छा बनाया जा सकता है। भूलों से होने वाली हानि समझा कर उनकी आदतों में आवश्यक सुधार किया जा सकता है। दण्ड सजा तो अन्तिम उपाय है जिसका आवश्यकतानुसार ही उपयोग किया जाना चाहिए। 

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