बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बच्चे अपराधी क्यों बनते हैं?

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बच्चे अपराधी क्यों बनते हैं इसका कोई एक निश्चित कारण नहीं वरन् उनके जीवन से संबंध रखने वाली अनेकों बातें हैं, जो बच्चों को अपराध की ओर प्रवृत्त करती हैं। बाल अपराधों के लिए समाज का वह सम्पूर्ण ढांचा ही उत्तरदायी है जिसमें बच्चों का व्यक्तित्व ढलता है। समाज की जैसी हवा बच्चे को लगती है उसका वैसा ही प्रभाव उसके जीवन पर अंकित हो जाता है।

बच्चे का प्रथम संपर्क माता-पिता से होता है। उसमें अपराधी प्रवृत्ति का बीज बहुत कुछ उसके गर्भस्थ जीवन में ही जम जाता है, जब माता पिता अनैतिक जीवन बिताते हैं। बाल-अपराध के प्रसिद्ध अन्वेषक हीली लिखते हैं कि कुछ ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे मालूम होता है कि शराब अथवा किसी अन्य नशे में सम्भोग करने पर पैदा होने वाले बच्चों में पैदाइशी अवगुण जाते हैं। जिस तरह शरीरगत दोष कोढ़, क्षय आदि बीमारियां वंश परम्परागत चलती हैं उसी तरह बच्चों के मानसिक संस्थान की बनावट में भी वंशानुक्रम का बहुत कुछ हाथ होता है। हीली ने एक हजार बाल अपराधियों पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि 56 प्रतिशत अपराधी वंश परम्परागत थे। उन्होंने आगे लिखा हैगर्भ-काल में मां का जैसा जीवन-क्रम, मनोभाव होता है उसकी सूक्ष्म छाप बच्चे पर अवश्य पड़ती है। यही कारण है कि गर्भकाल में जिन स्त्रियों में उत्तेजना, क्रोध के आवेश अधिक आते हैं उनके बच्चों का स्वभाव भी उत्तेजक क्रोधी बन जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बहुत से बच्चों के अपराधी जीवन के पीछे उनके मां-बाप का चरित्र मुख्य होता है।

पैदा होने के बाद घर वालों के व्यवहार पर बच्चों का जीवन बहुत कुछ निर्भर करता है। कई बार वे अपने अभिभावक, माता-पिता, अध्यापक आदि के कठोर व्यवहार के कारण अपराधी बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में दूसरों को तंग करने में परेशान करने में उन्हें प्रसन्नता होने लगती है। वे अपने से बड़ों की आज्ञा उल्लंघन करके, उनकी इच्छा के विरुद्ध आचरण करके उन्हें तंग करने में गर्व अनुभव करते हैं जो आगे चलकर उनकी आदत में जाता है। ये ही बच्चे अपने छोटे भाई बहन या दूसरे बच्चों को मारने पीटने में सन्तोष अनुभव करते हैं।

बच्चों को सख्ती से दबाने पर या उनकी आलोचना करने पर वे बुराई के प्रति अधिक आग्रही बन जाते हैं। अभिभावकों के कटु वचन भी बच्चे में कितना स्थायी प्रभाव पैदा कर देते हैं इसका उदाहरण हीली ने दिया है। उन्होंने एक 11-12 वर्ष के बहुत ही सच्चरित्र बच्चे लड़के का जिक्र किया है जो अपने पिता के एक ही वाक्य से बिल्कुल बदल गया। शाम को पिता घर पर आया। उसका स्वभाव काफी चिड़चिड़ा हो रहा था। उसने देखा बच्चा पढ़ने के समय आराम कर रहा है। पूछने पर दूसरे लड़के ने बताया—”उसकी तबियत खराब हैइसलिए आराम कर रहा है।पिता ने गुस्से में कहा—”झूठ बोल रहा है।बस इसी बात की प्रतिक्रिया बच्चे पर ऐसी हुई कि उस दिन से उसका जीवन ही बदल गया। उसने कहा—”मैं बहानेबाज़ हूं, झूठा हूं। अब ऐसे ही करूंगा।वह अकर्मण्य, आलसी बन गया। सारा दिन ताश खेलने लगा। पढ़ना-लिखना सब छोड़ दिया।

हीली ने एक अन्य उदाहरण में बताया है कि पिता द्वारा पीट कर घर से बाहर निकाल दिए गये एक बच्चे ने आवारा जीवन बिताना शुरू किया। यह विचारणीय है कि उसे दूसरों को पीटने में, अपमानित करने में अधिक आनन्द आता था।

किसी भी तरह से दुर्बल मां-बाप जो अपने बच्चों पर भली प्रकार नियन्त्रण नहीं कर पाते उनके बच्चे बिगड़ जाते हैं। अक्सर देखा जाता है कि गूंगे, बहरे, अन्धे, अपाहिज, निर्धन मां-बाप की सन्तानें प्रायः बिगड़ जाती हैं, क्योंकि वे अपने बच्चों पर भली प्रकार नियन्त्रण और उनका संरक्षण नहीं कर पाते। जो मां-बाप दिन भर अपने काम धन्धे में ही उलझे रहते हैं, बच्चों के जीवन में कोई दिलचस्पी नहीं रखते, उनके बच्चे बहुधा पथ-भ्रष्ट हो जाते हैं। क्योंकि बच्चों में उछल-कूद की प्रवृत्ति होती है, जब उसे सही दिशा नहीं मिलती तो वह गलत दिशा में प्रवृत्त हो जाती है। ऐसे नेता, सार्वजनिक कार्यकर्त्ता जो अपने बच्चों के लिए समय नहीं दे पाते उनके बच्चे भी आवारा बन जाते हैं। आधुनिक युग की औद्योगिक सभ्यता ने जहां बच्चों और अभिभावकों के परस्पर संपर्क को कम कर दिया है वहां बाल अपराधों की संख्या में भी कम वृद्धि नहीं की है।

माता-पिता के पारस्परिक झगड़े, दुर्व्यवहार के कारण भी बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मां-बाप का कलह-पूर्ण जीवन, चारित्रिक दोष, बच्चों को अपराधी बनाने का महत्वपूर्ण कारण है। पारिवारिक उथल-पुथल, कलह, दुर्व्यवहार आदि बच्चों के मानस-संस्थान पर बुरा प्रभाव डालते हैं और वे गलत मांग अपनाते हैं। जिस परिवार के लोग एक स्थान छोड़कर दूसरा स्थान, एक घर छोड़कर दूसरा घर बदलते रहते हैं उनके बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है, उनके जीवन में अस्थिरता जाती है। दूसरों के प्रति ममता, मित्रता एवं अपनेपन की भावना नष्ट, शिथिल हो जाती है। इससे उनमें एकाकीपन, स्वार्थपरता एवं उदासीनता की वृत्तियां उभर आती हैं।

बहुत से बच्चे निराश होकर तब अपराधी बन जाते हैं जब उनकी अपनी सीमा से बढ़ी हुई महत्वाकांक्षायें पूरी नहीं होतीं। प्यार के स्थान पर बच्चों को फटकारना, स्वयं बच्चों के जीवन में दिलचस्पी लेकर उसे दूसरों पर छोड़ देना, अभिभावकों द्वारा उनके प्रति मनोरंजन, स्नेह का अभाव होना ऐसी कई बातें हैं जिनसे वे अपराधी प्रवृत्तियों में लग जाते हैं। घर ही बच्चे की प्रथम पाठशाला है और घर के सदस्यों का व्यवहार ही उसका पाठ्यक्रम है। परिवार में जैसी प्रेरणायें बच्चे को मिलती हैं वैसा ही वह बन जाता है। बच्चों को बुराई की ओर प्रवृत्त करने तथा अपराधी जीवन बिताने के लिए बुरे साथी और कई सामाजिक बुराइयां भी कम उत्तरदायी नहीं हैं। स्मरण रहे बच्चों को गड्ढे में गिराने वाला, पतित करने वाला, अपराधी बनाने वाला, सर्वप्रथम बुरा साथ ही मुख्य होता है। यह साथ पहले घर में ही मिलता है। माता-पिता, रिश्तेदार, भाई-बहन कोई भी हो सकते हैं, जो बच्चों को बुराई की ओर प्रवृत्त करते हैं। सबसे पहले बच्चों को बिगाड़ने के लिए घर में ही बुरा साथ मिलता है, उसके बाद फिर पड़ौस, स्कूल और घर से बाहर। स्मरण रहे कई बुरी आदतों, काम वासना संबंधी बुराइयों का प्रारम्भ प्रायः बुरे साथ से ही होता है।

अभिभावकों को इतना तक ध्यान नहीं रहता कि उनके बच्चे किनके साथ उठते-बैठते हैं, किनके साथ खेलते हैं, कितना भी होनहार बालक क्यों हो बुरे संगत में पड़कर वह भी पतित हो जाता है। बच्चों का ग्रहणशील किन्तु विवेकहीन मस्तिष्क शीघ्र ही बुराइयों की ओर आकर्षित हो जाता है। बच्चों में बुराइयों की जड़ अधिकतर बुरे साथियों से ही जमती है।

बच्चों को बिगाड़ने में कई सामाजिक बुराइयों का भी काफी महत्व है। इनमें गन्दे सिनेमा, दूषित अश्लील साहित्य, गलत सामाजिक मान्यता परम्परायें आदि मुख्य हैं।

सिनेमा का बच्चों की भावनाओं को दूषित कर उन्हें बुराइयों की ओर प्रवृत्त करने में बड़ा हाथ है। मद्रास के एक समाजशाही रामास्वामी अय्यर ने बाल-अपराधों की जांच करके अपनी रिपोर्ट में लिखा है—‘‘सिनेमा बाल-अपराध का एक बहुत बड़ा कारण है।’’ यहां तक कि धार्मिक फिल्मों में भी अश्लीलता, अशिष्टता की बहुतायत होती है। तथाकथित सामाजिक चलचित्र तो और गये-बीते होते हैं। फिर इनसे बच्चों में अपराध प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। इसीलिए उक्त समाजशास्त्री ने सुझाव दिया है कि बाल-अपराधों को मिटाने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ चल-चित्रों के प्रति काफी कड़ाई बरतनी चाहिए। ऐसी फिल्में जिनमें काम, तड़क-भड़क की प्रधानता होती है, बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालती हैं। बच्चे भी वैसा ही करने लगते हैं और इस अभ्यास में उन्हें अपराधी जीवन का मार्ग अपनाना पड़ता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अधिकांश फिल्मों का प्रभाव बच्चों में वासनामय जीवन का सूत्रपात कर देता है।

गन्दे उपन्यास, कहानियां, भद्दी तस्वीरें, बच्चों की अपराध प्रवृत्तियों को जगाते हैं, बुद्धि तथा चरित्र को भ्रष्ट करते हैं। वस्तुतः बच्चों को अपराध की नियमित शिक्षा गन्दे साहित्य से ही मिलती है। ब्रिटेन के अपराध शास्त्रियों ने कुछ दिनों पहले बाल-अपराध के कारणों पर प्रकाश डालते हुए बताया है—‘‘सिनेमा में दिखाई जाने वाली हिंसात्मक, क्रूर, अश्लील घटनायें बच्चों को अपराधी बनाने के लिए बहुत कुछ उत्तरदायी हैं।’’

हमारे समाज का संकीर्ण दृष्टिकोण जिसके अनुसार कोई बच्चा तनिक-सी गलती कर बैठे तो फिर उसे बुरा मान लिया जाता है, उसके प्रति बुरी धारणा बना ली जाती है और बात बात में उसे अपमानित किया जाता है, इससे भी बहुत से बच्चे अपराधी जीवन की ओर प्रेरित हो जाते हैं। भूल करना मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है। प्रारम्भ में की गई गलतियों को भुला कर बच्चों के प्रति सौम्य व्यवहार रखने पर वे सुधर सकते हैं।

बहुत से बच्चे अपने आप में अपराधी नहीं होते वरन् एक अपराधी बच्चों के समुदाय की प्रेरणा अथवा दबाव से बुराइयां करते हैं। प्रत्येक स्थान पर ऐसे बच्चों का एक समूह अवश्य होता है जो अन्य सीधे-सादे, सरल बच्चों को बहका फुसला कर या धमका कर बुरे कामों के लिए प्रेरित करते हैं।

बहुत-सी शिक्षण संस्थाओं में अध्यापकों के गलत आचरण के कारण भी बच्चों में बुराइयां पैदा हो जाती हैं। जो अध्यापक बच्चों के साथ धूम्रपान करते हैं, ताश, चौपड़ आदि खेलते हैं, अपने मित्रों के साथ गपशप और अश्लील बात-चीत करते हैं, उनसे बच्चे क्या सीख सकते हैं? इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपने शिक्षकों की नकल करके बच्चे भी वैसा ही करने का प्रयत्न करने लगते हैं। बहुत से अध्यापक बच्चे की किसी शारीरिक या मानसिक कमजोरी को महत्व देकर उन्हें तिरस्कृत करते हैं, अपशब्द कहते हैं या उनकी उपेक्षा करते हैं। परिणाम यह होता है कि बालक के मन में एक तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और वह कई गलत कार्यों, बुराइयों में फूट निकलती है। बच्चा स्कूल में केवल अक्षरीय ज्ञान ही प्राप्त नहीं करता वरन् उस चरित्र और आदर्श को भी ग्रहण करता है जो अध्यापकों और अपने सहपाठियों के जीवन से उसे मिलता है। यही कारण है कि बहुत से बच्चे तो प्रारम्भ में बहुत ही भले होते हैं, स्कूल कालेजों में जाने के बाद बिगड़ जाते हैं। 

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