विश्व दृष्टि ही उबारेगी आज की संकीर्ण सोच से

June 2002

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विश्व दृष्टि देव संस्कृति विश्वविद्यालय की मौलिक विशेषता है और रहेगी। इसका मतलब दुनिया भर में फैले हुए ज्ञान की सभी किताबों के पन्ने पलटने से कहीं बहुत ज्यादा है। इसमें विश्व जितनी व्यापकता, विशालता एवं विस्तार है। चिन्तन की दृष्टि के इसी उदार भाव से आज के युग प्रश्न हल होंगे। संकीर्ण, सीमाओं से आबद्ध और आग्रहों से जकड़ी हुई सोच किसी भी तरह काम आने वाली नहीं है। आज की दुनिया नयी है, एकदम बदली हुई। लेकिन हमारी सोच वही पुरानी है, अपनी सीमाओं से बंधी, अनेक आग्रहों से लिपटी। दोनों के बीच कोई ताल-मेल नहीं है। और इसी कारण सब ओर समस्याएँ हैं, सवाल हैं, समाधान कहीं भी किसी तरफ नजर नहीं आते।

क्योंकि हम जो उत्तर ढूंढ़ते हैं, वह तो हमारी सोच की ही भाँति पुराना और मरा है। आज दुनिया के सामने बड़ी अजीब घड़ी है, जिन्दा प्रश्न मरे हुए उत्तरों की लाशें ढो रहे हैं। इस बेवजह के वजन से प्रश्नों की बौखलाहट और ज्यादा बढ़ गयी है। वे अधिक क्रुद्ध एवं परेशान होकर ध्वंस मचाने और आतंक फैलाने पर आमादा हो गए हैं। मनीषी हैरान हैं और विचारशील व्यथित, उन्हें सूझ ही नहीं रहा कि आखिर हो क्या गया है? वे सोचते हैं कि आखिर बात क्या है? बात दरअसल यह है कि उनके उत्तर मरे हुए हैं और प्रश्न जीवन्त हैं।

जैसे मरे हुए आदमी और जिन्दा आदमी के बीच कोई बातचीत नहीं हो सकती। ठीक ऐसे ही हमारे समाधानों और हमारी समस्याओं के बीच कोई बातचीत नहीं हो पा रही। एक तरफ समाधानों का ढेर है और एक तरफ समस्याओं का ढेर। लेकिन दोनों के बीच कोई सेतु नहीं है, क्योंकि सेतु हो ही नहीं सकता। मुर्दा और जिन्दा के बीच संवाद की कोई सम्भावना नहीं है। इनके बीच जबरदस्ती संवाद पैदा कराने की कोशिश में जीवन उलझता जा रहा है। इस उलझन से छुटकारा पाने के लिए हमें अपनी बुनियादी भूल समझनी होगी। यह बात अच्छी तरह से जाननी होगी जीवन के प्रवाह में सब का सब बदल चुका है। आज के सवाल एकदम नए और ताजे हैं।

यह सत्य विश्वदृष्टि से ही देखा, जाना और समझा जा सकता है। जिनके पास यह नजर है वे देख रहे हैं कि दुनिया बड़ी तेजी से पुरानी दीवारों को गिरा कर एक होने की कोशिश में है। इस कोशिश में सभ्यताओं, संस्कृतियों की दीवारों में लगातार दरारें आ रही हैं। पहले तो यातायात के साधनों में सुगमता, उस पर से संचार क्रान्ति, इलेक्ट्रानिक युग का अवतरण, टेलीफोन और कम्प्यूटरों का संजाल। भौतिक दूरियों जैसी कोई बात रह ही नहीं गयी। लेकिन इस बदलाव ने अनेकों नए सवाल खड़े कर दिए हैं। ऐसे सवाल जो पहले कभी देखे और सुने नहीं गए।

ये सवाल मान्यताओं, रीति रिवाजों एवं परम्पराओं के उलझ जाने से उठ खड़े हुए हैं। इस साँस्कृतिक एवं सामाजिक उलझन के अलावा वैज्ञानिक उलझनें भी है। वैज्ञानिक प्रयोगों के सत्परिणाम हैं तो दुष्परिणाम भी हैं। पर्यावरण का संकट दुनिया को लीलने-निगलने के लिए तैयार खड़ा है। संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ ही नहीं धर्म और विज्ञान भी टकरा रहे हैं। बदली हुई स्थितियों में ज्ञान की तीव्रता से विस्फोट हुआ है। दुनिया भर के बच्चों में प्रतिभा एवं बौद्धिक क्षमता पहले की तुलना में आज कई गुना ज्यादा है। अगर इसका समय रहते सही सुनियोजन न किया गया तो इसके भटकने, बहकने और विध्वंसक हो उठने का भारी खतरा है।

ये और ऐसे ही अनेक, अनगिनत सवालों के जवाब पुरानी सोच के सहारे नहीं खोजे जा सकते। इन युग प्रश्नों का हल खोजने के लिए विश्व दृष्टि की आवश्यकता है। क्योंकि इसी से यह सच देखा जा सकता है कि पुरानी पड़ चुकी सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के खण्डहरों से विश्व संस्कृति जन्म ले रही है। आज होने वाली सभी क्रान्तियाँ इसके जन्म की शुभ सूचना है। लेकिन इस शुभ सूचना में युग प्रश्नों की आहटें भी हैं। इन्हीं के समाधान से भावी विश्व संस्कृति का ढाँचा तैयार होगा। उसमें प्राणचेतना प्रवाहित होगी। यह सब करने के लिए नए इंसानों को गढ़ने की जरूरत है।

विश्वविद्यालय की विश्व दृष्टि का आदर्श एवं उद्देश्य यही है। यहाँ व्यापक सोच वाले इन्सान गढ़े जाएँगे। ऐसे इन्सान जो पुरानेपन के खोल से बाहर निकलने का साहस जुटा सकें। जिनकी सोच अपनी परम्पराओं, रीति-रिवाजों एवं संकीर्णता के अगणित बन्धनों से मुक्त हो। जो परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देने का साहस कर सकें। ऐसे साहसी व्यक्ति ही विश्व संस्कृति के निर्माता हो सकते हैं। इन्हीं के भरोसे दुनिया अपने सवालों के सही समाधान खोज सकती है। इन नए मनुष्यों में खण्डित दुनिया की उलझनें नहीं, समग्र विश्व की संवेदना स्पन्दित होगी।

कन्फ्यूशियस ने अपनी एक किताब में कुछ ऐसा ही सच बयान किया है। उसने लिखा है कि मेरे पूर्वज कहते थे कि गाँव के पास नदी बहती थी। नदी के उस पार रात को कुत्ते भौंकते थे तो हमें आवाज सुनायी पड़ती थी, लेकिन पता नहीं चलता था कि नदी के पार कौन रहता है? नदी बड़ी थी और नाव खोजी न गयी थी। नदी के पार कोई रहता है, कोई गाँव है, कभी-कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज रात के सन्नाटे में सुनायी पड़ती है, लेकिन नाव न थी। उस गाँव की अपनी दुनिया थी, इस गाँव की अपनी दुनिया थी। एक-एक गाँव की अपनी दुनिया थी। एक-एक देश की अपनी दुनिया थी। सारी मनुष्यता जुड़ी न थी। उस खण्डित दुनिया की खण्डित सोच, खण्डित समाधान आज किसी काम के नहीं हैं।

हर युग को अपना विचार पैदा करना होता है, हर युग को अपनी दृष्टि विकसित करनी होती है, जो ऐसा नहीं कर पाते, उनसे युग प्रश्नों की चुनौतियाँ नहीं सम्हलतीं। उन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ती है, एक तरफ नए प्रश्नों की मार, दूसरी ओर सड़ी-गली, संकीर्ण सोच की लाशों का भार। इससे उबरने के लिए ही विश्व दृष्टि की जरूरत है। उन नए मनुष्यों को गढ़ने की जरूरत है, जिनमें विश्व दृष्टि की व्यापकता हो। जो जाति, धर्म, संस्कृति की उलझनों को सुलझाने में समर्थ हों। जो जान सकें कि भगवान अगर है तो इस पूरे जगत् में है। हर जगह उसका मन्दिर है, हर जगह उसकी मस्जिद, हर जगह उसके चर्च और गुरुद्वारे हैं। जिसे प्रार्थना करना आता है, वह किसी वृक्ष के नीचे या नदी के तट पर यहाँ तक कि अपने घर की छत पर ही मन्दिर बना सकता है। मन्दिर-मस्जिद या चर्च-गुरुद्वारे के लिए झगड़ा करने की क्या जरूरत है।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय विश्व दृष्टि की ऐसी ही व्यापकता में युग प्रश्नों का समाधान खोजने के लिए संकल्पित और प्रतिबद्ध है। यहाँ दिमाग की कोठरियों में पुस्तकीय ज्ञान को जिस-तिस तरह ठूँसकर, उसमें मजबूत ताला लगा देने वालों की कोई जगह नहीं होगी। यहाँ वे इन्सान जन्म लेंगे, जिनके दिमाग के खिड़की-दरवाजे खुले हों। पुस्तकें जिन्हें प्रेरणा दे, पाबन्दियाँ न लगाएँ। जो विचारशील और विवेकवान् हों, जो प्रश्नों के कारण की जड़ को समझें और उसके समाधान का साहस जुटाएँ। विश्वविद्यालय के सभी क्रियाकलापों, इसके सारे आयामों के पीछे यही विश्व दृष्टि क्रियाशील होगी। यही मूल प्रेरणा यहाँ के समूचे तंत्र को प्रेरित करेगी और इसके माध्यम से प्रवाहित होगी। विश्वविद्यालय का भवन इसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनेगा। यहीं पर युग प्रश्नों का हल ढूंढ़ने वाले नए इन्सान गढ़े जाएँगे।


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