बच्चों के शारीरिक और मानसिक जीवन का गठन बहुत कुछ अभिभावकों पर निर्भर करता है। पालन पोषण से सम्बन्ध रखने वाली सामान्य सी बातें भी बच्चों के जीवन में महत्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं। वैसी प्रत्येक बच्चे के स्वभाव, संस्कार, मूल प्रवृत्तियों में अपनी कुछ न कुछ विशेषतायें ठीक उसी तरह होती हैं जैसे अलग अलग चेहरे अंगूठे की अलग-अलग छाप। फिर भी मां-बाप द्वारा बच्चों का पालन पोषण उनके विकास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अच्छी तरह खाद पानी देकर, काट छांट करके माली पौधों को अधिक उपयोगी और फलदायी बना सकता है। उपेक्षा, साज-सम्हाल के अभाव में मूल्यवान पौधा भी सूख जायगा या अविकसित, भौंड़ा रह जायगा जिससे मधुर फलों की भी कोई आशा नहीं की जा सकती। इसी तरह बच्चों का ठीक-ठीक पालन पोषण किया जाय, उनकी शिक्षा का समुचित ध्यान रक्खा जाय तो मनुष्य की शक्ल में पैदा होने वाला प्रत्येक बालक उत्कृष्ट और महान व्यक्ति बन सकता है। इसके विपरीत ठीक-ठीक पालन पोषण न होने पर बच्चों के निर्माण में ध्यान न देने से होनहार बालक भी अविकसित रह जाते हैं।
बाल्यकाल में जिन आदतों की नींव लग जाती है वे ही सारे जीवन भर अपना प्रभाव डालती रहती हैं। बचपन में पड़े संस्कार, भावनाएं जीवन का एक प्रमुख अंग बन जाते हैं। वस्तुतः बाल्यकाल सम्पूर्ण जीवन की नींव है। बच्चों की कोमल मनोभूमि पर पड़े हुए विभिन्न प्रभाव उसके मानस पटल पर चित्रवत् अंकित हो जाते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी प्रभाव बच्चों पर पड़ता है वैसे ही वे बन जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों पर अच्छा प्रभाव पड़े, उन्हें अच्छाइयों की प्रेरणा मिले। यह सब मां बाप के ऊपर ही निर्भर है। बच्चों का पालन पोषण एक महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। इसे पूर्ण करने के लिए उन्हें काफी समझदारी, ज्ञान, विचारशीलता से काम लेना आवश्यक है।
कई माता पिता बच्चों पर आवश्यकता से अधिक प्यार, स्नेह, लाड़ करते हैं। हांलाकि बच्चों के लिए स्नेह, प्यार दुलार की उतनी ही आवश्यकता है जितनी उन्हें खिलाने पिलाने की। अभिभावकों के लाड़ प्यार से बच्चों का मानसिक विकास होता है। उनके जीवन में सरसता पैदा होती है उनका व्यक्तित्व पुष्ट बनता है किन्तु अमर्यादित लाड़-प्यार बच्चों के जीवन में अनेकों बुराइयां पैदा कर देता है। जब अमर्यादित लाड़ प्यार से बच्चों को कोई काम नहीं करने दिया जाता, उनकी उचित-अनुचित मांगों को पूरा करने में कोई कसर नहीं रखी जाती तब उनके तनिक से रूठने मचलने या दूसरे बच्चों की शिकायत पर परेशान हो जाना मां बाप की ऐसी भूल है जिससे बच्चों में अनेकों बुराइयां, खराब आदतें पैदा हो जाती हैं। ऐसे बच्चे आत्मनिर्भर, स्वावलम्बी नहीं बन पाते। वे अपने प्रत्येक काम की पूर्ति दूसरों से चाहते हैं। परावलम्बन, आलस्य, आरामतलबी, फिजूलखर्ची, आवारागर्दी आदि बुराइयां मां बाप की उन सामान्य-सी भूलों से ही पैदा होती हैं जो बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा में उन्होंने लाड़-प्यार वश कीं। यह एक आम बात है कि “लाड़ले बच्चे अक्सर बिगड़ जाते हैं।” ऐसे बच्चों में जिन्दगी के कठिन दिनों में चलने की शक्ति नष्ट हो जाती है।
प्रत्येक बालक में अपनी एक जन्म जात प्रतिभा होती है। एक विशेषता होती है। बच्चे की इस मूलभूत प्रतिभा, प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर उसी दिशा में उसे बढ़ाया जाय तो वह एक दिन असाधारण स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत यदि बालक को उसकी मूल प्रवृत्ति, प्रतिभा के विपरीत चलाया जायगा तो वह विशेष सफलता, विकास की स्थिति प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा। वह बेचारा सामान्य सी घिसी पिटी जिन्दगी ही व्यतीत करेगा। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि माता पिता बच्चे की मूल प्रवृत्ति, मूल प्रतिभा को जानें, पहिचानें और उसी के अनुरूप उसे विकसित होने की दिशा, साधन, सुविधाएं प्रदान करें। जो मां बाप अपने ही दृष्टिकोण से अपनी इच्छानुसार बच्चे का भविष्य देखना चाहते हैं वे बड़ी भूल करते हैं। इंजीनियर का लड़का इंजीनियर बने, कलाकार का कलाकार और वकील का लड़का भी वकालत करे यह कोई नियम नहीं है। रुचि, प्रतिभा, मूल प्रवृत्ति से अभिभावक और बच्चे के कार्यक्रमों में असमानताएं रहनी स्वाभाविक ही हैं। अतः एकांगी निर्णय, एकांगी दृष्टिकोण से बच्चे के भावी जीवन की रूपरेखा न बनाई जाय। संगीत प्रतिभायुक्त बच्चों को क्लर्क राजनीतिज्ञ बनाना, संवेदनशील भावुक कोमल हृदय बच्चों को डॉक्टर बनाना, चिन्तनशील दार्शनिक विचारक बच्चों को तराजू तोलने की दुकान पर बैठाना, अभिभावकों की बड़ी भारी भूल है। इससे बच्चों की मूलभूत प्रतिभा का विकास नहीं होता वे सामान्य सा जीवन ही बिताते रहते हैं।
बच्चों को अपने बाल साथियों में न खेलने देना, दूसरे बच्चों से मिलने जुलने से रोकना भी ठीक नहीं। परस्पर दूसरे बच्चों में मिलने-जुलने से ही बालकों का विकास होता है। उनमें मेल-जोल की वृत्तियां पैदा होती हैं। किन्तु कई अभिभावक संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण, बच्चों के बिगड़ जाने के भय से, आवारा बन जाने की शंका से बच्चों को दूसरे बच्चों से मिलने जुलने नहीं देते। उन्हें बार-बार डांटते फटकारते हैं और रोकते हैं। इससे बच्चों में कई मानसिक विकृतियां पैदा हो जाती हैं। ऐसे बच्चे आगे चलकर अन्यमनस्की, एकांकी, असामाजिक वृत्ति के बन जाते हैं। वे दूसरों से मिलने जुलने में संकोच अनुभव करते हैं। संसार उन्हें कैद की तरह लगता है। उनकी कोमल भावनायें कुण्ठित हो जाती हैं। यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि बच्चों को ऐसे ही बालकों में मिलने जुलने दिया जाय जो सभ्य घरों में जन्में और श्रेष्ठ वातावरण में पले हों तथा सुसंस्कृत हो। कुसंस्कारी, बुरे, आवारा बालकों से तो बच्चों को बचाये रखना ही उचित है।
कई मां-बाप बच्चों को यह सोचकर कि उनका बच्चा अधिक पढ़ेगा, अधिक परिश्रम करेगा और उन्नत बनेगा बार-बार टोकते हैं। बार-बार आदेश पूर्ण दबाव डालते रहते हैं। दूसरे लड़कों की तुलना करते हुए समझाते हैं ‘‘अमुक तो इतना होशियार है उसकी बराबरी यह क्या करेगा।’’ इस तरह कई मां-बाप अपने बच्चों को कहते सुनते देखे जाते हैं। वे सोचते हैं इससे बच्चा अधिक मेहनत करेगा किन्तु परिणाम इसके विपरीत ही निकलता है। इससे बच्चों का आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है। उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्य और सफलता में सन्देह होने लगता है। कई बच्चों में तो यह सन्देह इतना प्रबल हो जाता है, कि वे असफलता को निश्चित मानकर प्रयत्न ही नहीं करते। जैसे तैसे अधूरे मन से प्रयत्न भी करते हैं तो सफल नहीं होते। बच्चों को हीन कमजोर बताना, उनकी बार-बार आलोचना करना, उन्हें वैसे ही बनाना है जैसे अभिभावक गण स्वयं नहीं चाहते। बच्चों को स्पर्धा की, प्रोत्साहन और प्रेरणा भरी बातें कहना, उनके आत्मविश्वास के उत्साह को बढ़ाना ही उनके जीवन की सफलता, प्रौढ़ता, विकास का रहस्य है। इतना ही नहीं गल्तियों, भूलों से होने वाली हीन प्रतिक्रिया को ही बच्चों के मानसपटल से दूर कर देना चाहिए। इससे महत्वपूर्ण कार्यों में निर्भीक निःसंकोच हाथ डालने की क्षमता और जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहने की मानसिक दृढ़ता प्राप्त होती है। बच्चों को जन्म देना, उनका, पालन पोषण करना, उनकी साज सम्हाल रखना मां का उत्तरदायित्व है। किन्तु बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, उनका मानसिक विकास, स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण, उन्हें मनुष्य बनाने का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व पिता पर ही है। स्कूल कालेजों में भी पुस्तकीय ज्ञान; अक्षर ज्ञान ही हो पाता है किन्तु जीवन के आन्तरिक एवं बाह्य समग्र ढांचे का निर्माण पिता द्वारा ही पूर्ण होता है। यह एक निश्चित तथ्य है। इसके लिए बच्चों और पिता में नित्यप्रति का संपर्क रहना, पिता द्वारा बच्चों के जीवन में गहरी दिलचस्पी का होना आवश्यक है। अक्सर आजकल के संघर्षमय, भाग दौड़ के जीवन में इसकी कमी होती जा रही है। बच्चों से पिता का संपर्क बहुत कम हो पाता है या इसका सर्वथा अभाव ही रहता हैं। वकील व्यापारी, डॉक्टर, शिक्षक, राजनीतिज्ञ नेता सभी अपने कार्यक्रमों में इतने व्यस्त रहते है कि वे इसके लिए अपना कुछ समय भी नहीं दे पाते। अन्य सामान्य अशिक्षित लोगों को इसका पूरा ज्ञान ही नहीं होता। कई लोग बच्चों में घुलना मिलना अच्छा नहीं समझते । कुछ भी हो किन्तु यह एक भारी भूल है।
पिता के साथ खेलने कूदने की बच्चों में एक स्वाभाविक भूख होती है। जिसके तृप्त न होने पर बच्चों का मानसिक विकास नहीं होता और वे परित्यक्त की तरह निराशा, उदासीनता, अवसाद से ग्रस्त हो जाते हैं। मानसिक दृष्टि से ऐसे बच्चे जिन्हें पिता का संपर्क प्राप्त नहीं हुआ, अविकसित, फूहड़, अयोग्य निकलते हैं।
बड़े आदमी, जो बच्चों के लिए कुछ भी समय नहीं लगाते, उनके बच्चे अधिक बिगड़ते देखे जाते हैं। अतः एक पिता होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ न कुछ समय बच्चों के लिए अवश्य निकालना चाहिए। समाज में भले ही कोई कुछ भी हों, बड़ी सम्पत्ति के मालिक, बड़े राजनीतिज्ञ, नेता वैज्ञानिक, व्यापारी वकील से लेकर सामान्य श्रेणी के व्यक्ति भी अपने बच्चों के किए पिता ही हैं। और पिता के कर्तव्य उत्तरदायित्व को निर्वहन भी उनके लिए उसी तरह अनिवार्य और आवश्यक है जिस तरह उनका पिता होने का अधिकार है।