बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बालकों को अनावश्यक सहयोग मत दीजिये

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मोरिया मान्टेसरी ने कहा है कि बच्चे चाहते हैं मुझे मदद करो ताकि मैं अपने पांवों पर खड़ा हो सकूं। अनावश्यक मदद वास्तव में मेरी मदद नहीं है परन्तु मेरे विकास में बाधा उत्पन्न करती है।

बड़े कहते हैं हम बच्चे का सब काम खुद करते हैं। उसे गुड्डे के सदृश्य सजा कर, संभाल कर रखते हैं। उसको नहलाना, घुलाना, कपड़े पहनाना, खिलाना-पिलाना, सुलाना आदि सभी कार्यों का भार हमने ऊपर लिया हुआ है। इसकी प्रत्येक इच्छा पूरी करने की हम चेष्टा करते हैं। परन्तु फिर भी यह खुश नहीं है।

डा. वासुदेव शरण अग्रवाल जी लिखते हैं बड़े यह बात भूल जाते हैं कि इस प्रकार करते हुए वे अनजान में बच्चे के विकास में कितनी बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। बच्चे को मां-बाप की केवल उतनी ही मदद चाहिये जिस से वह स्वावलम्बी बन सके। उसको सही ढंग से अपने शक्तियों को विकसित करने की प्रेरणा मिल सके। उनके उदाहरणों से वह स्वयं आगे बढ़ने का प्रोत्साहन पा सके। अपनी गलतियों से सबक सीखता हुआ वह दिन पर दिन प्रगति की ओर बढ़ता जाय। आरम्भ में वह भूल करता है, आगे बढ़ने के लिए, गिरता है, ठोकर खाता हैफिर संभल कर चलने के लिए, बुदबुदाता तथा निरर्थक शब्द करता हैभाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए। अगर बच्चे की इतनी प्रारम्भिक क्रियाओं को निरर्थक और निरुद्देश्य समझ कर रोक दिया जाय तो उसकी प्रगति रुक जायेगी। उसे वस्तुओं से परिचय बढ़ाना है, अपनी जानकारी बढ़ानी है, जीने के लिये कर्मशील बनना है। अगर आप बच्चे की इस मांग को अनावश्यक सहयोग देकर अपूर्ण रखेंगे तो वह या तो असामाजिक ढंग से व्यवहार करने लगेगा, आप के प्रति विद्रोही बन जायगा, आप की आज्ञा उल्लंघन करेगा और या वह दब्बू और निकम्मा बन जायगा, उसकी प्रगति रुक जायगी वह हमेशा दूसरों का मोहताज बना रहेगा।

बालक के भीतर अनन्त सम्भावनाओं के बीज हैं, विश्व में ऐसा कुछ नहीं जो बीज रूप में बालक के भीतर हो, समय पाकर वे ही बीज विकसित और संवर्द्धित होते हैं।

पूर्वजों ने जो किया और जाना, उसे बालक के कर्म और ज्ञान में नवीन अवतार लेना पड़ेगा। इस प्रकार प्रयत्न से जो नई पीढ़ी तैयार होती है, वह उस श्रृंखला में एक-एक कड़ी है जो मानव जाति का गौरवमय अतीत और आशामय भविष्य है।’’

बच्चे की संघर्ष शक्ति प्रकृति ने हर एक प्राणी में जीवित रहने के लिए संघर्ष करने की शक्ति पैदा की है। उदाहरण के लिए आप एक तितली के बच्चे को लें। तितली मां अपने अण्डे पत्तों के कोटर में देती है ताकि उस जगह अण्डे शत्रुओं से सुरक्षित रहें, परन्तु जब उनमें से कैटरपिलरनिकल आते हैं उन्हें स्वयं जीवित रखने के लिये नर्म नर्म पत्तों की फुनगियों की आवश्यकता प्रतीत होती है। वे विचित्र प्रकार से रेंग-रेंगकर उन फुनगियों उन फुनगियों तक स्वयं पहुंच जाते हैं। इसी प्रकार कछुए अपने अंडे बालू में गाढ़कर स्वयं पानी में आकर तैरते हैं। अंडों से बच्चे निकल कर स्वयं रेंग कर पानी में जाते हैं। मनुष्य का क्रियाशील रहना उसके जीवित रहने के लिए परमावश्यक है। कुछ करने की भावना होना बच्चे में बहुत स्वाभाविक है। पालने में पड़े हुए उसका हाथ-पांव मारना या थूक के बुदबुदे उड़ाते हुए निरर्थक ध्वनियां करना मानो उसकी प्रारम्भिक क्रियायें हैं, जो कि उसके लिए चलना और बोलना सीखने के लिये बहुत जरूरी हैं। इसी प्रकार जब वह वस्तुओं को उठाकर उलटता-पलटता तथा उन्हें फेंक देता है या बार-बार एक ही काम को दोहराता है, सीढ़ियों पर चढ़ता उतरता है, वह ऐसा करता हुआ अपनी जानकारी बढ़ाया करता है। अपने अंगों को पुष्ट बनाने की चेष्टा कर रहा है।

बच्चे अपने आस-पास की दुनिया से परिचय बढ़ाना चाहते हैं। पर बड़े उनको पग-पग पर रोकते टोकते हैं। इस संघर्ष में चाहे बड़ों की जीत होती हो पर इसका प्रभाव बच्चों पर अच्छा नहीं पड़ता।  

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