बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

बच्चों को समय का सदुपयोग सिखाया जाय

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अवकाश का अर्थ बेकार पड़े रहना अथवा सोते रहना नहीं है। और उसका यह ही आशय है कि जिन्हें अवकाश मिला है वे बेकार में इधर-उधर बैठकर और गप लड़ाकर समय नष्ट कर डालें। अवकाश का तात्पर्य है निरन्तर किये जाने वाले कार्य को कुछ समय के लिए स्थगित करके कुछ ऐसा काम करना जिससे नवीनता आये, मन मस्तिष्क में कुछ परिवर्तन आये, नया ज्ञान मिले और मनोरंजन हो।

पढ़ने वाले लड़कों को वर्ष में सब मिलाकर लगभग छः माह का अवकाश प्राप्त होता है। इस अवकाश में से यदि त्यौहार तथा साप्ताहिक छुट्टियां निकाल दी जायें जब भी यह अवकाश का समय चार साढ़े चार माह का तो बच ही सकता है। उसमें गर्मी की तो एक साथ ही लगभग दो माह की छुट्टियां होती है। यह सारा अवकाश बच्चे या तो घर में पड़े-पड़े सोते हुये बिताते हैं, अथवा नाते रिश्तेदारी में विवाह शादी करके। इस अवकाश का कोई समुचित उपयोग नहीं होता। यदि हो सके तो निश्चित है कि इस अवधि में बच्चे बहुत-सा नया ज्ञान और अर्थ तक उपार्जन कर सकते हैं।

नौकरी पेशा अभिभावकों को छोड़कर लगभग अन्य सारे अभिभावकों में से किसी के खेती का काम होता है तो किसी के यहां कार रोजगार और दुकानदारी होती है। ऐसे अभिभावकों को चाहिये कि वे अपने बच्चों को अवकाश के समय में उन कामों में लगाया करें। यह कभी  सोचें कि यह तो पढ़ने लिखने वाले हैं इनका मन मस्तिष्क इसमें अभी नहीं लग सकता। खेलकूद लेने दिया जाये। जब समय आयेगा, काम-काज सिर पर पड़ेगा तो आप कर लेंगे। अभिभावकों की यह विचारधारा बड़ी अवैज्ञानिक है। जिन बच्चों को शुरू से ही थोड़ा-थोड़ा काम में लगाया जाता रहता है उनका उस काम में एक प्रकार से प्रशिक्षण होता चलता है। उन्हें उसकी बाहरी भीतरी बातें पता चलती हैं। मस्तिष्क का उसकी बारीकियों तथा कठिनाइयों से परिचय होता है। उनकी रुचि बढ़ती ही जाती है और जब वे पढ़ाई पूरी करने के बाद वह काम अपने हाथों में लेते हैं तो वह उनके लिये बहुत नवीन या कठिन नहीं होता। आसानी से करते रहे के समान ही ग्रहण करलें और करने लगें।

जिन अभिभावकों के खेती होती है, वे अवकाश के समय में उन्हें खेती के काम से परिचित करायें, सहायता लें। खेतों पर घुमाने ले जायें उनकी पैदावार और कठिनाई के विषय में अवगत करायें। किन खेतों में पैदावार अच्छी होती है और किन में नहीं, इसका कारण बतलायें। हल किस प्रकार ठीक से जोता जाता है, बैल कौन-सी नस्ल के अच्छे होते हैं और उनको किस प्रकार स्वस्थ रखकर अधिक से अधिक काम किया जा सकता हैयह सब व्यावहारिक अनुभव उन्हें करायें। ऐसा करने से उनका केवल ज्ञान बढ़ेगा बल्कि खेती के काम में रुचि भी पैदा होगी, जिससे यह समस्या हल होने में सहायता मिलेगी कि बच्चे पढ़ लिखकर खेती करने के बजाय शहरों में छोटी-मोटी नौकरी कर लेना पसन्द कर लेते हैं। किसी काम की योग्यता, उससे हाथ पांवों का परिचय और रहस्यों की जानकारी उसमें वह रुचि पैदा कर देती है। यदि बच्चे शुरू से ही हल, बैल, मिट्टी, खाद, खेत आदि से तन मन से परिचित होते रहें तो वह उनके लिये नवीन काम रह जाये। उनकी सारी झिझक निकल जाये और वे उसके लाभ तथा उपयोगिता से परिचित होने से सहर्ष वह धन्धा अंगीकार कर लेंगे।

व्यापारी वर्ग भी अपने धन्धों में बच्चों को इसी प्रकार प्रशिक्षित कर सकते हैं। वे उन्हें अपने साथ बाजारों में ले जायें। क्रय-विक्रय की रीति से परिचित करायें। माल की अच्छाई-बुराई पहचानने की योग्यता दें। अन्य व्यापारियों के शील स्वभाव तथा आवश्यकताओं से परिचित करायें। व्यापार की तरक्की का क्या रहस्य है उसमें पतन तथा घाटा जिन कारणों से आता है वे बताये जा सकते हैं और उनसे सावधान रहने की चेतावनी दी जा सकती है। इस प्रकार उनसे बाजारदारी और दुकानदारी कराकर उनको बहुत पहले से ही उस काम में रमाया जा सकता है जिससे आगे चल कर उनका मन लगने का प्रश्न ही उठे। बच्चों के अवकाश का समय बेकार नहीं जाने देना चाहिये उसे किसी किसी प्रकार उपयोग में लाना ही ठीक होगा।

वे अभिभावक जिनका अपना कुछ काम नहीं होता, बच्चों को आगे जिस काम में लगाना चाहते हैं उस काम के लिये किन्हीं दूसरे कारवारी के पास भेज सकते हैं। मानिए आप बच्चे को तकनीकी क्षेत्रों में पहुंचाना चाहते हैं किन्तु आप स्वयं किसी कार्यालय में नौकरी करते हैं। ऐसी दशा में आप बच्चे को किसी भी मित्र परिचित अथवा सम्बन्धी के उस कारखाने में भेज सकते हैं जिसमें मशीनरी अथवा अन्य तकनीकी काम होता हो। किसी कारखाने के मालिक मैनेजर को बच्चे से काम लेने के लिए कह सकते हैं। शायद ही ऐसा कोई अदूरदर्शी मैनेजर मालिक हो जो आप की प्रार्थना अस्वीकार कर दे। आज देश को ज्यादा तकनीशियनों के जरूरत है सरकार को ही नहीं व्यक्तिगत उद्योगपतियों तथा छोटे-छोटे कारखानेदारों को उनकी कमी रहती है। वे तो खुशी से चाहेंगे कि लोग अपने बच्चे तकनीकी लाइन में सीखने के लिए भेजें।

इसी प्रकार जो अपने बच्चे को व्यापारी बनाना चाहते हैं। यदि बच्चे निस्वार्थ भाव से ईमानदारी के साथ काम तथा सेवा करेंगे तो कोई भी उन्हें रखने सिखाने में आपत्ति करेगा। बहुत से परिवारों में उनके घरेलू उद्योग धन्धे होते हैं। वे बच्चों को उसमें लगा सकते हैं। कताई वाले कताई और सिलाई वाले उनको सिलाई का प्रशिक्षण दे सकते हैं। रंगाउ, मीनकारी अथवा कढ़ाई, छपाई का काम करने वाले उन्हें अपने काम का अभ्यास करा सकते हैं इस प्रकार एक नहीं सैकड़ों काम ऐसे हो सकते हैं अवकाश के दिनों में जो बच्चों को सिखाये और उनसे कराये जा सकते हैं। अवकाश का समय जिस प्रकार से चाहें खराब करें बच्चों को इसकी स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिए। उन दिनों उनका सामान्य नियम बंधन भी टूट जाता है पढ़ाई लिखाई का काम एक तरह से स्थगित हो जाता है। इसलिए समय पर उठना, स्कूल के लिये तैयारी करना, समय पर पढ़ना और समय पर खेलने के सारे नियम शिथिल हो जाते हैं, जिससे उनमें आलस्य, अव्यवस्था तथा अनियमितता की दुर्बलता पैदा हो जाती है जो स्कूल खुलने के बाद बहुत-सा समय लेकर दूर हो पाती है’’ इसलिये उनको अवकाश के दिनों को सोने, मटरगस्ती करने अथवा जहां-तहां निठल्ले उठने बैठने की छूट कदापि नहीं दी जानी चाहिये। आवश्यक पर उन्हें किन्हीं उपयोगी काम में लगाया जाना चाहिये। यह उनके भविष्य के लिये ही हितकारी होगा। बेकार फिरते रहने से उनमें अन्य अनेक प्रकार के विकार व्यसन भी पैदा हो सकते हैं।

प्रगतिशील विदेशों में छात्रों का अवकाश बेकार नहीं जाने दिया जाता है। उनमें संस्थाओं तथा सरकार के सहयोग से छात्रों के अवकाश शिविरों का आयोजन किया जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिका को ले लीजिये वहां के ये शिविर बड़े व्यावहारिक ढंग से चलाये जाते हैं और प्रतिवर्ष इनमें अधिकाधिक छात्र आकृष्ट होते रहते हैं। उन अवकाश शिविरों में उन्हें सुन्दर आहार, उचित काम, खेलकूद और स्वस्थ मनोरंजन के अवसर दिये जाते हैं। मनोवैज्ञानिक निर्देश, प्राथमिक चिकित्सा, जन-सेवा व्यायाम खेलकूद, तैराकी भोजन बनाने, आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। उन्हीं शिविरों में उन्हें नैतिकता, देश भक्ति तथा संसार की राजनीति पर प्रवचन तथा भाषण भी दिये जाते हैं और दिलाये भी जाते हैं विद्यार्थियों में नई स्फूर्ति नई रुचि तथा नई चेतना होती है। उनका मन पढ़ाई में पूरी तरह से लगता है और वे शिविरों से प्राप्त ज्ञान का उपयोग भी अपनी योग्यता प्रदर्शित करने में किया करते हैं।

अमेरिका की तरह छात्रों के अवकाश शिविरों का प्रचलन रूस में भी है रूस में इनका आयोजन शिक्षा बोर्ड की तरफ से होता है यद्यपि अभिभावकों से कुछ अनुदान लिया जरूर जाता है किन्तु इनका अधिकांश व्यय शिक्षा बोर्ड ही किया करता है। प्रत्येक विद्यालय अपना समावकाश का शिविर स्वयं आयोजित करता है। किसी पूर्व निश्चित स्थान पर बच्चों के रहने का प्रबंध झोपड़ों, लकड़ी के मकानों अथवा पुराने ग्रामों के खाली पड़े निवासों में कर दिया जाता है। इन शिविरों में स्वास्थ्य विश्राम तथा मनोरंजन के कार्यक्रमों के सिवाय विद्यार्थियों को नागरिकता की शिक्षा भी दी जाती है। इन शिविरों में बच्चों की टोलियां बट जाती हैं जो बारी बारी से सबके लिये भोजन बनाती और खिलाने की व्यवस्था करती हैं इस प्रकार उनको केवल पाक विद्या का अभ्यास होता है बल्कि प्रीति तथा सहभोजन का आनन्द मिलता है।

अवकाश के कार्य-क्रमों से निवृत्त होकर विद्यार्थी स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी मनमौज के मनोरंजन कर सकते हैं। इस समय कोई तो पेड़ों पर चढ़ने का अभ्यास करता है, कोई हरी घास पर बैठकर वार्तालाप करते हैं। कोई अपनी कूची और रंग लेकर प्रकृति का चित्रण किया करता है। कोई कविता लिखता तो कोई संगीत का आनन्द लेता है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र की सफाई शिविरों की व्यवस्था तथा दूर-दूर तक सैर सपाटों का कार्यक्रम भी रहता है। द्वितीय महायुद्ध के समय रूस के छात्रों ने सत्र की छुट्टियां अपने अध्यापकों की देख रेख में सामूहिक तथा सहकारी खेतों में काम करने में ही बिताई थी।

942 के अवकाश में पैंतालिस लाख छात्रों और आठ लाख अध्यापकों ने खेती में हाथ बटाया था। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे बच्चों ने विभिन्न कार्यों के लिये फलों, कुकुरमुत्तों और औषधियों का भी संग्रह किया था। केवल बीस प्रदेशों के बच्चों ने स्थानीय अधिकारियों को लगभग तीन सौ चवालीस टन फुरवा धड़का कुकुरमुत्ता, ग्यारह सौ तिरेपन टन बेरी और फल और ग्यारह सौ पचास टन औषधियों का संग्रह भेंट किया था बच्चों की यह राष्ट्रीय सेवा किसी भी दृष्टिकोण से कम महत्वपूर्ण नहीं है। कौन कह सकता है कि बच्चों की इस देश भक्ति के, इस परिश्रम तथा इस पुरुषार्थ ने स्वाधीनता की रक्षा में कितना योगदान किया था।

इन्हीं अवकाश शिविरों के अवसर पर, बच्चों को सहकारिता, सहयोग, राष्ट्रीयता तथा नागरिकता की शिक्षा व्यावहारिक रूप से दी जाती है। सहकारी खेती और सामूहिक फार्मिंग का प्रशिक्षण दिया जाता है। इन भौतिक लाभों के अतिरिक्त इन शिविरों से छात्रों को भावनात्मक लाभ भी कम नहीं होता। इससे उनमें पारस्परिक, प्रेम तथा सौहार्द की भावना बढ़ती है। वे सहकारिता तथा मिलजुल कर काम करने के मूल्य को समझते हैं उनमें भाई चारे का भाव बढ़ता है, कितना अच्छा हो कि भारत में भी छात्रों के अवकाश शिविर आयोजित किये जाये और उनको उपयोगी काम तथा महान चरित्र की शिक्षा दी जाया करे। सरकार तथा संस्थाओं से तो आशा की ही जा सकती है, साथ ही अभिभावकों से भी यह आशा करना अनुचित नहीं कि वे अपने बच्चों को छुट्टियां आलस में बिताने दें उन्हें ऐसे उपयोगी कामों में लगाते रहें जिनका सुफल वे स्वयं पावें और उनका राष्ट्र भी। अध्यापक तथा अभिभावक मिलकर किसी किसी प्रकार इस प्रकार के छोटे छोटे छात्र शिविरों का आयोजन कर सकते हैं, और देश समाज के हित में उन्हें करने ही चाहिए। यदि भावना हो तो सब कुछ हो सकना सम्भव है।

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