हमारे जीवन में शिक्षा का स्थान बहुत ऊंचा है। प्राचीन काल के विद्वान भी कह गये हैं कि ‘‘विद्याविहीन मनुष्य बिना सींग-पूंछ का पशु ही है’’ वास्तव में मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का उचित विकास शिक्षा द्वारा ही होता है और तभी वह संसार में कोई महत्वपूर्ण कार्य करने लायक बन पाता है।
इस सम्बन्ध में हमें एक बात बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिये कि केवल किताबी पढ़ाई को ही शिक्षा नहीं समझना चाहिए। उससे भी पहली शिक्षा चरित्र गठन और आरोग्य की होनी आवश्यक है। यदि दोनों शिक्षायें पूरी हो जायें और किताबी शिक्षा में कुछ कमी भी रह जाय तो मनुष्य संसार में सुविधापूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। पर चाहे हम 15 ही वर्ष की आयु में बी.ए. पास करलें तो भी यदि हम अपने चरित्र और स्वास्थ्य को नहीं संभाल सके हैं तो वह सब पढ़ाई बेकार ही समझनी चाहिये। एक विद्वान के कथनानुसार ‘पहले प्रकार की विद्या सोने में सुगन्ध का कार्य करती है, समाज में एक चमकते हुए रत्न को उत्पन्न करती है, जबकि दूसरे प्रकार की शिक्षा एक भयंकर रोग से कम दुःखदाई नहीं होती। बन्दर के हाथ में तलवार देने से जो फल होता है, कोरी पुस्तकीय शिक्षा से भी वैसे ही फल की आशा रखनी चाहिये।’
जो लोग यह समझते हैं कि छोटी आयु से ही स्कूल में पढ़ाई आरम्भ कर देना और थोड़े ही समय में ऊंची डिग्री हासिल कर लेना बड़ी प्रशंसनीय बात है वे बड़ी गलती पर हैं। जो शिक्षा स्वास्थ्य को चौपट करके और सदाचार के सिद्धान्तों की उपेक्षा करके प्राप्त की जायगी वह बहुमूल्य नहीं, वरन् धूल के समान है। उससे कल्याण होने के बजाय अपना, परिवार वालों का और आस-पास वालों का भी कुछ-न-कुछ अहित ही होगा। बालक की असली शिक्षा स्कूल में नहीं होती,
बच्चे को स्कूल में दाखिल कराते समय उसके शारीरिक स्वास्थ्य पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। जरा देर हो जाने से कुछ हानि नहीं होती पर कमजोर शरीर के बालक पर पढ़ाई का जबर्दस्त भार लाद देने से बहुत बुरा परिणाम होता है और वह जन्म भर के लिये अशक्त और रोगी बन जाता है। अंग्रेजी के एक बहुत प्रसिद्ध लेखक जान-स्टुआर्ट मिल ने अपनी बाल्यावस्था का वर्णन करते हुये लिखा है कि बचपन में अत्यन्त तीव्र बुद्धि होने के कारण उससे लाभ उठाने के लिये उसके पिता ने शारीरिक और मानसिक शक्ति का विचार किये बिना उसे इतना पढ़ा डाला कि बड़े-बड़े विद्वान उसके विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान को देखकर चकित रह जाते थे। पर अब जब मैं अपने बचपन की याद करता हूं तो मेरा हृदय क्रोध और क्षोभ से भर जाता है। मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि उस परिस्थिति में रहकर मैं पागल क्यों नहीं हो गया, क्योंकि मेरे पिताजी का ढंग ऐसा ही था।
फिर इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि सब बालकों को एक-सी शिक्षा देना हर्गिज लाभदायक नहीं हो सकता। खासकर शहर और गांव के लड़कों को एक समान शिक्षा कभी उपयोगी सिद्ध नहीं होगी। शहरों के लोग प्रायः अपने लड़कों को कोई बड़ी या छोटी नौकरी प्राप्त करने का उद्देश्य रखते हैं। वहां के शेष लोग अपने लड़कों को थोड़ा पढ़ना और हिसाब आदि सिखाकर व्यापार में लगाने का विचार रखते हैं। पर गांव के लड़कों को इसमें से कोई शिक्षा लाभदायक नहीं हो सकती। अगर उसे ऐसी शिक्षा दी जायगी तो उसका परिणाम यही निकलेगा कि वह अपने बाप के धन्धे में सहायता देने के अयोग्य हो जायगा और अन्य किसी दिशा में भी उल्लेखनीय प्रगति न कर सकेगा। कितने ही अन्य देशों में इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है, कि ग्रामीण बालक पढ़-लिखकर भी अपने पैतृक पेशे से उदासीन न हो जाय। अमरीका के ग्रामीण स्कूलों में जो पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं उनमें से पाठ ग्रामीण-जीवन के उपयुक्त होते हैं। उनमें यदि गणित पढ़ाया जाता है तो उसके प्रश्न भी ऐसे रखे जाते हैं जो ग्राम की अर्थ व्यवस्था के अनुकूल हों। उस पुस्तकों में कृषि सम्बन्धी विभिन्न कार्यों, फसलों में सुधार, फलों की खेती आदि के सम्बन्ध में उपयोगी वैज्ञानिक ज्ञान सरल भाषा में दिया जाता है।
शहरों के स्कूलों में भी बालकों की रुचि वैभिन्य का ख्याल नहीं रखा जाता और सबको एक लाठी से हांका जाता है। उनमें से कोई क्लर्क बनता है तो कोई शिक्षक, कोई कलाकार होता है तो कोई कारीगरी के क्षेत्र में प्रवेश करता है। पर इन सबको प्रायः स्कूल और कालेजों तक एक-सी शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार उनकी कितनी शक्ति और समय बर्बाद हो जाता है और उसका समस्त राष्ट्र की प्रगति पर क्या प्रभाव पड़ता है, यदि इसका कभी हिसाब लगाया जाय तो मालूम होगा कि हम स्वयं अपनी उन्नति के मार्ग में रोड़ा अटका रहे हैं, और इतने अधिक मानव श्रम तथा मानसिक शक्ति का अपव्यय कर रहे हैं कि जिसके द्वारा हमारा बहुत हित साधन हो सकता है।
इस प्रकार हमारे यहां की शिक्षा बिना किसी उचित योजना और व्यवस्था के अस्त-व्यस्त ढंग से चल रही है। अधिकांश मां-बाप बचपन में सिवाय बच्चों को लाड़-प्यार में रखने के उसकी आदतों और चरित्र निर्माण के विषय में न तो कुछ जानते हैं और न कुछ प्रयत्न करते हैं। यदि कोई थोड़ा बहुत जान भी लेता है तो उसके पास इतना समय नहीं होता कि वह इस सम्बन्ध में सदैव ध्यान दे सके। इसके बाद पांच-छः वर्ष की आयु में जब बच्चों को पढ़ने के लिये स्कूल में भेजा जाता है तो वहां अध्यापक भी उसकी घर की आदतों और स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर ध्यान दिये बिना एक ही ढर्रे पर चलाने लगते हैं। इतना ही नहीं अधिकांश शिक्षक तो अब भी ऐसे ही दिखाई पड़ते हैं जो बच्चों को धैर्य पूर्वक नये वातावरण के अनुकूल बनाने की अपेक्षा धमकाने, डांटने-डपटने और छड़ी का भय दिखाने से ही काम लेते हैं। पुराने ख्याल के शिक्षकों में तो यह विचार घुसा ही हुआ है कि पढ़ाई पीटने और भय दिखाने से ही होती है। इस प्रकार बच्चों का शिक्षक उनका भाग्य ही होता है और वे संयोगवश जो कुछ बन जाते हैं उसी पर उनका सन्तोष करना पड़ता है।
सभी विचारशील व्यक्ति यह कहते हैं कि बच्चों पर ही देश और जाति का भविष्य निर्भर है और उनकी शिक्षा की ठीक-ठीक व्यवस्था होने से ही हम एक सुखी और समृद्ध राष्ट्र बन सकते हैं। पर व्यवहार में इस पर अमल करने की कोई चेष्टा देखने में नहीं आती। जैसा हमने आरम्भ में ही कहा है कि सब प्रकार की शिक्षा की नींव मनुष्य का चरित्र और शारीरिक तथा मानसिक शक्ति का उचित विकास है। इसलिये जो माता-पिता तीन-चार वर्ष की आयु में बच्चे को कुछ समझदार देखकर उसे वर्णमाला और पहाड़े सिखाकर प्रसन्न होते हैं वे वास्तव में बड़ी गलती करते हैं। हमने ऐसे सैंकड़ों बालक देखे हैं जो बाल्यावस्था में बड़े चपल और बुद्धिमान प्रतीत होते थे, पर दस-बारह वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते बिल्कुल निकम्मे, आवारा और पढ़ने के बजाय तरह-तरह के दुर्गुणों से ग्रस्त हो जाते हैं। इसलिये घर और स्कूल में भी सबसे पहले बच्चों के चरित्र और स्वभाव के निर्माण पर ध्यान दिया जाना चाहिये। यदि ये बातें ठीक हो गईं तो वह फिर अपनी योग्यता के अनुसार कोई भी शिक्षा प्राप्त कर सकता है और उसे से उसका भावी जीवन सुखी बन सकेगा।