बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बालकों का समुचित विकास आवश्यक

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समुचित विकास का अर्थ है बच्चे की शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक वृद्धि। जब तक जिसमें इन तीनों शक्तियों का संतुलित विकास नहीं होता उसका व्यक्तित्व अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुंचता। और जब तक व्यक्तित्व की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं होती मनुष्य जीवन की महान् उपलब्धियों को प्राप्त नहीं कर पाता। समाज उसको या तो समझ ही नहीं पाता या समझने में भूल करता है। जिसका जितना ही उज्ज्वल चित्र समाज के सामने रहता है वह उतना ठीक पहचाना जाता है।

समुचित विकास के लिये बच्चे को प्रेरणा देने से पहले यह आवश्यक है कि शारीरिक विकास मानसिक विकास और बौद्धिक विकास का क्या अर्थ है? यह समझ लेना चाहिये।

शारीरिक विकास का अर्थ हैशरीर का सुगढ़, स्वस्थ और सशक्त होना। मानसिक विकास का अर्थ है मन का प्रसन्न, प्रफुल्ल, निर्भीक, साहसिक, विश्वस्त और स्थिर होना। बौद्धिक विकास का अर्थ हैकिसी बात के ठीक-ठीक समझने-समझाने और निर्णय में बुद्धि का सक्षम होना। और समुचित विकास का अर्थ है इन तीनों बातों का साथ-साथ समान रूप से वृद्धि पाना!

सबसे पहले बच्चे का शारीरिक विकास प्रारम्भ होता है। उसके बाद बौद्धिक और तत्पश्चात मानसिक। इस क्रम से विकास होने के कारण शारीरिक विकास अन्य दोनों विकासों की आधार भूमि माना जाता है। अतएव अभिभावकों का पहला कर्तव्य है बच्चे के शारीरिक विकास पर समुचित ध्यान देना!

बच्चे को उसकी आयु के अनुरूप शुद्ध और सुपाच्य वस्तुयें खिलाना चाहिये, क्योंकि प्रौढ़ों की पाचन शक्ति और बच्चों की पाचन शक्ति में अन्तर होता है। अधिकतर सभी घरों में सब को एक ही समान भोजन दिया जाता है। क्या बच्चे क्या प्रौढ़ एक ही प्रकार की बनी रसोई खाते हैं। किसी के अलग भोजन की व्यवस्था होती है और इसकी आवश्यकता अथवा महत्व समझा जाता है?

प्रायः सभी अभिभावक वही चीजें बच्चों को भी खिलाते हैं जो उन्हें पसन्द होती हैं। बच्चा यदि अपनी प्रकृति अथवा आयु के प्रतिकूल यदि कोई चीज नापसन्द भी करता है तब भी उसे थोड़ी-थोड़ी और बार-बार खिला कर उन चीजों का अभ्यास कराते हैं। वे सदैव यह चाहते रहते हैं कि बच्चा ठीक उनके ही अनुसार हर बात का अभ्यस्त होकर ठीक-ठीक उनका ही प्रति रूप बने। समान भोजन का अभ्यस्त बना लेने में उन्हें एक सबसे बड़ी सुविधा यह दीखती है कि बच्चे के लिये अलग से भिन्न प्रकार की वस्तुयें बनाने का झंझट नहीं करना पड़ता। वे इसमें श्रम, समय और पैसे की बचत की सुविधा देखते हैं, बच्चे के स्वास्थ्य को नहीं देखते। मिर्च मसालों वाला भोजन भी बच्चे को खिलाने में संकोच नहीं करते। यद्यपि वह मिर्च आदि मुंह में लगते ही रोने बिलबिलाने लगता है, तथापि उनको यह विचार नहीं आता कि यह चीज उसके प्रतिकूल है, नहीं खिलानी चाहिये। इसके विपरीत बहुतों का यह विश्वास होता है कि मिर्च मसालों से बच्चों की पाचन क्रिया को शक्ति मिलती है और उसकी जुबान खुलती है। यह भूल है। मिर्च मसाले बच्चे की पाचन क्रिया खराब कर देते हैं और उसके स्वस्थ बनने में बाधक होते हैं।

जब बच्चे का शारीरिक विकास समुचित रूप से होता चलेगा तो अन्य दो विकास भी ठीक-ठीक होंगे। भोजन का प्रभाव मन और मस्तिष्क पर भी पड़ता है। जिस प्रकार का भोजन बच्चे को दिया जायेगा उसी प्रकार का उसका मन और मस्तिष्क बनेगा। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और मस्तिष्क होता हैइस सिद्धान्त के अनुसार उसे केवल वे ही चीजें खिलाई जानी चाहिये जो उसके शरीर, मन और मस्तिष्क के अनुकूल हों। जिससे शरीर स्वस्थ, मन सबल और बुद्धि प्रखर बने!

बौद्धिक विकास के लिये उसे ऐसे वातावरण में रखना चाहिये जो उसके अनुकूल हो। उससे बुद्धि वर्धक बातें की जानी चाहिये और ऐसे खिलाया जाना चाहिये जिससे उसे थोड़ी बहुत बुद्धि का प्रयोग करना पड़े। व्यावहारिक बातों में, क्या कैसे होता है, ऐसा क्यों है, ऐसा क्यों नहीं होना चाहिये आदि तर्क पद्धति से सोचने और समझने का अभ्यस्त बनाना चाहिये। इससे उसमें विचार शक्ति का उदय होगा और वह हर बात पर विचार करने लगेगा। बुद्धि का अधिक से अधिक उपयोग ही बौद्धिक विकास का सबसे अच्छा साधन है!

उसे सामान्य रूप से उपयोग और प्रयोग में आने वाली चीजों का प्रारम्भिक ज्ञान कराया जा सकता है। जैसे दूध कैसे प्राप्त होता है, उसकी क्या उपयोगिता है? वह कब हानि और कब लाभ करता है? अच्छे और खराब दूध की क्या पहचान है? अन्न कैसे उत्पन्न होता है, कौन सा अन्न कैसा होता है और उसकी क्या पहचान है? सब्जियां कैसे उगाई जाती हैं, कपड़ा कैसे बनता है, कापी, कागज, किताबें आदि किस प्रकार इस रूप में आती हैं आदि? तात्पर्य यह कि नित्य प्रति प्रयोग में आने वाली चीजों के माध्यम से उसमें ज्ञानोपार्जन की एक प्रकृति का जागरण किया जा सकता है, जिससे आगे चलकर उसमें अधिकाधिक ज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न हो जायेगी और वह अध्ययनशील एवं अन्वेषणशील बन जायेगा जिससे उसके बौद्धिक विकास को पर्याप्त लाभ होगा!

पाठशाला में भेजने से पूर्व बच्चे को साल दो साल घर पर पढ़ा लेना चाहिये, जिससे कि शिक्षा के अनुकूल उसका बौद्धिक धरातल तैयार हो जाये। घर पर शिक्षा देने से इस बात का भी पता लग जायेगा कि किन विषयों में उसकी विशेष रुचि है और कौन से विषय उसे कठिन पड़ते हैं। इसका पता लग जाने से शिक्षकों को उससे अवगत कराया जा सकता है जिससे शिक्षक को उसे समझने और पढ़ाने में सुविधा रहेगी! साथ ही जब कोई बच्चा कुछ अपनी योग्यता लेकर घर से पाठशाला जायेगा तो पढ़ना उसके लिये एक दम कोई नई वस्तु होगी और वह कक्षा में ठीक से चल सकेगा। अधिकतर बच्चे 6, 7 वर्ष की आयु पर पाटी पुजाकर पाठशाला की ओर हांक दिये जाते हैं, जिससे वह नये काम और नई जगह के कारण घबड़ाता है रोता है और बचना चाहता है! नित्य प्रति पाठशाला जाने के समय अनुरोध का झंझट पैदा होता है, जिससे अभिभावक को झल्लाहट और बच्चे की अरुचि पैदा होती है। और कभी-कभी तो माता-पिता परेशान होकर उसे शिक्षा के अयोग्य समझ कर इस ओर से उदासीन हो जाते हैं और यह धारणा बना कर पढ़ने से बिठा लेते हैं कि इसके भाग्य में विद्या है ही नहीं। अस्तु पाठशाला भेजने से पहले यदि उसके अनुकूल उसका बौद्धिक धरातल घर पर ही तैयार कर दिया जाये तो इस प्रकार की सम्भावनाओं का अवसर ही आये।

शिक्षा के विषय में केवल शिक्षालयों तथा शिक्षा पर ही निर्भर रहना चाहिये। स्वयं भी देखना चाहिये कि उनका बच्चा पढ़ाई लिखाई में क्या प्रगति कर रहा है। कमजोर बच्चों को अभिभावकों को स्वयं पढ़ाई में कुछ कुछ सहायता करनी चाहिये। साल बचाने के लिये एक कक्षा से दूसरी कक्षा में पहुंचाने के लिये व्यर्थ प्रयत्न करना चाहिये। शिक्षा को योग्यता के मापदण्ड से नापना चाहिये कि कक्षा की श्रेणी से। आशय यह है कि बच्चे के लिये शिक्षा की ऐसी अवस्थाओं और व्यवस्थाओं का प्रबंध करना चाहिये जिससे कि वे दिनों दिन योग्य बन सकें।

मानसिक विकास के लिये उन्हें अधिक से अधिक प्रसन्न एवं विशुद्ध वातावरण में रखने का प्रयत्न करना चाहिये। उन पर इतना नियंत्रण करना चाहिये कि वे मुरदा-तन हो जाये और इतनी छूट देना चाहिये कि वे उच्छृंखल हो जायें। इन्हें भय से मुक्त करने के लिये साहस की कथायें सुनाई जानी चाहिये और उदाहरण देने चाहिये। उन्हें किसी बात से सावधान तो करना चाहिये किन्तु भयभीत नहीं। धीरे धीरे कठिन कामों का अभ्यस्त बनाना चाहिये। काम बिगड़ जाने पर उनका उपहास करके उसके सुधार की शिक्षा देनी चाहिये और समुचित सराहना से प्रोत्साहित करना चाहिये। उनके सामने क्रोध, लोभ, स्वार्थ अथवा असद्भावनाओं की परिस्थितियां आने देना चाहिये। उन्हें अच्छी बातों के लिये प्रोत्साहित और बुरी बातों के लिये हतोत्साहित करना चाहिये। उनके सामने कभी भी ऐसी बातें की जानी चाहिये जिससे उनके मन पर कोई बुरा प्रभाव पड़े। अभिभावकों को अपने व्यसनों की तुष्टि उनकी नजर बचाकर करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से वे भी व्यसनी बन सकते हैं और तब उन पर समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। 

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