बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बच्चों को अनुशासन कैसे सिखाया जाय?

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बच्चों को आज्ञापालक और अनुशासित बनाने का काम महत्वपूर्ण होते हुए बड़ा पेचीदा भी है। हमारे देश में बहुत कम ही मां-बाप, अभिभावकगण इस सम्बन्ध में अपना कर्तव्य निभा पाते हैं अधिकांश तो जीवन भर बच्चों की अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता के प्रति शिकायत ही करते रहते हैं। आधुनिक बाल-मनोविज्ञान और बाल-शिक्षण पद्धति भी केवल पढ़ने-लिखने की बात रह गई है। पारिवारिक जीवन में इसका उपयोग नहीं के बराबर ही होता है।

बच्चों को अनुशासन सिखाने, अपनी आज्ञा मनवाने का प्रायः सभी लोग एक ही रास्ता अपनाते हैं, वह है, मारपीट या डांटना-डपटना। सजा देकर बच्चों में अच्छी आदतें पैदा करने की एक परिपाटी-सी पड़ गई है। लेकिन बच्चों को सुधारने के लिए सजा देना बहुत पुराना नियम पड़ गया है। आज के विकसित युग में तत्सम्बन्धी खोज अनुभवों ने इसे व्यर्थ और अव्यवहारिक सिद्ध कर दिया है। बाल-मनोविज्ञान के ज्ञाता जानते हैं कि सजा के द्वारा बच्चों को सुधारने से समस्या जटिल बनती है। बच्चे का व्यक्तित्व संकुचित, अविकसित बनता है।

मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि बच्चा किसी भी बात को स्थायी रूप से तभी सीख पाता है, जब वह उसके बारे में सोचता है और यह निर्णय करता है कि ऐसा करना अच्छा है। कोई बालक घर से बाहर आवारा घूमता है, मां बार-बार चिल्लाती है, लेकिन वह नहीं मानता, घर का काम करता है, पढ़ने में मन लगाता है। इस बात पर उसे पीटा जाय या अनुनय विनय की जाय तो वह नहीं मानेगा। भय के मारे कुछ समय वैसा भी करेगा, लेकिन भय का कारण दूर हुआ कि वह फिर वैसा ही करने लगता है। लेकिन जब वह समझ लेता है कि आवारा घूमना, मां का कहना मानना बुरा है तो फिर ऐसा वह नहीं करेगा। घर के सामान को खराब करने से बालक भय के आधार पर सदा सर्वदा नहीं रोका जा सकता, लेकिन जब वह जान लेता है कि सामान खराब करने से अपना ही नुकसान होता है तो वह ऐसा नहीं करेगा।

बाल-मनोविज्ञान इसी बात पर बल देता है कि बालक को कोई काम सिखाने के लिए उसके साथ जोर-जबर्दस्ती से काम लेने की आवश्यकता नहीं है, अपितु उसकी उपयोगिता, महत्ता को समझने-बूझने की स्थिति पैदा की जाय, जब बालक किसी बात के बारे में सही-सही सोच समझ लेता है तो फिर उसे सीख भी जल्दी ही लेता है। जो बुरा होता है, उसे जल्दी ही छोड़ देता है। बच्चे को अनुशासित बनाने के लिए हमें इसी आधार को लेकर चलना होगा। यद्यपि यह मार्ग अधिक कठिन है, इसके लिए अभिभावकों में अधिक बुद्धि, विवेक, चातुर्य, सूक्ष्म-दृष्टि होने की आवश्यकता है, तभी वे ऐसा करने में सफल हो सकते हैं। इसमें समय भी लगता है, प्रयत्न भी कई ढंग से करने होते हैं तथापि स्थायी समाधान के लिए यह सर्वोपरि मार्ग है।

बहुत से मां-बाप इसके लिए प्रतीक्षा कर अधिक पचड़े में पड़कर सीधे-सरल मार्ग से सजा देकर बच्चों को सुधारने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन इससे बच्चे बहुत बार सुधरने के बजाय बिगड़ते ही अधिक हैं या उनका वह सुधार बहुत ही कम स्थायी होता है। दण्ड के भय का कारण दूर होते ही बालक फिर वैसा ही करने लगता है, अथवा वह विद्रोही बन जाता है। उसमें कई मानसिक विकृतियां पैदा हो जाती हैं और ये सभी उसके व्यक्तित्व को दूषित कर देते हैं।

अक्सर बच्चों की तरफ से शिकायत होती है कि वे समय पर नहीं उठते, पढ़ते हैं। वे अस्त-व्यस्त जीवन बिताते हैं। उनके खेलने, खाने-पीने पढ़ने आदि का कोई क्रम नहीं है, तो भी बार-बार बच्चों को डांटना-डपटना ठीक नहीं। बच्चों के लिए दिन भर का एक कार्यक्रम निश्चित कर देना आवश्यक है। बच्चा जब थोड़ा-बहुत समझने लगे तो उसकी एक छोटी-सी दिन-चर्या बनादें और उसके अनुसार बालक को चलने का अभ्यास डालें। स्मरण रहे दिनचर्या के नियम बनाते समय उसका श्रेयमहत्व बालक को देते हुए उसकी राय मांगें। अपने लिए बनाये जाने वाले कार्यक्रम में बच्चा जब स्वयं रुचि लेता है, तो उसे भली प्रकार निभाता भी है। कदाचित बालक निश्चित कार्यक्रम में भूल करे तो उसे संकेत कर देना चाहिए, जिससे बालक अपनी भूल को ठीक कर सके। किसी विशेष अवसर पर या परिस्थितिवश आवश्यकता पड़ने पर नियमित कार्यक्रम में हेर फेर भी किया जा सकता है। लेकिन बच्चे को नियमित क्रम-बद्ध जीवन-यापन का अभ्यास शुरू से ही कराना चाहिए।

बालक कोई भी गलत काम करे, उसे देखकर टालना नहीं चाहिए। तुरन्त बालक की भूल सुधार कर देना आवश्यक है, अन्यथा बार-बार एक तरह की गलती दुहराते रहने पर उसका अभ्यास पड़ जाता है और उसे ठीक करना कठिन हो जाता है। जैसे बालक पहली बार माचिस से खेलता हुआ पाया जाय तो उसे तुरन्त प्यार से यह समझा दिया जाय—‘‘इससे आग लग जाती है और जल जाते हैं, इससे नहीं खेला करो, खिलौनों से खेलो।’’ और फिर बालक को खिलौने देकर उस ओर लगा देना चाहिए। जो मां-बाप पहले प्यार वश या लापरवाही वश एक लम्बे समय तक बालक की भूलों को टालते रहते हैं, उस पर ध्यान नहीं देते और आगे चलकर जब बच्चे बड़े-बड़े नुकसान करने लगते हैं तो उन्हें मना करते हैं, रोकते हैं, लेकिन उनका अभ्यास ऐसा पड़ जाता है कि अब वे कहना नहीं मानते। अतः अनुशासन की सीख प्रारम्भ से ही बालक को छोटी छोटी भूल सुधार के माध्यम से देना आवश्यक है।

जिन वस्तुओं से बच्चों को खतरा हो अथवा कीमती वस्तुएं जिन्हें बालक तोड़ता फोड़ता हो, ऐसी हालत में अच्छा यह है कि बच्चे की निगाह चुका कर अथवा उसका ध्यान खिलौने आदि में अन्यत्र लगाकर उन वस्तुओं को एक तरफ रख दिया जाय, जहां बालक की निगाह उन पर पड़े। सीधे रूप में मना करने पर बालक नहीं मानेगा।

बात बात पर बच्चों को नकारात्मक आदेश भी नहीं देने चाहिए। बालक कुछ करे और बाद में उससे नाकहना पड़े, उसके पूर्व ही उसे रोक लेना चाहिए। क्योंकि किसी काम में जब बालक मनोयोगपूर्वक लग जाता है, तब उसे मना करने पर वह कई बार नहीं मानता। अतः अच्छा यही है कि उसे काम में लगने से पूर्व ही रोक लेना चाहिए। बार बार मना करने पर बालक की एकाग्रता, मनोयोग नष्ट होता है। उसका जीवन निराशा से भर जाता है। अतः आवश्यकता पड़ने पर ही बालक पर नाका प्रयोग करना चाहिए। वह भी बड़े स्नेह के साथ।

बच्चों से झूंठे वायदे कभी करें। इससे वह अपने मां-बाप की हर बात पर अविश्वास करने लगते हैं, फिर उपयुक्त बात भी वह नहीं मानता। बच्चे के साथ जो वायदा किया जाय, उसे अवश्य पूरा करें। जिन्हें आप पूरे कर सकें ऐसे वायदे कभी भी करें।

क्रोध, झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट के द्वारा बच्चों को अनुशासन सिखाने का प्रयत्न करें। इनसे बच्चों का सहज उत्साह नष्ट हो जाता है। वह मूक पशु की तरह बिना कोई ननु नचकिये आदेश पालन करने लगता है। वैयक्तिक स्वतन्त्र प्रतिभा कुन्द हो जाती है। वह असमय में ही कृत्रिम अनुशासन पालन करने के प्रयत्न में अधिक धीर-गम्भीर सोच विचार करने वाला बन जाता है, जो स्वस्थ दशा नहीं कही जा सकती।

बच्चों को अनुशासित रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता इस बात की है कि स्वयं माता-पिता भी अपने जीवन में अनुशासित रहें। नियमित व्यवस्थित जीवन बितायें। जो मां-बाप स्वयं देर से उठें और बच्चों से कहें जल्दी उठो, स्वयं खेलने, घूमने फिरने में समय बर्बाद करें और बच्चों से कहें—‘पढ़ो समय खराब करोउनकी आज्ञा बालक नहीं मानेंगे। अभिभावकों को चाहिए कि अपने स्वयं आचरण, व्यवहार, जीवन पद्धति से बच्चों को अनुशासन को सीख दें। 

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